Wednesday, February 28, 2018

लीपापोती क्यों?

टिप्पणी
वैसे तो पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल उठना कोई नई बात नहीं है, लेकिन श्रीगंगानगर पुलिस किसी न किसी बहाने चर्चा में रहती ही है। पुलिस पर दबाव या प्रभाव में काम करने के आरोप भी गाहे-बगाहे लगते रहते हैं। हालिया दो मामले ऐसे हैं, जिनको लेकर पुलिस की भूमिका कठघरे में है। पहला मामला सप्ताह भर पहले गांव ९ जैड में हुए सड़क हादसे तथा उस संबंध में हुई गिरफ्तारी का है, जबकि दूसरा बुधवार को युवकों के टंकी पर चढऩे से संबंधित है। टंकी वाले घटनाक्रम में पुलिस व प्रशासन की याचक की सी भूमिका को तो समूचे शहर ने देखा। खैर, तात्कालिक परिस्थितियों को देखते हुए ऐसा होना स्वाभाविक था, लेकिन इसके बाद क्या हुआ? यह दबाव नहीं तो क्या था? या फिर इससे पहले टंकी पर चढऩे वालों पर की गईं तमाम कार्रवाइयां ही गलत थी? या फिर टंकी पर चढऩे पर मुकदमा दर्ज करने के आदेश महज कागजी थे? पुलिस व प्रशासन इस तरह नतमस्तक क्यों हुए? या फिर यह समूचा घटनाक्रम ही प्रायोजित था? कल को कोई भी अपनी छोटी-मोटी बात या मांग को लेकर इस तरह टंकी पर चढ़ गया तो क्या पुलिस प्रशासन उसके साथ भी इसी तरह से पेश आएंगे?
कुछ यही हाल ९ जैड के सड़क हादसे का है। यहां पर भी पुलिस पर प्रभाव में काम करने का आरोप हैं। दुर्घटना के दौरान कार कौन चला रहा था? चालक की पहचान कैसे हुई? सीसीटीवी फुटेज में क्या आया? चालक की पहचान किस तरीके से हुई? जैसे कई सवाल हैं जो अभी अनुत्तरित हैं। पुलिस ने इस मामले का खुलकर खुलासा भी नहीं किया। हादसे के आरोप में चालक की गिरफ्तारी से लेकर जमानत लेने तक का घटनाक्रम में भी पुलिस की भूमिका एक तरह की औपचारिकता निभाने जैसे ही रही है। छह जनों की मौत की तफ्तीश का अंजाम इस अंदाज में होने के आसार तो पहले दिन से ही लगने लग गए थे। जांच का आगाज ही जब सवालों से घिरा हो तो फिर अंजाम तो घिरना लाजिमी है।

हादसे वाले मामले में तो हैरत की बात यह थी कि कोई बोलने वाला ही नहीं सामने आया। सच है गरीब के लिए बोलने वाला कोई नहीं है। गरीब की जान की कीमत समझने वाला कोई नहीं। चींटी मरने या काटने पर हंगामा करने वाले शहर में छह मौतों पर छाई खामोशी भी बहुत कुछ कहती है। कथित जनसेवक व समाजसेवियों की जुबान भी इस मामले में तालु से चिपक गई। बहरहाल, जागरूक लोगों की चुप्पी तथा पुलिस प्रशासन की मुंह देखकर तिलक लगाने की आदत रही तो तय मानिए हालात और भयावह होंगे। फिर तो किसी गरीब की जान किसी आवारा कुत्ते की मौत से ज्यादा नहीं होगी। सच में जागरुक लोगों का संवेदनहीन होना बेहद चिंताजनक है
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 16 फरवरी 18 के अंक में प्रकाशित

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