Thursday, March 29, 2018

जर्जर होती पुरखों की शान

पीड़ा
मैंने पड़ दादाजी तो क्या दादाजी को भी नहीं देखा। जब पैदा हुआ उससे चार पांच साल पहले ही दादाजी का निधन हो चुका था। पड़दाजाजी तो उससे पहले ही स्वर्गवासी हो गए थे। लेकिन पड़दादाजी का नाम व उनकी ख्याति मैंने खूब सुनी है। सूरसिंह नाम था पड़ दादोसा का। उस वक्त अंग्रेजों की फौज में थे। पैसे वाले थे। चांदी के काफी सिक्के थे उनके पास। दादीजी बताती थी कि दिवाली पर पूजन के दौरान एक पूरी परात चांदी के सिक्कों से भर जाती थी। एक सोने का मोटा डोरा भी था जो शादी के समय दूल्हे को पहनाया जाता है। चर्चा तो यहां तक भी सुनी है कि पड़दादाजी की बही में आसपास के कई गांवों के लोगों के नाम लिखे थे, जो उनसे उधार लेते थे। पड़दादाजी के दो पुत्र हुए। बड़े अर्जुन सिंह व छोटे किशनसिंह। दोनों ही पुत्र स्वाभिमानी थे, लिहाजा पिता के विचारों से तालमेल कम ही बैठा। बड़े भाई व मेरे दादोसा अर्जुन सिंह ने जीवन भर खेती की जबकि किशनसिंह डूंडलोद ठिकाने में तहसीलदार थे। बताते हैं कि उन्होंने लोगों को खूब जमीनें बांटी लेकिन खुद के लिए कुछ नहीं रखा। पड़दादाजी ने आज से करीब सौ साल पहले एक हवेली बनाई थी। इस तरह की हवेलियां गांव में गिनी-चुनी ही हैं। इसी हवेली में मेरा जन्म हुआ। लेकिन इसके बाद हम नोहरे में आकर रहने लगे। हवेली का भाइयों में बंटवारा हुआ तो पिताजी के हिस्से में एक चौबारा आया जबकि एक कमरा दादीजी के नाम का रखा गया। चूंकि दादीजी हमारे पास थी, लिहाजा वह कमरा भी एक तरह से हमारे ही हिस्से में आ गया। धीरे-धीरे सभी भाइयों ने अपने-अपने नोहरों में पक्के मकान बना लिए तो हवेली सूनी हो गई। वैसे गांव की अधिकतर हवेलियों का हश्र एेसा ही है। मेरे बचपन की बहुत सी यादें इस हवेली से जुड़ी हैं। गर्मियों की छुट्टियों में हम बच्चे लोग हवेली में खूब खेलते। धमाल मचाते। दरवाजे के गेट खोल देते ताकि हवा लगती रहे। तब गांव में बिजली आने का समय व घंटे निर्धारित थे। तब हवेली एकदम साफ सुथरी और चकाचक थी।
धीरे-धीरे इसकी सारसंभाल कम होती गई। नौकरी के चक्कर में जो गांव से निकला फिर उसने घर की तरफ रुख नहीं किया। हमारे परिवार के अधिकतर लोग बाहर ही बस गए। दादाजी के पांच बेटों में चार का निधन हो चुका है। उन चारों बेटों के लगभग सभी पुत्र बाहर बस चुके हैं। उनके नए घरों पर भी ताला लटका है। देख रेख व बिना आदमियों के हवेली वीरान हो गई। अब यह पशुओं के लिए चारा डालने, आवारा पशु व कुत्तों की शरणगाह बन गई। देखरेख के अभाव में जीर्ण-शीर्ण हो चुकी है। अभी गांव गया तो उसकी दुर्दशा देखकर सच में रोना आ गया। आंखों के सामने पुरखों की शान को जमींदोज होता देख रहा हूं।

No comments:

Post a Comment