Monday, May 30, 2011

मेरा बचपन...६

मेरी बचपन की यादों में दो ऐसे झूठ भी शामिल हैं, जिनमें एक पर मैं आज भी शर्मिन्दा हूं जबकि दूसरे पर हंसी आती है। जिस पर शर्मिन्दा हूं वह कक्षा पांच का है जबकि हंसी वाला नवमीं का है। कक्षा पांच में मुझे एक बार खुद के हस्ताक्षर करने का शौक सवार हो गया। शौक क्या बस आप इसे जुनून की संज्ञा दें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। जहां भी जगह मिले मैं अपना ऑटोग्राफ दे दूं। मसलन, दीवार, किताब, किवाड़, फर्श आदि एक भी जगह नहीं छोड़ी। इसी आदत से मजबूर होकर मैंने अपनी नोटबुक के कोरे पन्नों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कर दी। उपस्थिति भी किसी ऐसी वैसी नोटबुक में नहीं बल्कि हिन्दी की में। हिन्दी का जिक्र इसलिए, क्योंकि वह मेरा पंसदीदा विषय रही और है। एक दिन होमवर्क की जांच करते समय मास्टरजी की नजर आगे के पन्नों पर पड़ गई। बस फिर क्या था उन्होंने कड़क आवाज में मेरा नाम पुकारा। मेरी सिटी-पिटी गुम। मैं चुपचाप खड़ा हो गया। मास्टरजी ने हस्ताक्षरों की कहानी पूछी तो मैंने कहा कि यह सब छोटे भाई ने किया है जबकि मेरा कोई छोटा भाई नहीं है। घर में सबसे छोटा मैं ही हूं। मेरा जवाब सुनकर पास ही बैठी एक छात्रा ने कहा कि मास्टरजी यह झूठ बोल रहा है, इसके छोटा भाई कोई नहीं है। बस फिर क्या था। मास्टरजी एक डंडा लेकर बरस पड़े मुझ पर। और तब तक मारते रहे जब तक डंडा टूट नहीं गया। उस घटना के बाद मेरे समझ में आ गया था कि झूठ बोलने का नतीजा क्या होता है। यह बात मुझे आज भी याद आती है तो मैं शर्मिन्दा हो जाता हूं। दूसरा झूठ कक्षा नौ है। उस वक्त मैं थोड़ा समझदार हो गया था। आठवीं उत्तीर्ण करने के बाद पास के कस्बे में आया था इसलिए कस्बाई संस्कृति में इतना रच-बस गया कि कक्षा से बंक मारने की लत कब लग गई पता ही नहीं चला। जब भी मौका मिलता कक्षा से भाग छूटता। एक दिन जैसे ही बंक मारकर कक्षा से निकला तो सामने से स्कूल के सबसे खतरनाक अध्यापक आ रहे थे। उन अध्यापक से स्कूल का प्रत्येक बच्चा थर-थर कांपता था। मैं भी घबरा गया और सोचने लगा कि अब तो मारा गया। कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। मेरे साथ मेरा एक सहपाठी और था। हालांकि अध्यापक थोड़ी दूरी पर थे इस कारण हम उनकी नजरों में नहीं आए लेकिन रास्ता एक ही था। वो स्कूल की तरफ आ रहे थे और हम जा रहे थे। दूरी कम होती जा रही थी और धड़कन बढ़ रही थी। अचानक एक दरवाजा खुला दिखाई दिया और हम दोनों उसमें घुस गए। वह दरवाजा दरअसल किसी मोहल्ले का था इसलिए हम आगे बढ़ते गए। रास्ते में एक मुस्लिम महिला ने हमको टोक दिया। उसने एक मुस्लिम सज्जन का नाम लेते हुए पूछा कि आप उनके बच्चे हैं क्या? मरते क्या ना करते हमने स्वीकृति में सिर हिलाया और आगे बढ़ गए। अगर उस वक्त मना कर देते तो शायद अध्यापक से भी बुरी गत उस मोहल्ले के लोग बना देते। मोहल्ले में घूमकर जब हम वापस दरवाजे तक आए तब तक अध्यापक स्कूल में प्रवेश कर चुके थे। आज वह घटना याद आती है तो मेरी हंसी रोके हुए भी नहीं रुकती है। यह घटनाक्रम मैं मेरे साथियों को भी अक्सर सुनाता रहता हूं।

1 comment:

  1. मैंने तो आपका ऑटोग्राफ कभी लिया ही नहीं, मुझे क्या पता आपको इतना शौक रहा है हा हा हा ....|

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