Tuesday, August 28, 2012

...क्योंकि मैं एक सड़क हूं

(सड़क की कहानी, उसी की जुबानी)

टिप्पणी 

बनना और टूटना मेरी फितरत है। मैं बनती हूं, टूटती हूं। फिर बनती हूं और फिर टूट जाती हूं।... क्योंकि मैं एक सड़क हूं। यह सिलसिला चलता रहता है। लगातार, निरतंर और बदस्तूर। तभी तो टूटने का क्रम कभी रुकता नहीं है, थमता नहीं है। अनवरत चलता ही रहता है बिना थके। मेरे साथ विडम्बना यह जुड़ी
है कि मैं बनती देर से हूं लेकिन उखड़ बहुत जल्दी जाती हूं। मेरे उखड़ने से भले ही कोई दुर्घटनाग्रस्त हो। कोई चलते-चलते ठोकर खाए। हाथ-पैर तुड़वाए, मेरे बाप का क्या जाता है। मुझे घुट्‌टी भी इसी बात की पिलाई जाती है। क्या सांप काटना छोड़ सकता है। क्या कुत्ता भौंकना छोड़ सकता है। तो मैं अपना स्वभाव कैसे छोड़ दूं। मौसम बदल जाते हैं। हालात बदल जाते हैं। और तो और सरकारें भी बदल जाती हैं लेकिन मेरा टूटना या उखड़ना कभी बंद नहीं होता। हो भी कैसे ..क्योंकि मैं एक सड़क हूं। जगह कोई भी हो, मेरी जैसी कहानी मेरी सभी बहनों की है। तभी तो हमारे बनने-बिगड़ने का गणित सभी जगह कमोबेश एक जैसा ही है। सरकार किसी की भी हो। सत्ता में कोई भी बैठा हो। क्या फर्क पड़ता है उससे। टूटने का सिलसिला तो पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है। आजादी के बाद से ही। उस परम्परा को भला कैसे छोड़ दूं। समाज के नियमों को कैसे तोड़ दूं। मैं जब टूटती हूं तो ठाले-बैठे विपक्षी दलों को एक जोरदार मुद्‌दा जरूर मिल जाता है। विरोध करने का। मेरा नाम लेकर कइयों के भाग्य बन गए और अभी तो कइयों के बनेंगे। मैंने अपना स्वभाव बदल लिया तो यकीन मानिए नेता बनने की एक राह तो सदा के लिए ही बंद हो जाएगी। किसी की राह रोकना भी तो मेरा काम नहीं है।...क्योंकि मैं एक सड़क हूं।
मैं अक्सर टूटती हूं। कई बार तोड़ दी भी जाती हूं। कभी किसी बहाने से तो कभी कोई कारण बताकर। इंद्रदेव को तो हमारी जमात पर जरा सा भी तरस नहीं आता। घोटालों और घपलों की तमाम खामियां बारिश में बहा ले जाते हैं। कितने दयालु हैं दूसरों का गुनाह खुद अपने ऊपर ले लेते हैं। मेरे टूटने की सबसे बड़ी वजह (बहाना) तो बारिश ही बनती है। खैर मेरे टूटने के बहाने वहां भी हैं, जहां बारिश नहीं है। और फिर मुझे तोड़ा भी तो आपके भले के लिए जाता है। मेरी बहनें जो बार-बार टूटती है। नजर अक्सर उन्हीं पर रहती है। उन्हीं की पूछ परख होती है। जो समय पर टू टती नहीं है, उसे कोई पूछता ही नहीं है। उपेक्षित रहती है बेचारी। लाचारी एवं मजबूरी की मारी। देखा जाए तो मेरे बनने-बिगड़ने की कहानी से कई जिंदगियां जुड़ी हैं। कई परिवार पल रहे हैं। मैं अपनी आदत छोड़ दूंगी तो यह सब कहां जाएंगे। घरों में रोटियों के लाले पड़ जाएंगे। नेताओं की कुर्सियां हिल जाएंगी। ठेकेदार बेरोजगार हो जाएंगे। मैं चाहकर भी अपनी आदत नहीं छोड़ सकती। अपने उसूलों से कभी मुंह नहीं मोड़ सकती। घर दूसरों का भरने के कारण ही मेरा दामन गरीब है। बार-बार बनना और बिगड़ना ही मेरा नसीब है। ...क्योंकि मैं एक सड़क हूं।
मेरी हालत पर आम आदमी तरस खाता है। रोता है, चिल्लाता है। गुस्से में बड़बड़ाता है। गालियां भी निकालता है लेकिन मैं क्या कर सकती हूं। दोष बनाने व बनवाने वालों के साथ आप सब का भी है। वैसे भी किसी पर फिजूल में दोषारोपण करना ठीक नहीं है। मुझे यह भी पता है कि बिना तालमेल के घालमेल संभव नहीं है। लेकिन जब आप लोग ही चुप हैं तो फिर मैं किसके लिए बोलूं और क्यों बोलूं.... क्योंकि मैं तो एक सड़क ही हूं। दिल से भी पैदल और दिमाग से भी पैदल।... आखिर एक सड़क जो ठहरी।
साभार- पत्रिका भिलाई के 28 अगस्त 12  के अंक में प्रकाशित।

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