Friday, August 31, 2018

इक बंजारा गाए-43


फिर गफलत
यूआईटी के कामों में अक्सर कोई न कोई पंगा आता ही रहता है। शायद ही ऐसा कोई काम होगा, जो शांतिपूर्वक सिरे चढ़ा हो। ताजा मामला सुखडिय़ा सर्किल पर लगाए गए तिरंगे झंडे का है। श्रेय लेने के लिए झंडे को जल्दबाजी में लगा तो दिया लेकिन उसको उतारने या आधा झुकाने के विकल्प पर विचार नहीं किया गया। स्वाधीनता दिवस के दूसरे ही दिन पूर्व प्रधानमंत्री के निधन पर राजकीय शोक घोषित किया गया तो झंडा आधा झुकाने के बजाय पूरा ही उतार लिया गया। बताया जा रहा है कि तिरंगे झंडे को झुकाने की व्यवस्था नहीं है, लिहाजा उसे पूरा ही उतारा गया। देखते हैं अधूरा काम पूरा कब तक पूरा होता है लेकिन जल्दबाजी में हुई गफलत ने एक बार तो पंगा डाल ही दिया।
आदेश से आफत 
अक्सर काम करने की नसीहत दी जाती है। आराम को हराम तक की संज्ञा दे दी गई है। फिर भी कई बार कामों को रोकना पड़ता है। कारण चाहे कुछ भी हों। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के निधन के कारण राजकीय शोक के साथ कुछ राज्यों में अवकाश की घोषणा भी की गई, लेकिन इस अवकाश को ग्रामीण विकास के जिला स्तरीय कार्यालय ने गंभीरता से नहीं लिया। बताया जाता है कि यह विभाग रविवार को भी अक्सर खुला रहता है। शायद इसी कारण राजकीय अवकाश के दौरान भी इसको खुला रखने के निर्देश दे दिए गए। मामला तूल पकड़ गया तो जिम्मेदारों को इसका अहसास हुआ। आखिर कार्यालय आए कार्मिक श्रद्धांजलि अर्पित कर लौट गए।
बीमार जनप्रतिनिधि
रंगीन कुर्सियों के मामले में इन दिनों गांवों की सरकार में जबरदस्त हलचल मची हुई है। मामला अभी विचाराधीन है लेकिन जनप्रतिनिधियों में अच्छी खासी चर्चा का विषय बना हुआ है। विशेषकर रंगीन कुर्सी लगाने वाली पंचायतों के मुखियों में इसी बात का भय है कि अब आगे क्या होगा। जब तक जांच मुक्कमल नहीं हो जाती है, यह भय बना ही रहेगा। वैसे भय चीज ही ऐसी होती है, भले चंगों को भी बीमार बना देता है। सुनने में आ रहा है कि जांच के भय के चलते कई जनप्रतिनिधि बीमार हो गए हैं। कुछ जनप्रतिनिधि तो जिला मुख्यालय के अस्पतालों में स्वास्थ्य लाभ ले रहे बताए। यह अनजाना भय तभी दूर होगा जब जांच में दूध का दूध और पानी का पानी होगा।
मार्केटिंग का जमाना
नेकी कर और दरिया में डाल वाली कहावत कभी प्रासंगिक रही होगी, मौजूदा दौर में इस कहावत के मायने बदल गए हैं। अब तो तिल का ताड़ बनाने या थोड़ा करके ज्यादा गिनाने व बताने का जमाना है। श्रीगंगानगर शहर भी इस बदलाव से अछूता नहीं हैं। यहां भी कुछ इस तरह की संस्थाएं हैं, जो कथित समाजसेवा के नाम पर असहाय लोगों की मदद करती हैं। यह बात दीगर है कि इनकी मदद की तरीका बिलकुल प्रचार वाला ही होता है। मतलब किसी को भोजन भी कराया जाता है तो बकायदा उसका ढोल पीटा जाता है। कुछ संस्थाएं तो ऐसी हैं, जो सामान किसी दूसरे से लेती हैं और श्रेय खुद ले उड़ती हैं। इतना ही नहीं दूसरों के दान पर खुद का लेबल लगाकर सम्मानित होने का रिवाज भी इन दिनों प्रचनल में है।
पूछ-परख का दौर
चुनाव का मौसम होता ही ऐसा है। पता नहीं क्या क्या जतन करने पड़ते हैं। मतदाताओं की पूछ-परख तो अचानक से बढ़ जाती है। उनके दुख-दर्द में भागीदार बनने की होड़ सी लग जाती है। इतना ही नहीं मतदाताओं को रिझाने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जाती। चुनाव की तिथि जैसे-जैसे नजदीक आएगी मतदाताओं की मांग व नखरे भी बढ़ते जाएंगे। फिलहाल शहर में खाने-पिलाने का दौर शुरू हो चुका है। कई तो चुनाव लडऩे के लिए इतने अधीर हैं कि शक्ति प्रदर्शन तक करने लगे हैं। यहां तक कि मतदाताओं को होटल में ठहराने में भी गुरेज नहीं कर रहे। टिकट मिले या न मिले यह अलग बात है कि पर कुछ नेता तो चुनाव लडऩे का पूरा मानस बना चुके हैं। इस बहाने हाथ खोलकर खर्चा भी कर रहे हैं।
समय-समय की बात
एक पूर्व मंत्री के खासमखास इन दिनों संकट हैं और पूर्व मंत्री चाहकर भी इनकी कोई मदद नहीं कर पा रहे। वैसे भी पूर्व मंत्री में अब पहले वाली बात नहीं रही। दरअसल, मंत्रीजी के खासमखास पहले किसी होटल को लेकर मुसीबत में फंसे थे। वह मामला अभी पूरी तरह से निपटा भी नहीं कि अब एक पीजी की ऊंचाई अधिक होने की शिकायत हो चुकी है। वैसे यह पीजी पूर्व मंत्रीजी के खासमखास के भाई का बताया जा रहा है। समय-समय की बात है, कभी मंत्रीजी के एक फोन पर ही काम हो जाया करते थे लेकिन आज उनके नजदीकी व खास लोग संकट में हैं और कुछ भी नहीं कर पा रहे। फिलहाल पीजी में रहने वाली लड़कियों को ढाल बनाकर बचाव का प्रयास कितना कारगर रहता है यह देखने की बात है।

----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर के 23 अगस्त 18 के अंक में प्रकाशित। 

No comments:

Post a Comment