Tuesday, December 31, 2013

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-3

 
वह ऑटो वाला वहीं खड़ा रहा। जैसे ही हम लोग होटल के कमरे की तरफ बढ़े तो रिशेप्सन काउंटर पर बैठे युवक एवं ऑटो वाले के बीच बातचीत का दौर शुरू हो गया। यकीनन ऑटो वाला अपना कमीशन मांग रहा होगा। खैर, स्टेशन से होटल तक आने की कहानी साधारण सी है लेकिन यह सब बताने का मकसद इतना है कि पुरी में अगर होटल लेना है तो फिर मंदिर के आसपास ही ठीक रहता है। समुन्द्र किनारे जितने भी होटल हैं लगभग महंगे हैं। दूसरी बात ऑटो वालों से मोलभाव किया जाए और एक के भरोसे ना होकर दो तीन से पूछताछ की जाए तो संभव है जेब कम ढीली होगी। करीब 19 घंटे का ट्रेन का सफर और फिर एक-डेढ़ घंटे ऑटो में घूमने के बाद शरीर थकान से दोहरा हो रहा रहा था। सफर में वैसे भी नींद कम आती है, लिहाजा सोने की इच्छा हो रही थी। नहाने एवं शेव करने के बाद फटाफट खाना खाया और बेड पर पसर गया। बच्चे समुन्द्र जाने के लिए बेहद लालायित थे, इस कारण शोरगुल ज्यादा था। ऐसे में गहरी नींद तो नहीं आई लेकिन एक हल्की सी झपकी जरूर लग गई जो कि तरोताजा करने के लिए पर्याप्त थी। सामान्य दिनों में भी इसी प्रकार की झपकी ले ही लेता हूं। पांच-दस मिनट के लिए। व्यस्तता के बीच इतना ही तो वक्त मिल पाता है।
झपकी जैसे ही टूटी बच्चे एवं धर्मपत्नी भी तैयार हो चुके थे। बीच जाने के लिए बच्चे बेहद उत्साहित थे। खुशी से चहक रहे थे। होटल से बीच की दूरी से मुश्किल से चंद कदमों पर ही थी। होटल से बाहर निकलने की देर थी, बच्चे हाथ छुड़ा कर दौड़ पड़े। बंगाल की खाड़ी के मुहाने पर पुरी में हजारों की संख्या में होटल बने हुए हैं। कुछ पर्यटक तो होटल के कमरों से ही बंगाल की खाड़ी का नजारा देखते हैं तो कुछ छत पर चढ़कर। वैसे समुन्द्र के बीच पर जाकर लहरों के बीच नहाने का आनंद तो सभी लेते ही हैं। बीच तक पहुंचने से पहले रेगिस्तान जैसी बालुई मिट्टी का टीला बना था। हालांकि इस मिट्टी के कण थोड़े मोटे होते हैं। बजरी की तरह। सूखी मिट्टी में पैर धंस रहे थे। ऐसे में चलने में अतिरक्त ऊर्जा खर्च करनी पड़ रही थी। टीले पर जैसे ही चढ़े सामने का विहंगम नजारा देख आंखें फटी की फटी रह गई। टीले ऊंचाई पर एक अलग ही दुनिया बसी थी और ढलान पर तो जैसे मेला लगा था। बच्चों से लेकर बड़ों तक सब एक ही रंग में रंगे थे। या यूं कहूं कि बड़े भी बच्चे बनकर लहरों के बीच अठखेलियां करने में मस्त थे। शर्म शंका से बिलकुल दूर.. जिसको जैसे अच्छा लग रहा था वह अपने अंदाज में वैसे ही नहा रहा था। बच्चे तो कपड़े उतारकर पानी में छलांग लगा चुके थे। इधर, मैं और धर्मपत्नी किनारे पर खड़े बच्चों की मस्ती को देखकर ही खुश हो रहे थे। वैसे जोहड़, नदी में बचपन में खूब नहाया हूं लेकिन बंगाल की खाड़ी को देखकर मन में हल्का सा डर लग रहा था। करीब दस-दस फीट तक ऊंची उठती लहरें मन में रोमांच भर रही थी लेकिन मैं पानी में घुसने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। ........ जारी है।

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