Wednesday, December 28, 2016

बस मलाल और सवाल

टिप्पणी

सचमुच यह सरकार के पगफेरे का ही कमाल था। तभी तो थोड़े से समय में ही फटाफट धमाल हो गया, लेकिन अब कर्मचारी-अधिकारी सब फिर से निष्क्रिय हैं। नेता भी शांत हैं और जनता ने भी चुप्पी साध ली है। ना कोई उबाल है और ना ही किसी तरह का बवाल। हां, मन में मलाल जरूर है और साथ में कई सवाल भी। क्योंकि शहर के हाल फिर बदहाल हो चले हैं। चमत्कारिक रूप से चुटकियों में चमका शहर फिर से बदसूरत हो रहा है। सरकारी डंडे व कड़ी कार्रवाई के डर से हटे कब्जे संरक्षण व शह पा फिर से पसरने लगे हैं। एक ही स्थान पर दिन में सात-सात बार सफाई करने वाले अब नहीं दिखते। सरकार के स्वागत में आनन-फानन में चौड़े हुए रास्ते भी फिर से संकरे होने लगे हैं। पखवाड़े भर पूर्व दिखाई गई तत्परता एवं तल्लीनता अब उपेक्षा एवं उदासीनता में बदल गई है। फटाफट चले फव्वारे सूख रहे हैं। गणतंत्र दिवस पर गायब हुई गंदगी फिर दिखने लगी है। रातों-रात रोशन हुई रोडलाइट भी रफ्ता-रफ्ता बुझती जा रही है। सब कुछ उसी तेजी से बिगड़ रहा है जिस गति से सुधरा था।
खैर, प्रशासन की आंखों का सुरमा इतनी जल्दी निकलने की कल्पना किसी ने नहीं की होगी। जैसे भी हुआ, जो भी काम हुआ स्थानीय प्रशासन की निगरानी में ही तो हुआ। चंद दिनों में शहर को चकाचक करने वाले बाहर से नहीं आए थे। संसाधन सहित सब कुछ स्थानीय ही था, लेकिन काम करने के तौर-तरीकों ने बीमार शहर की तबीयत ठीक करने की उम्मीदों को पंख लगा दिए थे। सुनहरे सपने जगा दिए थे। लगने लगा कि जड़ व जंग लगी व्यवस्था में सरकार के आगमन से सुधार हो गया है और यह आगे भी जारी रहेगा। बदकिस्मती समझिए या अधिकारियों की अकर्मण्यता, शहर के हालात कमोबेश फिर पुराने ढर्रे पर हैं। तो क्या यह मान लिया जाए कि बीमार शहर की नब्ज तभी टटोली जाएगी, जब मुख्यमंत्री या किसी बड़े नेता का पगफेरा होगा? क्या स्थानीय जनप्रतिनिधियों की कोई अहमियत ही नहीं? या अधिकारी उनको गांठते तक नहीं?
गणतंत्र दिवस तक इन अधिकारियों को वह सब दिख रहा था जो आमजन को खटकता है, लेकिन उसके बाद सभी ने आंखों पर पट्टी बांध ली। सब कुछ जानने, पहचानने एवं समझने के बावजूद प्रशासन 'धृतराष्ट्र की भूमिका निभाने पर आमादा क्यों है? यह समझ से परे है। इस तरह के हालात शक पैदा करते हैं। सवाल खड़ा करते हैं। तय मानिए कहीं न कहीं गड़बड़ जरूर है। वरना इस तरह गफलत नहीं होती। काम करने वालों के यह दो चेहरे चौंकाते हैं। आखिरकार किस मजबूरी में यह खामोशी पसर रही है। लोकसेवक होने के बावजूद क्यों लोकलाज को गौण किया जा रहा है।
बहरहाल, सरकार के आगमन से पूर्व एवं बाद के परिदृश्यों से यह तो जाहिर है कि प्रशासन चाहे तो कुछ भी मुश्किल नहीं है। समस्याओं का हल बड़ा मसला नहीं है। जब व्यवस्थाएं तब दुरुस्त हो सकती है तो अब क्यों नहीं? इस सवाल का जवाब यकीनन प्रशासन के पास ही है। जरूरी है वह जनहित को सर्वोपरि रखे। अधिकारी वर्ग, लोकसेवक होने की अवधारणा को चरितार्थ करते हुए दृढ़ इच्छा शक्ति दिखाएं। ज्यादा नहीं तो कम से कम जो व्यवस्थाएं तब बनाई गई थी, उनको यथावत ही रखवा दें। शहर वैसे भी सहनशील है, लेकिन उसकी बार-बार परीक्षा लेना भी ठीक नहीं है।

राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 09 फरवरी 16 के अंक में प्रकाशित...

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