Wednesday, February 28, 2018

अतीत जिंदा हो गया...

बस यूं ही
शादी समारोह में शामिल होने का सबसे बड़ा फायदा मेरी नजर में जो है वह यह है कि आपको एक साथ कई परिचित मिल जाते हैं। सामान्य दिनों में जाओ तो इतने मित्र एक साथ मिलना संभव नहीं हो पाता। परिचितों व दोस्तों से मुलाकात न केवल अतीत की यादें जिंदा कर देती हैं बल्कि सफर की थकान को भी भुला देती हैं। अति व्यस्त शेड्यूल होने के बावजूद मैं परिचित या दोस्तों के यहां होने वाले शादी समारोह में शिरकत करने को हमेशा उत्सुक रहता हूं। 17 फरवरी को दोपहर दो बजे शुरू हुआ सफर आज शाम पांच बजे पूर्ण हुआ। पहले दिन करीब 260 किलोमीटर की यात्रा कर श्रीगंगानगर से बीकानेर पहुंचा। रात्रि विश्राम बीकानेर में करने के बाद 18 फरवरी को अगला पड़ाव बगड़ था। यह भी 250 किलोमीटर की यात्रा हो गई। रात्रि विश्राम कालीपहाड़ी में करने के बाद फिर श्रीगंगानगर वापसी के लिए यात्रा। यह भी करीब 350 किलोमीटर का सफर है। इस तरह तीन दिन में 860 किलोमीटर की यात्रा कर ली। इस यात्रा के साथ बीकानेर व बगड़ में शादियों में भी शामिल हुआ। इससे भी बड़ी बात तो आत्मिक लगाव वालों से आत्मिक मुलाकातें रही। बीकानेर में श्री राजेन्द्र जी भार्गव की बिटिया की शादी में जब भार्गव जी से मुलाकात हुई तो उनकी चेहरे की खुशी से जाहिर हो रहा था कि मेरे शादी में जाने से वो बेहद प्रफुल्लित थे। अपने रिश्तेदारों से परिचय कराते हुए उन्होंने कह भी दिया कि यह होता है आना। यह हुई ना कोई बात। सच में बहुत खुश नजर आए वो।
इससे कहीं अधिक खुशी तो बगड़ में मिली। कॉलेज लाइफ में साथी रहे हिम्मतसिंह जी की बिटिया की शादी में हर दूसरा चेहरा जाना-पहचाना लगा। मुद्दतों बाद इतने लोगों से मुलाकात हुई। समय कम पड़ रहा था लेकिन परिचितों की सूची और मुलाकात के दौर का कोई छोर नहीं था। यहां हाथ मिलाने वाली औपचारिकता नहीं थी, बल्कि दोस्तों से गले मिलने वक्त वही कॉलेज टाइम वाली फीलिंग हो रही थी। सोते-सोते रात का एक बज चुका था लेकिन हथाई/ मुलाकातों का दौर थमा नहीं था। किसी से कॉलेज के समय की बातें तो किसी से क्रिकेट के किस्से। किसी से झुंझुनूं कार्यकाल का जिक्र तो किसी से कुछ। कॉलेज व क्रिकेट के समय युवा दिखाने वाले चेहरों पर अब झुर्रियां थी तो उस दौर के बच्चे नवयुवक बन चुके हैं। 18 से 24 साल पहले का दौर/ मजाक/ किस्से अब फिर ताजा हो गए। बगड़ तो वैसे भी गांव के जैसा ही है। आठ नौ साल तो लगातार बगड़ को दिए हैं। पढ़ाई व क्रिकेट के नाम रहा था यह समय। बाद में झुंझुनूं में पत्रकारिता के दौरान भी कई बार बगड़ आया। वैसे जिला मुख्यालय से गांव को जोडने वाला रास्ता भी बगड़ से होकर ही गुजरता है, इसलिए बगड़ आगमन होना तय ही है। सच में यह लगाव, यह स्नेह ही तो सभी को जोड़े रखता है। यह साथ इसी तरह से कायम रहे। आमीन।

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