पेड़ का दर्द
मेरी दशा देखकर आप समझ गए होंगे कि मेरा दर्द क्या है। सोमवार दोपहर को मैं मरते-मरते बचा हूं। वो तो भला हो एक दो जागरूक लोगों का, जिनकी बदौलत मेरा अस्तित्व रह गया। वरना मेरी हत्या तो लगभ तय थी। बेरहमों ने समय भी बड़ा मुफीद चुना। मैं बहुत चीखा, चिल्लाया भी, लेकिन कोई नहीं था, उस वक्त। वो तो मेरी किस्मत अच्छी थी कि एक-दो पर्यावरण प्रेमी संयोग से वहां पहुंच गए और मैं बच गया। पता नहीं क्यों कोई यकायक मेरे खून का प्यासा हो गया। क्या बिगाड़ा था मैंने किसी का। मैं तो आसपास के लोगों को सुकून भरी छाया ही उपलब्ध कराता रहा हूं। सैकड़ों परिंदे मेरी शाखाओं पर बेखौफ होकर शिद्दत के साथ रात गुजारते रहे हैं।
अफसोस उन परिन्दों का आशियाना उजड़ गया। कहां
रात गुजारेंगे वो। एकदम ठूंठ बन गया हूं मैं। हालात यह हो गई मैं अभी किसी
को छाया तक भी नहीं दे सकता। काफी वक्त लगेगा मेरे जख्म भरने में। हुड़को
में श्रीराम चौक के मैदान के पास मुझे बड़े आदरभाव व विधि विधान के साथ
लगाया था। बरगद का पेड़ होने तथा सबका चहेता होने के बाद भी पता नहीं क्यों
मैं किसी को अखर गया। खैर, यह आप लोगों के स्नेह एवं दुआओं का ही कमाल था
कि मैं बच गया। फिर भी आपको आगाह करता हूं कि मेरे से दुश्मनी निकालने वाले
को आप सजा जरूर दिलवाएं ताकि वह भविष्य में इस प्रकार की हिमाकत ही ना
करे। अगर आज आप लोगों ने हिम्मत करके यह पुनीत कार्य कर दिया तो यकीन मानिए
आप पर्यावरण प्रेम की नई इबारत लिख देंगे।
साभार -पत्रिका भिलाई के 14 अगस्त 12 में प्रकाशित।
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