Thursday, November 16, 2017

इक बंजारा गाए-6


मनमर्जी का खेल
राजस्थान में एक कहावत का उपयोग अक्सर किया जाता है। कहावत है पोपाबाई का राज। इसका आशय यही है कि जहां व्यवस्थाएं बेपटरी हों। कोई कहने या सुनने वाला नहीं हो। जहां सब अपनी मनमर्जी पर उतारू हों आदि आदि। अब दीपावली पर शहर में चौक चौराहों पर बधाई संदेश टांगने का शगल है। शहर के कई महानुभावों में इस तरह सरेआम बधाई टांगने की होड़ मची है। इस होड़ में उन्होंने शहर के प्रमुख चौक-चौराहों के मूल स्वरूप को बिगाड़ कर रख दिया है। पार्क बदरंग हो गए हैं। मनमर्जी का आलम यह है कि एक बार जो बधाई संदेश टंगा, वह अगले बधाई संदेश तक टंगा ही रहता है। पार्कों के सौन्दर्यीकरण के दावे एवं प्रयास इस तरह के बधाई संदेशों के आगे बौने नजर आते हैं। खास बात यह है कि कानून को ठेंगा दिखाने वाले इन महानुभावों पर कभी कानून का डंडा भी नहीं चलता। मनमर्जी के इस खेल से आम जन जरूर त्रस्त है।
गहरा धर्मसंकट
कहते हैं कि जब आदमी धर्मसंकट में घिर जाता है तो उसके सोचने व समझने की शक्ति जवाब दे जाती है। वह एक बार तो यह तय नहीं कर पाता कि आखिर उसको करना क्या चाहिए। खाकी के अधिकारी भी इन दिनों धर्मसंकट से ही गुजर रहे हैं। एक तरफ तो सरकार का दबाव है तो दूसरी तरफ वेतन कटौती के विरोध में आंदोलन करने वाले पुलिसकर्मी। वे किसकी सुनें और किसको नजरअंदाज करें। मैस के बहिष्कार तक तो कहीं कोई दिक्कत नहीं आई क्योंकि पुलिसकर्मी काली पट्टी बांध कर ड्यूटी करते रहे और खाना भी बाहर का खाते रहे। दिक्कत तो तब आ गई जब पुलिसकर्मियों ने अवकाश पर जाने की घोषणा कर दी। एेसे में नीचे से लेकर ऊपर तक हड़कंप मचना लाजिमी था। बेहद अनुशासित व कानून की पालना करवाने वाले विभाग में इस तरह का मामला वाकई गंभीर है लेकिन जिस तरह के तेवर हैं, उससे बात आश्वासनों से या समझाइश से बनेगी कम। इसका स्थायी समाधान ही इसका हल है।
सियासी फेर 
राजनीति में कब दिन फिर जाएं कहना मुश्किल है। शीर्ष नेतृत्व जब अपनी टीम का गठन करता है तो उसकी पहली प्राथमिकता उसकी गुडबुक वाले लोग ही ज्यादा होते हैं। इस तरह न तो सभी को मौका मिल पाता है और न ही सभी संतुष्ट होते हैं। अब एक राजनीतिक दल की प्रदेश कार्यकारिणी में जिले के दर्जनभर लोगों को शामिल किया गया है। जाहिर सी बात है दावेदारों की संख्या इससे कहीं ज्यादा होगी। अब जिनको कार्यकारिणी में मौका नहीं मिला वे अपने समर्थकों को किसी न किसी तरह से समझा रहे हैं। दरअसल बात यह है कि कार्यकारिणी में मौके को वंचित लोग आगामी चुनावों से जोड़ कर देख रहे हैं। इसी कारण उनके समर्थकों को पीड़ा है। वैसे समर्थकों की पीड़ा को देखकर दुखी तो वंचित भी हैं लेकिन करें भी तो क्या। मामला ही एेसा है कि सिवाय मन मसोसने के और कोई चारा भी नहीं है उनके पास।
सलाह देने वालों ने मांगी सलाह
जीएसटी को लागू हुए काफी वक्त हो गया। इसको लेकर भी कितने ही सेमिनार हो चुके। नियमों की भी काफी जानकारी दी जा चुकी। इतना ही नहीं इसको गुड एंड सिम्पल भी प्रचारित किया गया। बावजूद इसके यह अभी तक जंजाल ही बनी हुई है। जीएसटी लागू होने के सौ दिन बाद भी अभी तक कई मामलों में स्थिति स्पष्ट नहीं है। हालत यह है कि सलाह देने वाले खुद सलाह मांग रहे हैं। मार्गदर्शन के लिए वे शीर्ष अधिकारियों के पास भी जा रहे हैं। हालत तो तब और भी हास्यास्पद हो गई जब सलाह देने वालों ने सीनियर अधिकारी से दिवाली मनाएं या नहीं, यह तक पूछ लिया। कर सलाहकारों ने एक-एक कर एक नहीं अनेक सवाल किए। बताया कि वे रिटर्न भरने वालों को कुछ बताने की स्थिति में ही नहीं हैं। सीनियर अधिकारी से जवाब में सिवाय आश्वासन के कुछ नहीं मिला। सीनियर ने कहा कि वे तो समस्याएं और सुझाव को आगे तक पहुंचा सकते हैं।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 19 अक्टूबर 17 के अंक में प्रकाशित

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