Wednesday, December 28, 2016

जोश व जज्बा जगाती है दंगल


बस यूं ही

फिल्म रिलीज होने के पांच दिन बाद आज सपरिवार दंगल देख आया। इसलिए अब फिल्म को लेकर टीका टिप्पणी करना बेमानी सा लगता है। क्योंकि पांच दिन बाद तो दर्शकों/पाठकांे के पास सारा निचोड़ आ चुका होता है। हां, कुछ अच्छा लगा वो जरूर सबसे साझा करूंगा। फिल्म का कथानक मेरे को पहले से ही पता था लेकिन इसको इस कदर खूबसूरती के साथ फिल्माया गया है यह देखने के बाद ही पता चला। हालांकि जीवन पर आधारित फिल्मों में मनोरंजन के लिए कल्पना का तड़का लगाया जाता रहा है। दंगल में भी कल्पना का तड़का है। मसलन, फाइनल मुकाबले में गीता के पिता महावीर फोगाट को एक कमरे में बंद दिखाना, फाइनल मुकाबले की खिलाड़ी का नाम बदलना, एकतरफा रहे मुकाबले को कड़ा दिखाना आदि आदि। दरअसल तड़का फिल्म की जरूरत भी होती है, अन्यथा दर्शक फिल्म पर उबाऊ होने का ठपा चस्पा करते देर नहीं लगाते। सोचिए वह फाइनल मुकाबला एकतरफा ही दिखा दिया जाता तो वह उतना आनंद व रोमांच नहीं दे पाता जितना कल्पना का तड़का लगाने के बाद देता है। 
खैर, बात मूल कथानक की करें तो वह हकीकत के नजदीक ही नजर आता है।
महावीरसिंह फोगाट उस राज्य का प्रतिनिधित्व करते हैं, जहां लिंगभेद की काली छाया, पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता तथा परम्पराएं हावी हैं। एेसी प्रतिकूल परिस्थितियों में काम करना आसान नहीं होता। फोगाट अपनी लड़कियों को न केवल लड़कों जैसा लड़ाका बनाते हैं, बिलकुल उनके साथ दंगल में उतारने में भी नहीं हिचकते। वैसे हकीकत में यह काम महावीरसिंह करीब ढाई दशक पूर्व कर चुके हैं लेकिन फिल्म के माध्यम उनका काम पुराना नहीं लगता। आज भी परम्परावादी परिवारों में इस तरह की साहसिक फैसले नहीं लिए जाते। अपनी संतान को लायक बनाने का सपना तो कमोबेश हर मां बाप ही देखते हैं लेकिन जिस लगन, मेहनत, जीवटता व जुनून से महावीरसिंह मुकाम तक पहुंचते हैं वह वाकई काबिलेगौर है। 
आज दंगल बॉक्स आफिस पर धूम मचा रही है तो मान लेना चाहिए कि सकारात्मक कामों को भी वाहवाही मिलती है बशर्ते उनको दिखाने/ बताने का तरीका कुछ हटकर हो। दंगल मेरी नजर में अब तक देखी गई ऐसी इकलौती फिल्म है जो एक साथ कई विषयों की तरफ ध्यान बंटाती है। दंगल समाज को सकारात्मक संदेश देती है। हौसला देती है। मनोबल बढ़ाती है। उम्मीद जगाती है। यह परम्परावादी एवं दकियानूसी सोच पर करारी चोट भी करती है। यह लड़का-लड़की के भेद को मिटाती है। यह सामाजिक वर्जनाओं को अनसुना करती है। फोगाट की कहानी बताती है कि आदमी के हौसले के आगे सब कुछ बौना है। आदमी सोच ले तो क्या कुछ नहीं कर सकता। 
वैसे भी सच्ची कहानियां पसंद तो की ही जाती हैं वह दर्शक/श्रोता/पाठकों को अंदर तक प्रभावित भी करती है। यही कारण है कि गीता जब देश के लिए स्वर्ण पदक जीतती है तो आंखें सबकी नम होती है। मेरी आंखों से तो आंसू बह निकले। यकीन मानिए सिनेमा हॉल से बाहर निकलते तक मेरी आंखों से आंसू बह रहे थे। भावनाओं से भरे यह पल ही तो आदमी के अंदर एक नई ऊर्जा पैदा करते हैं। जोश जगाते हैं। आगे बढऩे का जज्बा पैदा करते हैं। 
वैसे राजस्थान व हरियाणा के सीमावर्ती जिलों का आपस में रोटी बेटी का रिश्ता है। हालांकि फिल्म में ऐसा कुछ नहीं बताया गया है, लेकिन मेरी जानकारी में है। गीता-बबीता का ननिहाल मेरे गृह जिले झुंझुनूं के बुहाना उपखंड के झारोड़ा गांव में हैं। निंसदेह बेटियों के आगे बढ़ाने में जितना योगदान महावीरसिंह का रहा है कमोबेश उतना ही उनकी पत्नी दयाकौर भी रहा है। बेटियों की सफलता में दयाकौर का त्याग भी छिपा है। देश व समाज को फिलहाल महावीरसिंह एवं दयाकौर जैसे किरदारों की ही जरूरत है। विशेषकर हरियाणा व मेरे गृह जिले में तो कहीं ज्यादा आवश्यकता है।

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