Sunday, December 16, 2012

मन

मन, तो
मन है।
इसकी
थाह भला
कौन
ले पाया।
कितने ही
अर्थ जुड़े

हैं मन से।
और हां,
नाम भी
कई हैं
मन के।
और रूप
भी तो हैं कई।
कभी मन
मीत बन
जाता है
तो कभी
मन मौजी।
और कभी कभी
मन मयूरा
भी हो जाता है।
मन किसी
को चाहने भी
लगता है।
मन ही मन।
कोई आस
अधूरी रह
जाती है
तो मन
मसोस
दिया
जाता है।
और कोई
चाह पूरी
होती है तो,
वह मन
की मुराद
बन जाती है।
मन तो
रमता जोगी
है, एक पल
में ही
कितनी
सीमाएं लांघ
जाता है।
पलक झपकते
ही दुनिया
की सैर
कर आता है
कभी
आसमान में
उड़ता है।
चांद-तारों की
बात करता है।
मन तो मन है।

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