Sunday, October 14, 2012

उद्‌देश्य से ना भटके अभियान

टिप्पणी

 
सुप्रीम कोर्ट की ओर से वाहनों के शीशों पर लगाई जाने वाली काली फिल्म हटाने के लिए अगस्त माह में जारी किए गए आदेशों की याद जिला पुलिस को अब आ रही है। आदेशों की अनुपालना में पुलिस ने शनिवार को वाहनों के शीशों पर काली फिल्म लगाने वाले विक्रेताओं के साथ बैठक की और प्रतिबंधित फिल्म विक्रय न करन

े की हिदायत दी। बढ़ती आपराधिक गतिविधियों के मद्देनजर वाहनों के शीशों पर काली फिल्म हटाने की मांग लम्बे समय से उठ रही थी, लेकिन यातायात पुलिस ने इस विषय पर कभी गंभीरता से विचार नहीं किया। कभी ज्यादा दबाव आया तो औपचारिकता के नाम पर एक-दो दिन कार्रवाई जरूर की गई, वरना वाहन यूं ही बेखौफ दौड़ते रहे। सबसे बड़ी बात तो यह है कि पुलिस, यातायात नियमों का उल्लंघन करने वालों में किसी प्रकार का डर पैदा नहीं कर पाई। पुलिस अधिकारी खुद स्वीकार कर रहे हैं कि जुर्माना लगाने के बावजूद लोग वाहनों के शीशों पर काली फिल्म लगवा रहे हैं। मतलब साफ है कि वाहन चालक जुर्माना देकर भी कानून तोड़ने से बाज नहीं आ रहे हैं। यातायात नियमों की पालना करवाने में अगर शुरू से ही गंभीरता बरती जाती तथा कड़ी कार्रवाई होती तो इस प्रकार फिल्म विक्रेताओं के साथ न तो बैठक करने की जरूरत पड़ती और ना ही कानून हाथ में लेने वालों का हौसला बढ़ता। शीशों पर काली फिल्म हटाने के लिए पुलिस पहले भी कई बार अभियान चला चुकी है, लेकिन उन अभियानों का हश्र सबके सामने है। वैसे भी भिलाई में यातायात व्यवस्था को दुस्त-दुरुस्त करने के लिए कई तरह के अभियान चलाए गए हैं, लेकिन शायद ही कोई अभियान होगा, जिसका व्यापक असर दिखाई दिया हो। यातायात पुलिस भले ही अपनी उपलब्धियां गिनाने के लिए आंकड़ें प्रस्तुत कर दे, लेकिन हकीकत इससे अलग है। बात भिलाई में दुपहिया वाहन चालकों द्वारा हेलमेट न लगाने लगाने की हो या फिर नाबालिग वाहन चालकों की। कहने को पुलिस इन सबके खिलाफ भी अभियान चला चुकी है, लेकिन सड़क पर इक्का-दुक्का वाहन चालकों के अलावा किसी के सिर पर हेलमेट दिखाई नहीं देता है। सैकड़ों की संख्या में स्कूली बच्चे दोपहिया वाहनों पर फर्राटे भरते नजर आते हैं। इतना ही नहीं वाहनों के कागजात जांचने की याद भी यातायात पुलिस को अवसर विशेष या त्योहारों के नजदीक ही ज्यादा आती है। इधर, दुर्ग-भिलाई के बीच चलने वाले ऑटो चालक जो चाहे वो कर रहे हैं। वे क्षमता से अधिक सवारियां बैठा रहे हैं। मनमर्जी से रूट तय कर रहे हैं। वे यहां-वहां रुककर यातायात नियमों की धज्जियां उड़ा रहे हैं। आधे घंटे में तय होने वाले सफर में एक-एक, डेढ़-डेढ़ घंटे का समय लगा रहे हैं, लेकिन यह सब पुलिस को दिखाई नहीं दे रहा है। इस मामले में पुलिस की भूमिका से तो ऐसा लगता है कि जैसे कि ऑटो का संचालन वह स्वयं करवा रही हो।
बहरहाल, यातायात व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए ईजाद किया जाने वाला कोई भी अभियान बुरा नहीं होता है। उसका सफल या असफल होना पुलिस की कार्यशैली पर निर्भर करता है। वाहनों के शीशों पर काली फिल्में उतारने का अभियान भी ईमानदारी से चले, उसकी कड़ाई से पालना हो और कार्रवाई में किसी तरह का भेदभाव न हो। तभी इसके तत्कालिक एवं दूरगामी फायदे होंगे। अभियानों की सार्थकता भी तभी है, वरना अतीत इस बात का गवाह है कि बिना कार्य योजना एवं गंभीरता के चलाए जाने वाले अभियानों से सिर्फ कागजी आकंड़े ही दुरुस्त होते हैं, व्यवस्था में सुधार नहीं होता।
 
साभार - भिलाई पत्रिका के 14 अक्टूबर 12  के अंक में प्रकाशित।
 
 

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