Saturday, April 13, 2013

बिल, बयान और बवाल-9


बस यूं ही

कल की कड़ी में चर्चा इस बात पर हो रही थी कि आखिर आंखों पर काला चश्मा लगाया जाए या फिर आंखें दान कर दी जाएं। अब बात इससे आगे की करते हैं। सुझाव के बीच एक आग्रह भी आया था कि जब आंखों पर लिख ही रहे हैं तो आंखें फिल्म के चर्चित गीत 'उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता, जिस मुल्क की सरहद की निगाहबान हैं आखें...।' पर भी कुछ लिखो। कहने की जरूरत नहीं है, यह बहुत ही प्यारा गीत है। पुरानी कडिय़ों में इस गीत का जिक्र इसलिए भी नहीं किया था कि गीत देशभक्ति से जुड़ा है, लिहाजा देशभक्ति का जज्बा एवं संदेश आखिरी कडिय़ों में सार स्वरूप दिया जाए तो बेहतर है। गीत का विस्तार से जिक्र करने से पहले बता दूं कि जब इस विषय पर लिखना शुरू किया था, उस वक्त यह बिल कानून नहीं बना था, इस कारण अधिकतर कडिय़ों में भविष्य की संभावना/आशंका जताई गई थी कि कानून के अस्तित्व में आने के बाद ऐसा हो जाएगा। चूंकि अब कानून बन चुका है, ऐसे में अब संभावनाओं एवं आशंकाओं का दौर तो खत्म हो चुका। अब तो ध्यान यह रखना है कि कानून का दुरुपयोग ना हो और उसके संभावित दुरुपयोग से बचा कैसे जाए। इसमें कोई शक नहीं है कि कानून हमेशा अच्छी सोच के साथ एवं अच्छे परिणाम तथा पीडि़तों को न्याय मिलने की धारणा से प्रभावित होकर ही बनाए जाते हैं, लेकिन चालाक व चतुर लोग फिर भी इनसे बचने के रास्ते ढूंढ लेते हैं। कई तो कानून को हथियार के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं। विशेषकर प्रभावशाली एवं पहुंच वालों के लिए कानून का दुरुपयोग करना कोई मुश्किल काम नहीं है। बदकिस्मती है कि देश में आज कानून का दुरुपयोग ज्यादा हो रहा है। कहने का आशय यही है कि दुश्मनी निकालने के लिए, प्रायोजित तरीके से किसी को बदनाम करने लिए या फिर तात्कालिक लाभ लेने के लिए भी लोग कानून की आड़ लेते हैं। कहने की जरूरत नहीं है क्योंकि पूर्व में भी लिखा था कि दहेज प्रताडऩा जैसा कानून जिसके बनाने के पीछे बहुत पाक मकसद रहा लेकिन वर्तमान में देखें तो दहेज प्रताडऩा के मामले जांच के बाद कितने फीसदी सच साबित होते हैं। खैर, मामला कुछ ज्यादा गंभीर मोड़ पर पहुंच गया है।
चलो इस गंभीरता को यहीं पर विराम देकर फिर से हल्के फुल्के माहौल में चलते हैं। बात आखें फिल्म के गीत की हो रही थी। गीतों की बात न करने का वादा किया था लेकिन वादे टूट जाते हैं। वैसे यहां वादा जानबूझाकर तोड़ा जा रहा है, क्योंकि गीत देशभक्ति से जुड़ा है और अपुन को देश से बहुत प्रेम है। इसलिए गीत का उल्लेख तो बनता ही है। इसी गीत की एक-एक पंक्ति में बहुत बड़ा फलसफा छिपा है। आप भी गीत के कुछ चुनिंदा अंतरों का आंनद लीजिए- देखें.. हर तरह के जज्बात का ऐलान हैं आखें, शबनम कभी शोला कभी तूफान हैं आखें...। आगे देखिए.. आंखें ही मिलाती हैं, जमाने में दिलों को, अनजान हैं हम तुम अगर, अनजान हैं आखें...। लब कुछ भी कहें, इससे हकीकत नहीं खुलती, इंसान के सच झाूठ की पहचान हैं आखें...। गीत के दो चार अंतरे और भी है। गीत का एक-एक बोल वाकई अपनी पीछे बहुत बड़ी कहानी रखता है। बानगी देखिए.. हम तुम अनजान ही रहते हैं अगर आंखें भी अनजान हैं। कहने का मतलब है पहचान तो आंखें ही करती हैं। वाकई बहुत गहरे राज वाली पंक्तियां हैं ये।
बिलकुल वैसे ही जैसे कहा गया है कि 'सतसैया के दोहे, ज्यों नाविक के तीर, देखन में छोटे लगे, घाव करें गंभीर..।' आंखें और सरहद से मकबूल गीतकार गुलजार की रचना याद आ गई। आज भले ही मखमली आवाज के धनी गजल गायक मेहंदी हसन इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन यह रचना उनसे सरोकार रखती है। आप भी देखिए... 'आंखों को वीजा नहीं लगता, सपनों की सरहद नहीं होती, बंद आंखों से रोज मैं सरहद पार चला जाता हूं, मिलने मेहंदी हसन से..। ' सच में न तो सपनों की सरहद होती है और ना ही बंद आंखों पर कोई कानून आड़े आता है। लेकिन गुलजार साहब से इतर विचार रखने वालों ने तो बंद आंखों से भी खतरा बता दिया है। जांनिसार अख्तर साहब फरमाते हैं 'लम्हा-लम्हा तिरी यादें, जो चमक उठती हैं, ऐसा लगता है, उड़ते हुए पल जलते हैं, मेरे ख्वाब में कोई लाश उभर जाती है, बंद आंखों में कई ताजमहल जलते हैं... ' अख्तर साहब की बात का समर्थन यह रुबाई भी करती है देखिए.. 'उम्र की राह में रस्ते बदल जाते हैं, वक्त की आंधी में इंसान बदल जाते हैं, सोचते हैं तुम्हे इतना याद न करें, लेकिन आंखें बंद करने से ही इरादे बदल जाते हैं..। ' सोचने की बात है बंद आंखों से ही इरादे बदलेंगे तो फिर तो कोई इलाज दिखाई भी नहीं देता है। बड़े-बड़े शायरों व शायरी की बातों का उल्लेख करते-करते अपुन का मूड भी शायराना हो गया है। वैसे राज की बात यह है कि शायरी के शौकीन तो अपुन शुरू से ही रहे हैं। कॉलेज लाइफ में तो जूनियरों ने विदाई देते समय टाइटल भी शायर का ही दिया था। इसलिए आज की कड़ी इन दो रुबाइयों के साथ पूर्ण कर रहा हूं। आप भी लुत्फ उठाइए..। 'जब भी उनकी गली से गुजरता हूं, मेरी आंखें एक दस्तक देती हैं, दुख ये नहीं वो दरवाजा बंद कर देते हैं, खुशी ये है वो मुझे अब भी पहचान लेते हैं।' कितना आशावादी सोच है। दाद देनी पड़ेगी इसकी। अब दूसरी रचना देखिए... 'इश्क है वही जो हो एकतरफा, इजहार है इश्क तो ख्वाइश बन जाती है, है अगर इश्क तो आंखों में दिखाओ, जुबां खोलने से ये नुमाइश बन जाती है..। ' अब धर्मसंकट यही है कि आंखों से इजहार करो तो खतरा और जुबां से करो तो नुमाइश..। उलझा के रख दिया इस रुबाई ने तो। फिलहाल अपुन इसके उलझन में उलझे हुए हैं, तब तक आप भी दिमाग के घोड़े दौड़ाइए ताकि इस धर्मसंकट से उबरने का कोई रास्ता दिखाई दे जाए। दिखाई दे तो चुप मत रहना, साझा कर लेना। बिना डरे बेहिचक और बेझिझक। .

.... क्रमश:

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