Monday, September 10, 2012

हिन्दी इतनी हीन क्यों?



बस यूं ही

 

सोमवार दोपहर को दोनों बच्चे स्कूल से लौट आए थे। धर्मपत्नी जरूरी सामान की खरीदारी के चलते बाजार गई थी, लिहाजा दोनों बच्चों को बस से लेकर मैं ही आया। वैसे ईमानदारी से कहूं तो बच्चों से संबंधित सारे काम धर्मपत्नी ही देखती है। कभी-कभार जरूर कुछ काम कर लेता हूं लेकिन वह भी बच्चों को बस से घर तक लाने का ही होता है। बच्चों को सुबह जगाने, नहलाने एवं तैयार कर स्कूल बस तक
छोड़ने का काम वही करती है। इसके बाद बच्चों को खाना खिलाने तथा उनको गृह कार्य कराने का काम भी वो ही सम्भालती है। दोपहर को बाजार से आने के बाद उसने बड़े बेटे योगराज से रोजाना की तरह स्कूल तथा गृह कार्य के बारे में पूछा। योगराज ने बताया कि मैडम ने हिन्दी का कुछ काम करवाया था लेकिन उसको बैग में अभ्यास पुस्तिका नहीं मिली। धर्मपत्नी ने झुंझलाहट में उसे हल्का सा डांटा तो वह बोला मम्मा अभ्यास पुस्तिका तो बैग के अंदर ही थी लेकिन दूसरी अभ्यास पुस्तिका ऊपर आ जाने के कारण जल्दबाजी में उसे देख नहीं पाया। इस पर मैडम ने दूसरे विषय की अभ्यास पुस्तिका में कुछ नोट लिख दिया। धर्मपत्नी ने उत्सुकतावश योगराज से वह अभ्याय पुस्तिका दिखाने को कहा, तो उसने तत्काल बैग से पुस्तिका को बाहर निकाला और मम्मा को दिखा दी। पुस्तिका पर मैडम का नोट देखकर धर्मपत्नी एकदम अवाक रह गई। वह गुस्से में बड़बडा़ई, यह कैसी त्रासदी है? हिन्दी इतनी हीन क्यों है? धर्मपत्नी के बोल सुनकर मैं एकदम चौंक गया। संयोग से मैं उस वक्त उसी कमरे में छोटे बेटे एकलव्य के साथ कुछ मस्ती कर रहा था।
धर्मपत्नी की गंभीर बातें सुनकर मेरा ध्यान भंग हो गया। ऐसा होना स्वाभाविक था, क्योंकि हिन्दी मेरा सबसे पसंदीदा विषय रहा है और अब भी है। हिन्दी के प्रति लगाव बचपन से ही था। इतना लगाव था कि श्रुतिलेख में भी मास्टरजी शायद की कोई गलती ढूंढ पाते थे। पारिवारिक माहौल बचपन से ही ऐसा था कि पढ़ने के लिए घर में पर्याप्त सामग्री मिली। तभी तो हिन्दी में दसवीं, बारहवीं और बाद में स्नात्तक परीक्षा में अनिवार्य तथा हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक अंक हासिल किए। सच मानिए मुझे हिन्दी से बहुत प्रेम है। दीवारों पर कभी कुछ गलत या अशुद्ध लिखा हुआ देखता हूं तो बड़ी पीड़ा होती है। गुस्सा भी बहुत आता है कि सिर्फ हस्तलेखन सुंदर होने से ही कोई पेंटर थोड़े बन जाता है। शुद्ध लेखन के लिए हिन्दी का ज्ञान तो उसके लिए भी जरूरी है। खैर पुनः विषय वस्तु पर लौटता हूं। मैंने धर्मपत्नी से पूछा आखिर ऐसा क्या हो गया जो हिन्दी के सम्मान में इस तरह का सम्बोधन किया जा रहा है। मेरी बात सुनकर उसने अभ्यास पुस्तिका दिखाते हुए कहा कि ... देखो हिन्दी की मैडम को तो कम से हिन्दी में लिखना चाहिए लेकिन इसने भी अंग्रेजी में ही नोट लगाया है। मैंने कहा, क्या लिखा है ऐसा.. बोली हिन्दी की मैडम ने अंग्रेजी में लिखा है... प्लीज सेंड हिन्दी कॉपी। यह सब जानकार मैं थोड़ा गंभीर हो गया। हिन्दी की मैडम का अंग्रेजी प्रेम देखकर मन में कई तरह के ख्याल आने लगे। और फिर मैं सोच में ही डूब गया। पता नहीं क्या-क्या सोचने लगा...।
सोच रहा था हिन्दी दिवस भी तो इसी सप्ताह आने वाला है 14 सितम्बर को। बचपन से मनाते आए हैं, इसलिए 14 सितम्बर को कैसे भूल सकते हैं। वैसे हिन्दी प्रेमियों को हिन्दी दिवस के आसपास ही हिन्दी का ज्यादा ख्याल आता है। खैर, बात हिन्दी दिवस की करें तो क्या-क्या नहीं होगा इस दिन। कामकाज हिन्दी में करने के संकल्प लिए जाएंगे। खूब शपथ ली जाएगी। हिन्दी के लिए जनजागरण विषयक रैलियां निकलेंगी। वाद-विवाद, निबंध और भी न जाने कितने ही आयोजन-प्रयोजन होंगे हिन्दी के नाम पर। लब्बोलुआब यह है कि इस दिन हिन्दी का खूब गुणगान होगा। महिमा बतार्इ जाएगी, चौक चौराहों पर बैनर टगेंगे। होर्डिंग्स लगेंगे। बाद में साल भर यही होर्डिंग्स हिन्दी की अहिन्दी करते हैं। अपनी बदहाली पर आंसू बहाते हैं। कोई हटाता भी नहीं तो कोई ठीक भी नहीं करता इनको। रह-रहकर मेरे कानों में धर्मपत्नी के बोल गूंज रहे थे...। यह कैसी त्रासदी है? हिन्दी इतनी हीन क्यों है? यह कैसी त्रासदी है? हिन्दी इतनी हीन क्यों है? सचमुच एक दिन विशेष में कैद करके हमने हिन्दी को हीन नहीं तो और क्या बनाया है। दिन विशेष में कैद करके से उसकी महत्ता व विशेषताओं को एक दायरे में कैद ही तो कर दिया है हमने। हिन्दी के लिए एक दिन तय करने के पीछे सभी के पास अपने-अपने तर्क होंगे लेकिन मैं इससे न तो सहमत हूं और ना ही इसका पक्षधर हूं। मेरे हिसाब से तो हिन्दी की महिमा साल भर गाई जाए तो भी कम है। और अगर हम हिन्दी दिवस की दिन करने वाला गुणगान रोजाना करना शुरू कर दें तो यकीन मानिए हमारी हिन्दी सिरमौर होगी।

1 comment:

  1. भतीजे सिद्धार्थ ने लेख पढ़कर मोबाइल पर एसएमएस किया। उसने लिखा....मैं आपकी बात से बिलकुल सहमत हूं। अब भारतवर्ष में जो आदमी शुद्ध हिन्दी बोलने की कोशिश करता है उसे अपने ही देश के लोग बेवकूफ कहते हैं। देश तरक्की तो कर रहा है। बोलने में समृद्ध हमारा इतिहास हमारी संस्कृति हमारी वेशभूषा, हमारे संस्कार, हमारी हिन्दी इस भागदौड़ में कहीं छूट सी गई है। मैं टूटी-फूटी अंग्रेजी जरूर जानता हूं पर आखिरकार हिन्दी बोलने से ही मुझे अपने भारतीय होने की खबर होती है। आपके ब्लॉग ने मुझे भी गंभीर किया। जहां अपनी भाषा पर गर्व होना चाहिए वहां इसे पिछडी नजरों से क्यों देखा जाता है। मगर जब तक इतिहास में महाभारत और रामायण रहेंगे तब तक संस्कृति और हिन्दी का चलन चलता रहेगा। ऐसा एक दिन जरूर आएगा जब हर बच्चा मॉम नहीं मां कहेगा। आप ऐसे ही संवेदनशील विषयों पर लिखते रहे और अपने ब्लॉग की एक प्रति उस हिन्दी की अध्यापिका को भी भेजें ताकि उसे भी महसूस हो वो कितनी आगे निकल चुकी है।

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