Monday, October 28, 2013

वो 45 घंटे


बस यूं ही

 
बेहद ही थकाऊ व उबाऊ और अब तक की सबसे लम्बी यात्रा के बाद आखिरकार रविवार अलसुबह करीब पांच बजे मैं भिलाई पहुंचा। गांव (केहरपुरा कलां, राजस्थान) से भिलाई (छत्तीसगढ़) तक पहुंचने में वैसे तो 28 से 30 घंटे तक का समय लगता है लेकिन इस बार सारे रिकार्ड ध्वस्त हो गए। आठ अक्टूबर को भिलाई वापसी का कार्यक्रम (ट्रेन छूट जाने के कारण ) ऐसा गड़बड़ाया कि पटरी पर बड़ी मुश्किल से आया। किसी न किसी तरीके से और जितनी जल्दी हो सके भिलाई पहुंचना जरूरी था। तत्काल दिल्ली से भिलाई तक के बीच चलने वाली तमाम ट्रेन की जानकारी जुटाई गई मगर सभी में वेटिंग दिखाई दे रहा था। जयपुर से भिलाई के बीच चलने वाले रेलों की हालात भी कमोबेश ऐसी ही थी। वैकल्पिक हल के रूप में तय किया गया कि अगर कोई सीधी ट्रेन नहीं है तो क्यों न टुकड़ों में जाया जाए। बस यहीं से निर्धारित समय से ज्यादा समय खर्च होने की बुनियाद रख दी गई थी। जयपुर से नागपुर के बीच चलने वाली एक ट्रेन में उम्मीद की कुछ किरण दिखाई दी। लिहाजा, इसी ट्रेन की टिकट 8 अक्टूबर को ही बुक करा दी गई। आरएसी में 42 नम्बर मिला था। संतोष इस बात का था कि चलो बैठने का स्थान तो पक्का है। मन में विश्वास भी था कि आरएसी टिकट कन्फर्म हो जाएगी। कन्फर्म को लेकर उत्सुकता इतनी ज्यादा थी कि करीब चार दर्जन मैसेज 139 पर कर-करके अपडेट जानता रहा। 11 अक्टूबर को सुबह आठ बजे घर से रवाना होते वक्त भी मैसेज किया लेकिन उसमें 18 नम्बर पर आरएसी दिखा रहा था। जयपुर के लिए सीधी बस पकडऩे के लिए झुंझुनू बस डिपो जाने की बजाय बगड़ तिराहे पर ही उतर गया। पांच मिनट बाद ही राजस्थान रोडवेज की बस आई लेकिन भीड़ इतनी कि तिल रखने की भी जगह नहीं थी। बस की हालत देखकर मैं पीछे हट गया। गनीमत रही कि पीछे-पीछे एक प्राइवेट बस भी थी। भीड़ तो उसमें भी थी लेकिन खड़े होने लायक जगह थी। मैं उसमें सवार हो गया। झुंझुनू आने के बाद सभी यात्रियों को एक दूसरी बस में बैठने के लिए कहा गया। बस की सभी सीटें भरी हुई थीं, इतना जरूर था कि बस स्लीपर थी इस कारण इन पर भी यात्रियों की बैठाया गया था। सिंगल स्लीपर में दो तो डबल में चार यात्री बैठे थे। हिम्मत करके मैं भी डबल वाले स्लीपर में चढ़ गया, वह भी सबसे आखिर में। सीकर आते-आते बस लगभग खाली हो चुकी थी। ऊपर बैठे कई यात्री अब नीचे की सीटों पर आ गए थे। सीकर से निकलते ही अचानक तेज बारिश का दौर शुरू हो गया। हर तरफ पानी ही पानी। बस के अंदर भी काफी पानी हो गया था। कई जगह से पानी टपकने लगा था। रही सही कसर एक शीशे ने पूरी कर दी। शीशे को पेचकस से बंद करने के प्रयास में परिचालक से पूरा शीशा ही टूट गया। अब तो बारिश की बौछारें तेज हवा के साथ बस के अंदर तक आने लगी थी। पर्दे को शीशे की जगह लगाने का प्रयास किया लेकिन वह भी गीला होकर उडऩे लगा। तेज हवा और फुहारों से शरीर में सिहरन होने लगी थी। खुली खिड़की की जद में मैं ही जो आ रहा था। आखिकार दोपहर के करीब दो बजे बस जयपुर पहुंची। यहां बारिश कुछ हल्की थी। बूंदाबांदी के बीच तत्काल रिक्शे से जयपुर रेलवे स्टेशन पहुंचा। तब तक बारिश कुछ तेज हो गई थी। भीगते हुए ही स्टेशन परिसर में प्रवेश किया। ढाई बज चुके थे। टिकट कन्फर्म को लेकर अभी भी ऊहोपाह की स्थिति थी। दो तीन बार दो मैसेज का जवाब नहीं आया। एक दो बार फेलियर का मैसेज भी आया। आखिरकार साढ़े तीन बजे चार्ट बना और टिकट कन्फर्म का मैसेज आया तो यकीन मानिए एक तरह का बोझ सा हट गया था। ट्रेन तो दो घंटे पहले ही प्लेटफार्म पर पहुंच गई थी और मैं भी। लेकिन चार बजे के करीब जब आरक्षण चार्ट ट्रेन पर लगाया गया तो शायद ही कोई यात्री होगा जिसका टिकट कन्फर्म ना हो। इसकी प्रमुख वजह यह थी कि यह ट्रेन अभी नई नई ही चली है। ऐसा लगा कि यात्रियों को इसके बारे में जानकारी कम है। आखिरकार निर्धारित समय शाम 4.30 बजे यह ट्रेन जयपुर से रवाना हुई। इसका रुट कुछ अलग था। यह वाया सवाइमाधोपुर होकर कोटा जाने की बजाय अजमेर, भीलवाड़ा, चित्तोड़ होते हुए कोटा आई। दिन भर मध्यप्रदेश में दौडऩे के बाद दूसरे दिन शाम सात बजे यह ट्रेन नागपुर पहुंची। नागपुर से भिलाई का आरक्षण पहले ही करवा लिया था। भिलाई के लिए ट्रेन रात 11.35 पर थी। ऐसे में मेरे पास चार घंटे से ज्यादा समय था। पूछताछ की शायद कोई बस मिल जाए तो और भी जल्दी भिलाई पहुंच जाऊं। जल्दी पहुंचने की उत्सुकता इतनी थी कि ट्रेन का तत्काल में लिया टिकट भी रद्द करवाना तय कर लिया था। ऑटो लेकर नागपुर के बस स्टैण्ड तक हो आया लेकिन वहां उस वक्त ऐसी कोई बस ना थी जो ट्रेन से पहले भिलाई छोड़ दे। आखिकार वापस स्टेशन आ गया। यहां जूते निकाल कर आराम से बैठ गया। थोड़ी ही देर में पास में एक सज्जन आकर बैठ गए। अपने मोबाइल में कुछ टाइप करने में व्यस्त थे। अचानक मेरे से पूछ बैठे भाईसाहब घड़ी में एएम और पीएम का क्या मतलब होता है। मैं उनके सवाल पर थोड़ा सा हंसा और फिर उनको बताया। इसके बाद तो बातों सिलसिला ही चल पड़ा। वो सज्जन मूलत: जमशेदपुर (टाटानगर, झारखण्ड) के रहने वाले थे। अपने शहर जा रहे थे। बताया कि नागपुर के एक होटल में मास्टर सेफ हैं और अब यहां से इस्तीफा दे दिया है, झारखण्ड से लौटने के बाद रायपुर के किसी होटल में पदभार ग्रहण करना है।
बातचीत के इस दौर में दो घंटे बीत गए। अचानक हावड़ा-हटिया जाने वाली ट्रेन आई तो वो बोले इसी में निकल जाता हूं। जब तक दस सवा दस हो गए थे। स्टेशन पर भीड़ बढऩे लगी थी। श्रीमती के बीच में दो तीन फोन आ गए, वह बोली, आप रात को नागपुर में रुक जाओ, तूफान आने वाला है। मैं उसकी सलाह पर थोड़ा मुस्कुराया और उससे कहा कि अब इससे ज्यादा परेशानी और क्या होगी, जो होगा देखा जाएगा। खैर, निर्धारित समय से थोड़ा विलम्ब से ट्रेन स्टेशन पर आई। आखिरकार सुबह साढ़े चार बजे के करीब मैं दुर्ग रेलवे स्टेशन उतरा। घर पहुंचते-पहुंचते पांच बज चुके थे। समय की गणना करने लगा तो दो दिन और लगभग दो रात तो सफर में ही बीत गए थे। एक नया रिकार्ड बन गया था, 45 घंटे तक लगातार यात्रा करने का। यकीनन यात्रा बेहद तकलीफदेह एवं थकाने वाली रही लेकिन अपने साथ कई तरह के अनुभव छोड़ गई।

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