Friday, July 6, 2012

जिंदगी के सफर में...


बिलासपुर से आने के बाद...

जिंदगी के सफर में वैसे तो ताउम्र कई लोग मिलते हैं, बिछडुते हैं और यह सिलसिला बदस्तूर चलता रहता है, लेकिन कुछ ऐसे होते हैं, जो याद रह जाते हैं। याद रहने की वजह है कुछ लोगों से आत्मिक लगाव या जुड़ाव। सर्विस के दौरान भी ऐसे कई उदाहरण देखने को मिल जाते हैं, जब साथ-साथ काम करने से आपस में एक स्नेह की भावना जुड़ जाती है। एक रिश्ता बन जाता है। यहां एक ऐसा ही उदाहरण है, जिसे मैं शायद ही भुला पाऊंगा। ......
पिछले साल की ही तो बात है, मेरे पास भोपाल से किसी परिचित ने फोन किया था। और कहा कि भाईसाहब एक रिज्यूम भिजवा रहा हूं। मेरा परिचित है। आपके यहां कोई वैकेन्सी हो तो प्लीज रख लेना। दूसरे दिन मुझे मेल के माध्यम से बायोडाटा मिल गया। युवक बिहार के आरां जिले से था। भोपाल में ही एक न्यूज पेपर में कार्यरत था। बायोडाटा में उसके फोन नम्बर देखकर मैंने तत्काल उसको अपने पास बुलवा लिया। जब इस संबंध में मैंने अपने सीनियर को अवगत कराया तो उन्होंने पूछा  कौन है, कैसा है, काम जानता है या नहीं  आपने बिना जाने ही कैसे बुलवा लिया। मैंने कहा कि परिचित ने बताया है, इस आधार पर बुलवाया है। काम का जानकार तो होगा ही। थोड़ा कम जानता होगा, तो मैं सीखा दूंगा। मेरी बात पर सीनियर आश्वस्त हो गए। खैर वह युवक मेरे कहे अनुसार निर्धारित दिन मेरे पास पहुंच गया और बोला सर मैं रणधीर। भोपाल से आया हूं। एकदम दुबला-पतला, गौरा सा युवक। एक बार देखा तो सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि यह युवक पत्रकारिता में है भी या नहीं। साक्षात्कार की औपचारिकता कर मैंने उसे ज्वाइन करने के लिए कह दिया। काम की शुरुआत में वह कुछ धीमा जरूर था लेकिन उसमें छिपी प्रतिभा रफ्ता-रफ्ता निखरने लगी। एक साल बाद तो हालत यह हो गई कि काम में रणधीर सबका चहेता बन गया। मुझे इस बात की खुशी थी कि मेरा चयन गलत साबित नहीं हुआ। करीब साल भर मेरे साथ काम करने से रणधीर मेरे से इतना घुलमुल गया कि मुझे बॉस कम अपना अभिभावक ज्यादा समझने लगा। अपने दुख-दर्द मुझसे साझा करने लगा। रणधीर भावुक प्रवृत्ति का है। एकदम उदास हो जाना। काम में गलती होने पर एकदम से उदास एवं निराश होकर बैठ जाना। मैं हमेशा उसको प्रोत्साहित करता, कहता यह सब पार्ट ऑफ जॉब है। काम करोगे तो गलती भी होगी। गलती काम करने वाले से ही होती है। शायद मेरी बात के मर्म को रणधीर ने अच्छी तरह से जान लिया था। तभी तो वह मेरा विश्वासपात्र बन गया। एकदम सपर्पित होकर काम करना, काम करते-करते उसमें ही डूब जाना, उसके जीवन का हिस्सा बन गया। अपनी इस खूबी का शायद खुद रणधीर को भी पता नहीं चला।
वक्त अपनी रफ्तार से दौड़ा चला जा रहा था। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। एक दिन रणधीर बदहवाश
सा मेरे कक्ष में आया और बोला सर, पिताजी को कैंसर हो गया है, मुझे गांव जाना पड़ेगा। मैंने भी संकट की घड़ी में अभिभावक की तरह रणधीर को ढांढस बंधाया और तत्काल घर जाने की अनुमति दे दी। होनी को शायद कुछ और ही मंजूर था। घर जाने के करीब 15 दिन बाद रणधीर ने मुझे फोन पर दुखद समाचार सुनाया। वह बोला सर, पिताजी नहीं रहे। सुनकर मैं अवाक रह गया। फोन पर उसको क्या कहता। ज्यादा कुछ न कहकर बस इतना ही कह पाया कि सारे जरूरी काम निपटा लो।
करीब एक माह बाद रणधीर गांव से लौटा। चेहरे पर परेशानी देखकर मैंने हौसला बढ़ाया और कहा कि यह सब एक दिन होना ही था। यह जिंदगी की कड़वी हकीकत है। खैर, रणधीर ने पिताजी की मौत के गम को कभी अपने काम पर हावी नहीं होने दिया और उसी उत्साह एवं अंदाज में उसने काम शुरू कर दिया। कम उम्र में पिता का साया सिर से उठ जाने के बाद होने वाली पीड़ा को बखूबी समझा जा सकता है लेकिन इस मामले में रणधीर ने बड़ी हिम्मत दिखाई दिया। उसने अपनी पीड़ा को जैसे अंदर ही अंदर समेट लिया हो। कार्यालय में मैंने उसको कभी उदास नहीं देखा। उसी जिंदादिली के साथ वह काम करने लगा।
अचानक एक और खबर से रणधीर टूट गया। मेरा तबादला हो गया, यह सुनकर वह उदास हो गया। बोला सर, हम अब काम नहीं करेंगे। आप जा रहे हैं तो हम भी बिहार चले जाएंगे। मैंने उसको बताया कि नौकरी में यह सब चलता रहता है। काम तो करना ही है कहीं भी कर लो। दिलासा देने के बाद रणधीर कुछ शांत हुआ। पांच जुलाई शाम को कम्प्यूटर पर बैठा था। नेट चालू किया तो देखा कि रणधीर ऑनलाइन है। दोनों के बीच नेट पर चेटिंग का सिलसिला एक बार शुरू क्या हुआ फिर खत्म होने का नाम ही नहीं लिया। दोनों के बीच हुई बातचीत को मैंने हुबहू मेल आईडी में सेव कर लिया। हमारे बीच का वार्तालाप तो देखिए....
मैं- क्या चल रहा है?
रणधीर-सर अब तो काम करने की इच्छा ही नहीं हो रही है। बाकी बस बढ़िया हैं सर। बिलासपुर कब आ रहे हैं।
मैं-क्यों ऐसा क्या हो गया है।
रणधीर-कुछ नहीं सर, आप चले गए तो अब क्या है।
मैं-काम करने की इच्छा क्यों नहीं हो रही? मैं क्या करता था। जो आप करते थे, वही अब कर रहे हो।
रणधीर-नहीं सर।
मैं-क्यों अब काम नहीं हो रहा क्या?
रणधीर- नहीं सर, कर रहा हूं, बट सर पहले जैसी बात नहीं है। अब तो सर ऑफिस आने की इच्छा भी नहीं होती है।
मैं-काम तो वही है, मैं ही बदला हूं।
रणधीर- जब आप बदल गए तो काम करने की इच्छा भी बदल ही जाएगी सर।
मैं-सोचो, कोई जन्मभर का साथ थोड़े ही निभाता है। अपना साथ इतना ही था, अब काम में मन लगाओ।
रणधीर- बट सर, कुछ लोग होते हैं, जिनकी याद कभी नहीं जाती।
मैं-याद करने से कौन रोक रहा है।
रणधीर- नहीं सर, बट सर अच्छा नहीं लग रहा है। ऐसा लगता है कि जॉब कर रहे हैं। आप थे तो घर जैसा लगता था सर।
मैं- कुछ दिन की बात है, फिर सब ठीक हो जाएगा।
रणधीर- नहीं होता है, सर। जो बात आपके साथ थी, वो अब कहां मिलने वाली है सर।
मैं-वक्त सब ठीक कर देगा। उम्मीद रखो। जो हुआ अच्छा हुआ और जो होगा वह भी अच्छा ही होगा।
रणधीर- वो तो आपका आशीर्वाद जब तक रहेगा तब तक अच्छा ही रहेगा सर।
मैं-मैं कहीं भी रहूं। मेरा आशीर्वाद रहेगा आपके साथ। काम तो करना ही पड़ेगा, जिंदगी पड़ी है सामने।
रणधीर- जी सर, बट सर, आपकी याद बहुत आती है सर।
मैं-जी लगाकर काम करो। कोई दिक्कत हो तो मुझे याद कर लेना। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।
रणधीर- जी सर।
मेरे पास काम आ गया और चेटिंग का सिलसिला थम गया। बिलासपुर से भिलाई आए हुए आज तीसरा दिन ही था। मैं सोच रहा था कि पिताजी के देहांत से जरा सा भी विचलित न दिखाई देने वाला रणधीर मेरे तबादले से यकायक कितना भावुक हो गया। शायद मेरी उपस्थिति उसको संबल प्रदान करती थी। मेरे आने के बाद वह खुद को अकेला समझने लगा। खैर, रणधीर को मैंने कर्मचारी ना समझ कर हमेशा छोटे भाई की तरह समझा। 23 की उम्र में ही घर से बाहर आ गया वह। बिलासपुर में कौन था उसका। बस स्नेह व अपनेपन से उससे बतिया लेता तो उसको लगता कि कोई अपना तो है। रणधीर को मैं भुला नहीं पाऊंगा कभी। सच में। जवानी में ही पहाड़ सी जिम्मेदारियों का बोझ ढोने वाले रणधीर के लिए मेरे पास असीम शुभकामनाएं हैं। वह आगे बढ़े और प्रगति करे।

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