मानव जीवन में किशोरावस्था से वयस्क होने तक का सफर सबसे महत्त्वपूर्ण माना गया है, क्योंकि यही वह काल होता है, जब जीवन की बुनियाद रखी जाती है। इस मोड़ पर जरा सी चूक जिंदगी भर की टीस दे जाती है। इस मामले में मैं खुशकिस्मत रहा हूं कि किशोरावस्था से जवान होने तथा फिर जॉब पाने तक का समय एक ऐसे कस्बे में बीता जो लम्बे समय से छोटी काशी के रूप में विख्यात रहा है। मेरा मतलब बगड़ कस्बे से है। झुंझुनूं-चिड़ावा मार्ग पर स्थित यह कस्बा लम्बे समय तक शिक्षानुरागी सेठों की बदौलत आस पड़ोस के राज्यों में चर्चित रहा है। यहां के शिक्षण संस्थानों से निकले होनहार विद्यार्थी समूचे देश में कस्बे की कीर्ति पताका फहरा रहे हैं। बदलते दौर में कड़ी प्रतिस्पर्धा तथा प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद इस कस्बे ने अपनी साख कायम रखी है। यही कारण है कि शैक्षणिक सत्र के दौरान कस्बे की चहल-पहल देखते ही बनती है। तिराहे से लेकर बीएल चौक तथा तथा चौराहे से पीरामल गेट तक मेले जैसा माहौल नजर आता है। जाहिर है जब माहौल ही मेले जैसा होगा तो लोगों के चेहरों पर मुस्कान आना भी स्वाभाविक है। लेकिन गहमागहमी का दौर उस वक्त गायब सा हो जाता है, जब शैक्षणिक अवकाश का दौर शुरू होता है। उस वक्त कस्बे में सन्नाटा इस कदर फैल जाता है गोया कोई कर्फ्यू लगा हो। लब्बोलुआब यह है कि कस्बे की रौनक उसके शिक्षण संस्थानों से ही है।
लम्बे समय से शिक्षा में सिरमौर इस छोटी काशी में मैंने भी अध्ययन किया है। स्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद भी तीन साल तक मैं नियमित रूप से बगड़ आता रहा। इस प्रकार सन १९९३ से २००० तक कुल सात साल तक मेरा बगड़ से नियमित जुड़ाव रहा है। आज भी मेरे लिए बगड़ सर्वोपरि है। गांव के बाद अगर सर्वाधिक समय कहीं बीता है तो वह बगड़ ही है। वैसे बगड़ से मैं अकेला ही नहीं लगभग पूरा परिवार ही जुड़ा हुआ है। सर्वप्रथम पापाजी बगड़ आए। वे एफसीआई में थे। इसके बाद सबसे बडे़ भाईसाहब ने बगड़ से ही बीएड किया। फिर उनसे छोटे भाईसाहब ने ९ से लेकर १२वीं की शिक्षा यहीं पर ग्रहण की। सबसे बाद में मेरा नम्बर आया। मैंने यहां ११वीं में प्रवेश लिया तथा स्नातक की डिग्री भी कस्बे के ही एक कॉलेज से हासिल की। बगड़ मेरे लिए इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि मेरे गांव से जिला मुख्यालय जाने का रास्ता यहीं से गुजरता है। मेरे समय में आज की तरह स्कूल बसों का प्रचलन नहीं था, लिहाजा, सुबह की पारी में गांव से बगड़ तक का करीब १५ किलोमीटर तक का सफर पैदल ही करना पड़ना था। दो साल तक मैं अपने गांव से बगड़ पैदल आया हूं।
अब भी मैं बगड़ से दूर नहीं हूं। बगड़ से जुड़ी यादें, यहां के लोग तथा छात्र जीवन की तमाम बातें मेरे जेहन में आज भी जवां हैं। भला बगड़ में ऐसा कौन है, जिसे मैं नहीं जानता। अब भी समय मिलता है तो बगड़ चला जाता हूं लेकिन अब वहां जाने की भूमिका कुछ बदल सी गई है। छात्र जीवन के साथियों से बातें और मुलाकातें अब भी होती हैं लेकिन पेशेगत मजबूरियों के कारण उन्होंने मर्यादाओं का लबादा ओढ़ लिया है। इसी पेशेगत मजबूरी ने मेरे एवं परिचितों के बीच एक दायरा भी बना दिया है। जिसे चाहकर भी कम नहीं किया जा सकता है। बहरहाल, बगड़ की यादें मेरी लिए किसी धरोहर से कम नहीं। विशेष रूप से उस वक्त तिराहे बस स्टैण्ड पर स्थित सैनी जी तथा बीएल चौक पर मुरारी जी की दुकानों की चाय का स्वाद आज भी याद है। सैनी जी की दुकान तो शायद बंद हो चुकी है लेकिन मुरारी जी की दुकान अभी चल रही है। कभी मौका मिला तो वहां की चाय की चुस्कियों के साथ एक बार अतीत की यादों को जीभर के जी लूंगा।
लम्बे समय से शिक्षा में सिरमौर इस छोटी काशी में मैंने भी अध्ययन किया है। स्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद भी तीन साल तक मैं नियमित रूप से बगड़ आता रहा। इस प्रकार सन १९९३ से २००० तक कुल सात साल तक मेरा बगड़ से नियमित जुड़ाव रहा है। आज भी मेरे लिए बगड़ सर्वोपरि है। गांव के बाद अगर सर्वाधिक समय कहीं बीता है तो वह बगड़ ही है। वैसे बगड़ से मैं अकेला ही नहीं लगभग पूरा परिवार ही जुड़ा हुआ है। सर्वप्रथम पापाजी बगड़ आए। वे एफसीआई में थे। इसके बाद सबसे बडे़ भाईसाहब ने बगड़ से ही बीएड किया। फिर उनसे छोटे भाईसाहब ने ९ से लेकर १२वीं की शिक्षा यहीं पर ग्रहण की। सबसे बाद में मेरा नम्बर आया। मैंने यहां ११वीं में प्रवेश लिया तथा स्नातक की डिग्री भी कस्बे के ही एक कॉलेज से हासिल की। बगड़ मेरे लिए इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि मेरे गांव से जिला मुख्यालय जाने का रास्ता यहीं से गुजरता है। मेरे समय में आज की तरह स्कूल बसों का प्रचलन नहीं था, लिहाजा, सुबह की पारी में गांव से बगड़ तक का करीब १५ किलोमीटर तक का सफर पैदल ही करना पड़ना था। दो साल तक मैं अपने गांव से बगड़ पैदल आया हूं।
अब भी मैं बगड़ से दूर नहीं हूं। बगड़ से जुड़ी यादें, यहां के लोग तथा छात्र जीवन की तमाम बातें मेरे जेहन में आज भी जवां हैं। भला बगड़ में ऐसा कौन है, जिसे मैं नहीं जानता। अब भी समय मिलता है तो बगड़ चला जाता हूं लेकिन अब वहां जाने की भूमिका कुछ बदल सी गई है। छात्र जीवन के साथियों से बातें और मुलाकातें अब भी होती हैं लेकिन पेशेगत मजबूरियों के कारण उन्होंने मर्यादाओं का लबादा ओढ़ लिया है। इसी पेशेगत मजबूरी ने मेरे एवं परिचितों के बीच एक दायरा भी बना दिया है। जिसे चाहकर भी कम नहीं किया जा सकता है। बहरहाल, बगड़ की यादें मेरी लिए किसी धरोहर से कम नहीं। विशेष रूप से उस वक्त तिराहे बस स्टैण्ड पर स्थित सैनी जी तथा बीएल चौक पर मुरारी जी की दुकानों की चाय का स्वाद आज भी याद है। सैनी जी की दुकान तो शायद बंद हो चुकी है लेकिन मुरारी जी की दुकान अभी चल रही है। कभी मौका मिला तो वहां की चाय की चुस्कियों के साथ एक बार अतीत की यादों को जीभर के जी लूंगा।
बगड में रहा हुआ व्यक्ति बगड को आसानी से नहीं भूल सकता है | कोलेज के समय में और आज के समय में बहुत परिवर्तन आ गया है | आजकल तिराहा बस स्टैंड पर रोनक रहने लग गयी है | पहले ऑटो नहीं चलते थे अब ऑटो की सुविधा हो गयी है | बस स्टैंड और बी एल चौक दोनों जगह पर हाईमास्क लैत लग गयी है | कहने का मतलब काफी उन्नति हो गयी है |
ReplyDeleteDharti se jura vayakti hi aasman ki bulundion ko chhuta hai. Subhash Kashyap 09352978009
ReplyDeletekabhi bagar aao murari ki special chay pite hai.
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