Friday, August 31, 2018

इक बंजारा गाए-43


सदस्यता से हलचल
राजनीति में पाला बदलने की रीत पुरानी है। वैसे यह काम अक्सर मौका देखकर किया जाता है। विशेषकर चुनावी मौसम में पाला बदलने या किसी पार्टी से जुडऩे संबंधी मामले ज्यादा सामने आते हैं। बदलाव के इस दौर से श्रीगंगानगर भी अछूता नहीं है। अब तक पर्दे के पीछे खेलते आए एक शख्स ने अब खुले में राजनीति करने का मानस बना लिया है। उन्होंने दामन भी विपक्षी दल का थामा है। बताते हैं कि पैसे की इस शख्स के पास कोई कमी नहंीं हैं। वैसे नए नवेले शख्स का पार्टी का दामन थामना पार्टी के स्थानीय पुराने नेताओं को रास कम ही आ रहा है। तभी तो टिकट की उम्मीद में प्रयासरत नेताओं में इस नई इंट्री से हलचल मची है।
औपचारिकता हावी
छात्रसंघ चुनाव में शहर को बदरंग करने वालों के प्रति प्रशासन का रवैया कड़ा न होकर केवल औपचारिकता वाला ही दिखाई दे रहा है। संबंधित कॉलेज वाले तो छात्रों की इस कारस्तानी को हमेशा ही नजरअंदाज करते आए हैं। प्रशासन ने भी कभी कार्रवाई नहीं की। इससे भी बड़ी बात यह है कि जनप्रतिनिधि भी इस बदरंगता के खिलाफ सामने नहीं आ रहे हैं। आए भी तो कैसे? शहर को बदरंग करने वालों में कहीं न कहीं इन जनप्रतिनिधियों के हित भी जुड़े हुए हैं। अब जिनके हित जुड़े हुए हैं, वह कानून की पालना किस मुंह से करवाए। लोकलाज कहिए या कानून का डर, लिहाजा कार्रवाई हो रही है लेकिन रस्म ही निभाई जा रही है।
घुड़की बेअसर
श्रीगंगानगर में शराब न केवल देर रात तक बिकती है बल्कि निर्धारित मूल्य से ज्यादा बिकती है और खुलेआम बिकती है। पिछले सप्ताह जब पुलिस कप्तान ने साफ तौर पर चेताया कि अब निर्धारित समय के बाद शराब दुकानें नहीं खुलेंगी तो लगा उनकी चेतावनी असरदार रहेगी। एक दो दिन असर रहा भी लेकिन इसके बाद शराब विक्रेताओं ने अपने-अपने रास्ते फिर खोज लिए। शराब फिर उसी पुराने ढर्रे पर बिकने की जानकारी मिली है। यह तो पुलिस की जांच का विषय है उसकी चेतावनी को इतनी गंभीरता से क्यों नहीं लिया जा रहा। वैसे सच्चाई पुलिस से छिपी भी नहीं हैं। कभी भी औचक छापेमारी कर वास्तविकता का पता लगाया जा सकता है।
टिकट का जुगाड़
चुनाव में हार-जीत तो जनता के मूड पर निर्भर होती है लेकिन टिकट का बड़ा योगदान होता है। टिकट किसको दी जाए और क्यों दी जाए, राजनीतिक दलों के लिए यह बात सबसे जरूरी होती है। खैर, टिकट की दौड़धूप के लिए सभी अपने-अपने घोड़े दौड़ा रहे हैं। सब खुद को इक्कीस साबित करने की कवायद में जुटे हैं। खास बात यह है कि अपनी बात कहने के लिए प्रेस कान्फ्रेंस तक आयोजित होने लगी हैं। पिछले दिनों तो एक ही पार्टी की दो प्रेस वार्ताएं वो भी एक ही दिन और एक ही समय पर थी। फर्क सिर्फ इतना था कि एक को पार्टी के जिलाध्यक्ष ने संबोधित किया तो दूसरी को उसी पार्टी के अनुसांगिक संगठन के जिलाध्यक्ष ने। पिछले दिनों एक धरने को लेकर भी दोनों के बीच अदावत देखी गई थी।
पार्टी की दूरी
सतारुढ़ दल के पार्टी के जिला संगठन के एक पदाधिकारी इन दिनों अच्छे खासे सक्रिय हैं। इनका एकमात्र ध्येय है किसी तरह से पार्टी का टिकट मिल जाए। इसके लिए न केवल तमाम कार्यक्रमों में शिरकत कर रहे हैं बल्कि जनता के बीच जाकर खुद का सक्रिय साबित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ रहे। पिछले दिनों भाईचारे के नाम पर बुलाया गया इनका सम्मेलन भी खासी चर्चा में रहा। वैसे इस सम्मेलन में उतना फायदा मिला भी नहीं, जितना सोचा गया था। नेताजी के समाज के लोगों ने समानांतर बयान जारी सम्मेलन पर सवाल उठा दिए। वैसे पार्टी का कोई बड़ा पदाधिकारी भी नेताजी के इस समेलन में नहीं आया। मतलब पार्टी ने सम्मेलन से दूरी बनाए रखी।
अध्यक्षी के लिए
चुनाव के समय समाजों की पूछ परख बढ़ जाती है। विशेषकर समाज विशेष के अध्यक्षों को मान-मनोव्वल खूब की जाती है। यही कारण है समाज का अध्यक्ष बनने के लिए खूब मेहनत करनी पड़ती है। समाज बंधुओं का ध्यान रखना पड़ता है। पिछले दिनों एक समाज के चुनाव में प्रतिस्पर्धा इस कदर बढ़ी कि समाज बंधुओं की बल्ले-बल्ले हो गई। इतना ही नहीं समाज बंधुओं के लिए अध्यक्षी के दावेदारों ने खाने के लिए अलग-अलग होटल तक बुक किए भी किए। भोजन के लिए पर्ची का सिस्टम तक अपनाया गया। अब यह बात जरूर चर्चा का विषय है कि यह खर्चा अध्यक्षी के दावेदारों ने किया कि पर्दे के पीछे फाइनेंसर कोई और था।

राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 30 अगस्त 18 के अंक में प्रकाशित

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