Saturday, September 8, 2012

नींव के असली पत्थर

प्रसंगवश

हाल ही में बेमेतरा जिले के कुमारी देवी चौबे शासकीय स्कूल, देवरबीजा में पदस्थ अध्यापक टीकाराम साहू का स्थानांतरण विद्यार्थियों को इतना नागवार गुजरा कि वे बेहद आक्रोशित हो गए। विद्यार्थी इतने गुस्से में थे कि अपने प्रिय अध्यापक का तबादला रुकवाने के लिए २१ किलोमीटर पैदल चलकर जिला मुख्यालय तक पहुंच गए और प्रशासन को ज्ञापन सौंपकर ही दम लिया। शिक्षक के प्रति विद्यार्थियों का इतना लगाव यूं ही या यकायक पैदा नहीं हुआ, बल्कि इसमें शिक्षक की लम्बी साधना, सकारात्मक सोच, मेहनत एवं दूरदृष्टि का प्रमुख योगदान रहा है। पुत्री के आकस्मिक निधन के बाद साहू की जिंदगी की दिशा ही बदल गई। पुत्री की स्मृति में उन्होंने नौ लाख रुपए खर्च करके स्कूल भवन बनवाया। यह राशि जुटाने के लिए उन्होंने अपना घर तक बेच दिया। गरीब बच्चों के लिए तो वे भगवान से कम नहीं। उनकी पढ़ाई का समस्त खर्चा भी वे अपनी जेब से वहन कर रहे थे। इस प्रकार विद्यार्थियों को अपने बच्चों तथा विद्यालय को परिवार की तरह मानने वाले शिक्षक का तबादला अखरना स्वाभाविक भी था। इसी जिले का एक और उदाहरण है, जो गुरु-शिष्य के संबंध को प्रगाढ़ करने की मिसाल पेश करता है। ग्राम बिलाई के शासकीय स्कूल में मध्यान्ह भोजन के बाद बच्चे एक-एक कर बेहोश होने लगे। उनको तत्काल अस्पताल में भर्ती कराया। गया। यह सिलसिला दूसरे दिन भी चला। मासूमों की हालत देखकर स्कूल में कार्यरत शिक्षाकर्मी निराकार पाण्डे इतने व्यथित हुए कि वे दो दिन तक बिना कुछ खाए सिर्फ चाय-पानी के सहारे बच्चों की सेवा सुश्रुषा में जुटे रहे। विद्यार्थियों के ठीक होने तथा सकुशल होकर घर लौटने के बाद ही पाण्डे अपने घर गए। उक्त दोनों घटनाक्रम यह साबित करने के लिए काफी हैं कि प्रतिस्पर्धा भरी जिंदगी के बावजूद आज भी ऐसे शिक्षक हैं, जो अपने गुरुतर धर्म का निर्वहन ईमानदारी के साथ कर रहे हैं। ऐसे ही लोग हैं, जो शिक्षा जगत में आ रही गिरावट को रोकने के लिए चट्‌टान की तरह अडिग खड़े हैं तथा प्रतिकूल हालात के बावजूद शिक्षा की अलख जगा रहे हैं। दोनों शिक्षक न केवल अपने पेशे को गौरवान्वित कर रहे हैं बल्कि मानवता एवं इंसानियत के सच्चे सेवक की भूमिका भी बखूबी निभा रहे हैं। वाकई साहू और पाण्डे का विद्यार्थियों के प्रति स्नेह एवं समर्पण अपने आप में जीती जागती नजीर है। अपने मूल्यों एवं आदर्शों से समझौता किए बगैर सरस्वती के मंदिरों में शिक्षा की लौ प्रज्वलित करने वाले ऐसे गुरुओं से बाकी शिक्षकों को भी प्रेरणा लेनी चाहिए।
बहरहाल, अर्थ प्रधान एवं भागदौड़ भरी जिंदगी में सब कुछ बदल गया है। गुरु-शिष्य के संबंध भी इससे अछूते नहीं है। मौजूदा दौर में तो गुरु-शिष्य संबंधों की मिसाल देने के लिए उदाहरण तक का अकाल पड़ जाता है। इस काम के लिए अब भी प्राचीन काल के गुरुओं एवं शिष्यों के नाम गिनाए जाते हैं। शिक्षक दिवस पर राज्य स्तर पर सम्मानित होने वाले शिक्षकों की सूची में साहू एवं पाण्डे जैसे अध्यापकों के नाम न होना वाकई किसी अचम्भे से कम नहीं है। देखा जाए तो शिक्षक सम्मान के वास्तविक हकदार तो ऐसे ही लोग हैं, एकदम नींव के असली पत्थर हैं। शासन-प्रशासन ऐसे शिक्षकों को नजरअंदाज करते रहे तो फिर शिक्षा के मूल्यों एवं आदर्शों को पुनर्स्थापित करने का सपना पूरा कैसे हो पाएगा।
 
साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 08  सितम्बर 12  के अंक में प्रकाशित।

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