Wednesday, December 28, 2016

धारणा

मेरी 19वीं कहानी

सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी की मीडिया के प्रति धारणा देखकर मैं स्तब्ध था। किसी खबर के सिलसिले में उन्होंने मेरे को फोन लगाया था। कहने लगे सेना का कोई अपना घर होता है क्या? वह किसके लिए काम करती है? मुझे सवाल में दम लगा। मैं सुनता रहा वो कहे जा रहे थे। सेना देश के लिए काम करती है, हम जो भी काम करवाते हैं उसमें कहीं न कहीं सुरक्षा का भाव जुड़ा होता है। इसलिए यह सुरक्षा से जुड़ा मसला है, इसमें आप हस्तक्षेप ना करें। मैं चुपचाप सुने जा रहा था। वे आगे बोले, फिलहाल मैं बाहर हूं, लौटूंगा तो आपसे जरूर मिलूंगा। आप कभी आइए मेरे बंगले पर बैठते हैं। चर्चा करते हैं। और हां आपके लिए खाने व पीने का पूरा पूरा प्रबंध रहेगा। खाने-पीने का नाम आते ही मुझे लगा जैसे किसी ने मेरे कानों में गर्म शीशा डाल दिया है। मैंने उनकी बात बीच में काटते हुए कहा कि मुलाकात जरूर कर लेंगे पर खाने-पीने की चीजों मैं दूर ही रहता हूं। मुझे इनका शौक नहीं है। बात सुनते ही कहने लगा कि अरे, यह भी कोई बात हुई है। बरखा दत को नहीं जानते क्या? मैं चुपचाप सुने जा रहा था, ध्यान अब अफसर की बातों की बजाय सोचने पर ज्यादा था। सेना भी ऐसा ही सोचती है मीडिया के बारे में। आखिर ऐसी धारणा यूं ही तो नहीं बनती। जरूर कुछ न कुछ अनुभव रहा होगा। मैं सेना के अधिकारी की खान-पान की पेशकश की बात से हैरान जरूर था। बार-बार एक ही सवाल दिमाग को मथ रहा था। मीडिया के प्रति यह धारणा बदलेगी या और अधिक पुष्ट होगी?

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