Friday, August 31, 2012

...ताकि कष्टप्रद ना हो अंतिम सफर

जो आया है, वह एक दिन जाएगा। यही जिंदगी की कड़वी हकीकत है। बावजूद इसके लोग इस हकीकत को दरकिनार करने से बाज नहीं आते। स्वतंत्रता सेनानी बालाराम जोशी के अंतिम संस्कार से पहले जब उनकी अंतिम यात्रा दुर्ग की शिवनाथ मुक्तिधाम की इस टूटी-फूटी सड़क से होकर गुजरी तो विकास के नारे बेमानी से लगे। अंतिम यात्रा में शामिल लोगों को यह तो यकीन हो गया कि मुक्तिधाम की यह सड़क भी ऐसे ही लोगों ने बनाई है, जिन्होंने अपना जमीर बेचकर जिंदगी के इस सच को नजरअंदाज किया। सड़क पर बने बड़े-बड़े गड्‌ढ़े और उनमें भरा कीचड़ यह बताने के लिए काफी है कि इसके निर्माण में किस तरह की गफलत की गई है। कितनी दिक्कत होती है यहां से गुजरने वालों को। अकेले आदमी को भी एहतियातन यहां से गुजरते हुए सावधानी बरतनी पड़ती है। अर्थी लेकर चलने वाले कैसे गुजरते होंगे यहां से, समझा जा सकता है। इसके लिए जिम्मेदार सिर्फ शासन-प्रशासन एवं जनप्रतिनिधि ही नहीं है। हम सब भी हैं। ऐसे हालात क्यों बने, हम कभी सोचते नहीं हैं। हम केवल उसी वक्त व्यवस्था को कोसते हैं, जब इस मार्ग से गुजरते हैं। हमको तकलीफ भी उसी वक्त होती है। उसके बाद हम भूल जाते हैं। हम बात-बात पर रास्ता रोकते हैं, हंगामा खड़ा करते हैं। तोड़फोड़ पर उतारू हो जाते हैं। फिर इस बात के लिए अपनी आवाज बुलंद क्यों नहीं करते। इस जगह देर सबेर हम सभी को आना है। पहल करने बाहर से कोई नहीं आएगा। शुरुआत खुद से ही करनी होगी। इस विषय में सोचना और कोई उचित निर्णय जरूर लेना ताकि जैसा आज स्वतंत्रता सेनानी बालाराम जोशी की अंतिम यात्रा के दौरान हुआ कल किसी और के साथ न हो। इस बहाने सड़क सुधारने के लिए अगर शासन-प्रशासन या जनप्रतितिनिधियों की तरफ से कोई सार्थक प्रयास होते हैं तो निसंदेह स्वतंत्रता सेनानी बालाराम जोशी को एक सच्ची श्रद्धांजलि होगी, ताकि किसी का अंतिम सफर इस प्रकार कष्टदायी ना बने।

साभार : भिलाई पत्रिका के 31 अगस्त 12 के अंक में प्रकाशित।

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