उनको शहर की अंदरूनी सड़कों पर
यातायात नजर नहीं आता है। उनकी मुस्तैदी सिर्फ हाइवे पर ही दिखती है। और इस
जरूरत से ज्यादा मुस्तैदी के कारण भी सबको पता हैं।
बहरहाल, हादसों
से तनिक भी विचलित नहीं होने वालों पर पीडि़तों का रुदन असर डाल पाएगा।
उनके जमीर को झाकझाोर पाएगा, इसमें संशय है। लम्बे समय से जड़ें जमाए बैठे
पुलिसकर्मी एवं अधिकारी क्या जनहित में फैसले लेने ही हिम्मत जुटा पाएंगे।
बेलगाम यातायात पर नकेल ना कसना यातायात पुलिस की नाकामी को ही उजागर करता
है। और यह नाकामी तभी दूर को सकती है जब कारगर एवं प्रभावी कार्रवाई हो।
हालात बद से बदतर होने को हैं और यातायात पुलिस को अब भी आंकड़ों को
दुरुस्त करने तथा राजस्व बढ़ाने की कार्रवाई से ही फुरसत नहीं है। हर तरफ
सुविधा शुल्क का ही शोर है। आखिर कब तक लोग यूं ही अकाल मौत मरते रहेंगे।
बहुत हो चुका। कुछ तो तरस खाइए। अब तो कुछ कीजिए। ज्यादा कुछ नहीं तो खुद
को यातायात पुलिसकर्मी की बजाय इंसान समझाने की हिम्मत जुटा लो। शायद उससे
कुछ सद्बुद्धि आ जाए और शहर का भला हो जाए। यूं ही लोग अकाल मौत के शिकार
तो नहीं होंगे।
साभार : पत्रिका भिलाई के 14 दिसम्बर 12 के अंक में प्रकाशित।
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