Monday, May 30, 2011

मेरा बचपन...४

अभी यह कॉलम लिख ही रहा था कि मेल पर एक शुभचिंतक का मैसेज आया, कहा आप समसामयिक विषय पर अच्छा लिखते हो, उस पर भी लिखा करो। मुझे यह जानकार खुशी हुई कि किसे ने मुझे क्या लिखना है इसके लिए अपना सुझाव दिया। निकट भविष्य में मैं इस सुझाव पर अमल भी करुंगा। फिलहाल परिस्थितियोंवश ही ऐसा लिख रहा हूं। मुझे मालूम है कि अच्छे लेख के कद्रदान भी खूब होते हैं।  कद्रदानों के माध्यम से ही निरंतर कुछ न कुछ लिखने का सम्बल मिलता है। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रशंसकों के सुझाव और शिकायत एक तरह की खाद है, जो एक लेखक को निरंतर चाहिए। क्योंकि इस खाद के कारण ही आगे से आगे कुछ नया लिखने की प्रेरणा मिलती रहती है। मेरा साथ भी कुछ ऐसा ही है। अखबारी जगत में लिखने पर प्रतिक्रिया ब्लॉग की बजाय जल्दी होती है और बड़े स्तर पर होती है। हालांकि अखबार एवं ब्लॉग की प्रतिक्रिया में खासा अंतर  होता है। सीधे एवं सपाट शब्दों में समझें तो दोनों विधाओं में प्रतिक्रिया व्यक्त करने का माध्यम ही अलग होता है। ब्लॉग की विधा में मैं नया हूं और आज दूसरा दिन ही है।
खैर, यह विषय काफी लम्बा है। मैं मूल विषय पर लौटता हूं। मेरे बचपन की यादों की फेहरिस्त वैसे तो बेहद लम्बी है, इसलिए मैंने उसमें कुछ चुनिंदा यादों को शब्दों के माध्यम से सहेजने का एक अदना सा प्रयास किया है। मेरी यह याद भी आज से करीब ३० साल पहले की है जब मैं मात्र पांच साल का था। माताजी के साथ मैं अपने मामाजी की बेटी जो कि जयपुर में रहती हैं, के पास गया था। वे उस समय खातीपुरा में रहती थी। मुझे याद है कि उस वक्त खातीपुरा फाटक से आगे कोई भी मकान या बसावट दिखाई नहीं देती थी। बस इक्का-दुक्का घर ही दिखाई देते थे। मामाजी की बेटी यानि दीदी का घर खातीपुरा फाटक से भी दिखाई दे जाता था उस वक्त। एक दिन दीदी के तीनों बच्चों के साथ हम सब ने जयपुर भ्रमण का कार्यक्रम तय किया। सिटी पैलेस देखने के बाद हम आमेर चले गए। वहां किले को देखते समय मैं परिवार वालों से बिछड़ गया। बिछड़ा भी ऐसा कि मुझे परिवार के सभी लोग नीचे की मंजिल पर जाते हुए दिखाई दे रहे थे लेकिन उनके पास पहुंचने का मुझे कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया। इतने में अलवर से आए एक परिवार के सदस्यों ने मुझे ढांढस बंधाया। उन्होंने जोर से आवाज लगाकर दीदी को ऊपर बुलाया। दीदी गुस्से में तमतमाती हुई आई और एक थप्पड़ मेरे गाल पर जड़ दिया और बोली किधर मुंह फाड़ रहा है। उसके बाद मैं चुपचाप घर वालों के साथ हो लिया। आमेर भ्रमण के बाद जब वापस लौट रहे थे तब अलवर वाले लोग फिर मिल गए और कहा बेटा अब तो घरवाले मिल गए ना। मैं मन ही मन सोच रहा था मिले हुए तो थे बस थोड़े दूर हो गए थे। उसी दूरी की कीमत मैंने चुकाई एक थप्पड़ खाकर। बहरहाल, आज भी जयपुर दीदी के यहां कभी जाना होता है तो उस थप्पड़ की चर्चा जरूर होती है।

1 comment:

  1. घरवाले भी मिल गए और थप्पड़ भी ..... मजेदार वाकया है |

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