Thursday, April 26, 2018

राजनीति के रंग

बस यूं ही
राजनीति के रंग कई तरह के होते हैं। यह रंग हर किसी के जल्दी से समझ भी नहीं आते हैं। यहां कौन सगा है और कौन दगा देगा इसकी भी कोई गारंटी नहीं होती। यहां संबंध भी स्थायी नहीं होते। तभी तो अवसरवादिता को राजनीति का प्रमुख अंग माना जाता है। राजस्थान की राजनीति इन दिनों जबरदस्त तरीके से गरमाई हुई है। वैसे तो किरोड़ीलाल मीणा की वापसी तथा उनको राज्यसभा की टिकट दिए जाने के साथ ही राजनीतिक गलियारों में यह कयास लगने शुरू हो गए थे कि केन्द्र ने अब राज्य की राजनीति में दखल देना शुरू कर दिया है। उसी वक्त से राज्य में नेतृत्व परिवर्तन की चर्चाएं भी जोर पकडऩे लगी। नेतृत्व परिवर्तन तो नहीं हुआ लेकिन संगठन के मुखिया के अचानक त्यागपत्र ने सबको चौंका दिया। इससे बड़ी चौंकाने वाली बात थी जोधपुर सांसद व केन्द्रीय राज्यमंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत के प्रदेशाध्यक्ष बनने की चर्चा। सोशल मीडिया पर शेखावत का नाम बड़ी तेजी से वायरल हुआ। एक दो टीवी चैनल वालों ने भी उत्साह में उनका नाम बढा दिया। फिर क्या था, इसी के साथ शेखावत को बधाईदेने के संदेश भी वायरल होने लगे। बिना किसी अधिकारिक घोषणा या नियुक्ति के बधाई देने का यह अपने आप में अनूठा मामला था। मीडिया ने इस मामले को और अधिक चर्चा में ला दिया। मीडिया में नाम उछलना किसी रणनीति का हिस्सा था यह सिर्फ यह मीडिया की देन थी यह अलग विषय है लेकिन इसके बाद सोशल मीडिया पर दूसरी तरह की खबरें भी आने लगी। वैसे भी राजनीति में बड़े नेता कोई बात सीधे कहने से बचते रहते हैं। वे अपनी बात किसी समर्थक से कहलवाने में ज्यादा विश्वास रखते हैं। राजनीति में फिलहाल हाशिये पर चल रहे तथा कभी भाजपा के कद्दावर नेता रहे देवीसिंह भाटी के बयान को भी उसी नजरिये से देखा जा रहा है। भाटी ने अर्जुनराम मेघवाल व गजेन्द्रसिंह शेखावत दोनों के नाम पर सवाल उठाए हैं। मीडिया में भाटी के हवाले से बताया गया है कि शेखावत को प्रदेशाध्यक्ष बनाने से जाट मतदाता नाराज हो जाएंगे तथा मेघवाल को बनाने से सौ वोट भी नहीं मिलेंगे। मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में भाटी ने यह बयान खुद ने दिया है या दिलवाया गया है यह कहने की जरूरत नहीं है। पिछले दिनों बीकानेर में हवाई सेवा के उद्घाटन के बाद जिंदाबाद व मुर्दाबाद के नारे लगे, तब साबित हो गया था कि राजनीति में अब तक राज्य नेतृत्व के खिलाफ गाहे-बगाहे मोर्चा खोलने वाले भाटी पलट कैसे गए। जाहिर सी बात है हार के बाद राजनीतिक वनवास भोग रहे भाटी को इस बहाने संबंध सुधारने का बेहतर मौका मिलता भी कैसे। खैर, भाटी के बयान से इतना तय है कि गजेन्द्र सिंह शेखावत या अर्जुनराम मेघवाल की राह भी उतनी आसान नहीं है।
प्रदेशाध्यक्ष बदले जाने के शोर के बीच बहस इस बात पर भी जरूरी है कि सता व संगठन में संबंध कैसे हो। राज्य में सता व संगठन के संबंधों को यह कहकर प्रचारित किया गया है कि संगठन ठीक से काम नहीं कर रहा था, वह सत्ता के प्रभाव में था। अगर यही बात केन्द्र के संदर्भ में करें तो क्या वहां संगठन सत्ता से अछूता है? या सत्ता के प्रभाव में नहीं है? यह राजनीति है। इसके रंग निराले हैं। इसमें जिसका सिक्का चल निकलता है उसके सौ खून भी माफ हो जाते हैं और जिसके दिन उल्टे शुरू हो जाते हैं वो चाहे कैसा भी कर ले कोई यकीन नहीं करता। मौजूदा हालात देखते हुए इतना तय है कि विधानसभा चुनाव तक राज्य की राजनीति और अधिक गरमाएगी। इंतजार करते रहें।

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