बस यूं ही
- बस दो-चार दिन ही तो बाकी हैं, तुम्हारे आने में। चालीस दिन गिन-गिन के गुजार दिए मैंने अंगुलियों पे। आज इतने हो गए और इतने बाकी बचे हैं। सच में इंतजार के दिन काटना बड़ा मुश्किल काम है। इंतजार ना हो तो दिन, महीने और साल बीतते देर नहीं लगती लेकिन जब दिन तय हो तो एक-एक लम्हा भारी हो जाता है। खैर, बीते चालीस दिन में मैंने कुछ नहीं किया है। जैसा तुम छोड़ गई थी, वैसा ही है सब कुछ। कुछ नहीं बदला सिर्फ चेहरे की रंगत के सिवाय...। कमर की चौड़ाई कम-कम लग रही है। बेल्ट के घेरे में भी गेप बन गया है। बस इतना सा ही तो अंतर आया है, बाकी सब कुछ वैसा ही है...। वो पूजा की थाली, वैसी की वैसी ही है, जैसा तुम छोड़कर गई थी। हां, रोजाना नहाकर अगरबत्ती जरूर जला देता हूं लेकिन माचिस की तीलियों एवं अगरबत्तियों के अवशेषों से थाली भर चुकी है। वह गैस का चूल्हा जिसे तुम कपड़े में ढंक कर गई थी, अब भी वैसा ही है। काफी धूल जम चुकी है्र, उस पर है। और वो बर्तन जिनको धोकर तुम बड़े ही सलीके के साथ रखकर गई थी। उसी अवस्था में ही रखे हुए हैं। एक कटोरी व एक चम्मच के सिवाय मैंने किसी को हाथ नहीं लगाया। सोफे पर बच्चों के बिखरे कपड़े और किताबें आज भी वैसी ही हैं, चालीस दिन से... क्रमश:
और हां, वह तुलसी का पौधा आज भी वैसा ही हरा है। बारिश का पानी लगने से उसकी रंगत ही बदल गई है। फूटी हुई आधी मटकी को कितने प्यार से तुमने गमला बना दिया था। तेज आंधी एवं बारिश के कारण वह गमला कई बार लुढ़का है और टूट भी चुका है। मैंने कई बार उसको सीधा किया है, बड़ी ही मुश्किल से। हां, मैं रोज तुलसी में पानी देता हूं, लेकिन उसमें पानी अब कम ही ठहरता है। अंदर की मिट्टी भी कठोर होगई है। पानी अंदर जाता भी कम है। एक बार मिट्टी की खुदाई की थी लेकिन अब वह फिर दुबारा वैसी ही हो गई है। खैर, अब तुम्हारा ही इंतजार है कि ताकि इस टूटे एवं कृत्रिम गमले को फेंक कर उसकी जगह नया खरीदा जा सके। और हां, छत्त भी वैसी है, जैसी तुम छोड़कर गई थी। बारिश के कारण मिट्टी बहकर चली गई वरना, मैंने तो एक भी दिन बुहारी नहीं लगाई। पड़ोस में सड़क बनी है, इस कारण घर व छत्त पर धूल भी काफी जमा हो गई थी। खैर, बुहारी ही क्या कई मामलों में मैं आज भी आलसी हूं...। कितनी ही बार तुमने कहा है कि रोटी बनाना सीख.लो .. आप बाहर का खाना ठीक से नहीं खा पाते, लेकिन खाना बनाना बस का नहीं है। तुमने तो यह भी कहा कि बना नहीं सकते तो कम से कम घर के बाहर जो चाय का खोखा है, वहां तक ही चले जाया करो। सुबह उठकर चाय तो पी लिया करो...। लेकिन इतनी हिम्मत होती तो बना ही लेता ना... क्रमश...
अब तुम भले ही नाराज हो जाओ लेकिन पुराने अखबार की ढेर से इस बार मैंने रेसिपी वाले पन्ने बिलकुल भी नहीं निकाले। मुझे मालूम है पिछले पांच साल से तुम रेसिपी के पन्ने अखबार से निकाल कर रख सुरक्षित रख लेती हो लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। अभी दस दिन पहले की बात है मैंने सारी रद्दी बेच दी। पूरी पचास किलो हुई। खरीदने वाला भी बहुत खुश था, बोला भाईसाहब दिनभर अब भटकना नहीं पड़ेगा। तुम होती तो ऐसा हरगिज भी नहीं करने देती...। कोई नहीं थोड़े दिन की ही तो बात है, दुबारा एकत्रित कर लेना...। हां, इस बार एक बड़ा काम जरूर सीख गया हूं। करता भी क्या, चारा भी नहीं था। कहा भी गया है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। पिछले माह की ही तो बात है। एक दिन रात को अचानक मैसेज आया और कहा गया कि कल दोपहर को जयपुर के लिए निकलना है। कपड़े सारे मैले थे, रात को धोबी कहां से आता। यह तो गनीमत थी कि वाशिंग पाउडर डिब्बे में बचा हुआ था वरना पूरे अरमानों पर पानी फिर जाता। फोन पर पूरे बीस मिनट लगे थे तुमसे सारी प्रक्रिया जानने में...। वाशिंग मशीन में कितना पानी भरना है..। कितना पाउडर डालना है... कौनसा बटन कब दबाना... है। सब सीख गया। अब तो तीन बार ऐसा कर चुका हूं..। अब पूछने की जरूरत भी नहीं है। सब याद हो गया, कब क्या करना होता है..। सच में मजबूरी बहुत कुछ सीखा देती है....। .. क्रमश...
हां एक बात तो भूल ही गया था। पता नहीं तुम्हारी क्या प्रतिक्रिया होगी। खैर, आलसी होने का तमगा तो तुमने भिलाई आते ही दे दिया था। याद है ना, नए साल पर कॉलोनी में आयोजित कार्यक्रम में जब तुमको पति की एक कमजोरी बताने को कहा गया था और तुमने तपाक से मुझ पर आलसी होने का ठपा लगा दिया था। जब सार्वजनिक रूप से बदनाम ही हो गया तो फिर आलस्य कहीं दिखना भी तो चाहिए ना...। हां तो मैं कह रहा था कि बैडरूम में पिछले चालीस दिन से नहीं सोया हूं .. गर्मी ज्यादा थी। बाहर हॉल में ही कूलर लगा लिया। ज्यादा दिक्कत नहीं हुई, वहीं दीवान पर बिस्तर लगा लिया। बैडरूम का नजारा तो वैसा का वैसा ही है। वो बैड के ऊपर बच्चों के द्वारा लगाया गया कलेण्डर आज भी वैसे ही लटका हुआ है। एक तरफ से उखडा हुआ है। मैंने उसको फिर से नहीं चिपकाया है। और वह दीवार पर टंगा कलेण्डर आज भी अप्रेल का पन्ना ही दिखा रहा था। घर जाने की खुशी में हम वो पन्ना पलटना ही भूल गए थे। और उसके बाद अप्रेल क्या... मई भी बीत गया और अब जून भी बीतने को है..। बैडरूम की वो खिड़कियां जो तुम बंद करके गई थी आज भी बंद ही हैं। खिड़की खोलकर बाहर का नजारा देखने की कभी इच्छा भी नहीं हुई। हां महीने भर से बैडरूम में जरूर जा रहा हूं.. कम्प्यूटर जो लगवा लिया है। तन्हाई का मौसम गुजारने में वो मेरा सबसे कारगर सहारा बना... क्रमश...
बात गैस चूल्हे की ही नहीं है, वो कूकर का ढक्कन भी तो दीवार पर उसी तरह टंगा हुआ है, जैसा तुम छोड़ कर गई थी। वह कैंची.... व मोबाइल का चार्जर भी वहीं के वहीं पर हैं। मैंने उनको हाथ नहीं लगाया है। और वो बड़ा सा स्टील का डिब्बा जिसमें ऑटा रखा है, मैंने उसको आज तक खोल कर नहीं देखा है। पता नहीं किस हाल में होगा। तुम ही कहती हो कि ऑटा ज्यादा पुराना हो जाए तो उसमें इल्लियां पड़ जाती हैं। हो सकता है पड़ गई हों, अब यह सब तुमको ही देखना है आकर। अरे हां खिड़की में रखा वह बड़ा सा शीशा भी वैसे का वैसा ही है। हो सकता है उस पर धूल जमी हो... पता भी कैसे चले... मैंने उसको छूकर भी नहीं देखा...। टीवी भी उसी हाल में है। उसका देखने की फुर्सत ही नहीं मिली। घर तो कहने भर का है। अधिकतर समय तो आफिस में ही गुजर रहा है। बस आधी रात बाद लौटने तथा खाने व सोने के अलावा फिलहाल घर पर और कोई काम भी नहीं है। हां टीवी की जगह अब कम्प्यूटर ने ली है। लेकिन उस पर बैठना भी तो तभी हो पाता है जब फुर्सत हो...। घंटे-आधा घंटे के लिए मेल एवं फेसबुक अपडेट चैक कर लेता हूं...। याद आया, वो पानी से भरी मटकी रिस-रिस कर आधी से ज्यादा सूख गई है लेकिन मैंने कभी उसको ना तो भरा और उसका पुराना पानी निकाला। दो चार पानी की बोतलें दो-चार दिन से भरकर फ्रीज में रख देता हूं..। फ्रीज भी खाली ही पड़ा है। इसको भी शायद तुम्हारा ही इंतजार है। कितना सामान ठूंस देती हो तुम फ्रीज में.. खोलते वक्त भी बड़ी सावधानी बरतनी पड़ती है, लेकिन फिलहाल ऐसा कुछ नहीं है। फ्रीज को ठंडा करने का पैमाना तुम एक नम्बर पर करके गई थी, उसको जरूर मैंने दो पर कर दिया है। पानी कुछ कम ठण्डा हो रहा था..., बाकी कुछ नहीं छेड़ा है। फ्रीज पर रखी अपनी वो फोटो भी उसी अंदाज में रखी हुई है। फ्रीज खोलते-बंद करते वक्त वह एक दो बार गिरी लेकिन उसको फिर ठीक से जमा दिया..। बस इतना सा काम जरूर किया है....क्रमश:
सब कुछ वैसा का वैसा ही है लेकिन एक परिर्वतन और आ गया है मेरे में। मुझे मालूम है यह परिवर्तन तुमको बेहद खुशी देगा। सुबह बिना कुछ खाए आफिस जाने की मेरी को आदत लेकर अपने बीच कितनी ही बार बहस हुई है। मैं लेट होने का बहाना बनाकर हमेशा जल्दी निकलने का प्रयास करता और तुम....तुमको तो जैसे लेट से कोई मतलब ही नहीं है। कहती दो-चार मिनट लेट हो गए तो कौनसा पहाड़ टूट जाएगा। एक भी दिन ऐसा नहीं बीता जब तुमने बिना नाश्ता करवाए हुए आफिस भेजा हो। गांव में तुमको एवं बच्चों को जब छोड़कर जब वापस भिलाई आया तो तुमने लड्डू बनाकर दे दिए थे। और उसी अंदाज में कहा था कि सुबह खाली पेट आफिस मत जाना... । सच में लड्डुओं से काफी सहारा मिला लेकिन टिफिन का खाना खाकर मैं कहां रंजने वाला था, लिहाजा लड्डू किसी दिन ज्यादा भी खा लिए..। आखिर लड्डुओं का क्या दोष.. वो तो सीमित मात्रा में थे। बीस दिन पहले ही खत्म हो गए। लेकिन अब सुबह हल्का-फुल्का नाश्ता करके घर के आफिस जाने की आदत और अधिक मजबूत हो चुकी है। मैंने उसका भी विकल्प खोजा है और फल लाकर रख लेता हूं..। सुबह आफिस जाने से पहले उनका सेवन करना अब रोजमर्रा का हिस्सा बन चुका है। यह अलग बात है बीस दिन नाश्ते में सिर्फ फलों का ही सहारा है। तुम पास हो तो ऐसा कब होता है। रोजाना कुछ नया करने का आइडिया दिमाग में चलता ही रहता है। तभी तो सातों दिन अलग-अलग नाश्ता मिल जाता। इधर, सुबह-शाम के भोजन की बात ही मत पूछो.. बस पेट भरने के लिए खाना है, यह सोचकर खाता रहा...। टिफिन वाले ने तो दही या छाछ देने से इनकार कर दिया। रुखा-लूखा खाने की तो बचपन से ही आदत नहीं रही। इसीलिए तो आजकल बाजार से रोजाना दही लेकर आ रहा हूं.. दो टाइम चल जाता है। सच में अगर दही वाला आइडिया दिमाग में नहीं आता तो.. हालात और भी खराब हो जाती...। इतना कुछ करने के बाद भी दो दिन बार तो आधी-अधूरी भूख के साथ ही सोना पड़ा। तुम होती तो ऐसा बिलकुल नहीं होता.... क्रमश..।
और बैडरूम में लगी वो मच्छरदानी तो हमने उसी वक्त हटा दी थी जब हम गांव के लिए रवाना हुए थे। वापस आया तो गर्मी इतनी हो गई थी कि अंदर मच्छर गायब से हो गए थे। बाहर छत्त पर जरूर उनका साम्राज्य कायम था और अब भी है। वैसे अंदर सोने के कारण मच्छरदानी लगाने की जरूरत ही नहीं पड़ी। ईमानदारी की बात तो यह है कि उसको लगाने में कितनी कसरत करनी पड़ती है। अब इतनी मशक्कत कौन करे... यही सोच कर मैंने मच्छरदानी को छेड़ा तक नहीं..। बारिश का मौसम एवं आंधी अंधड़ आने के कारण इन दिनों बिजली ने बहुत परेशान किया..। तुम्हारे जाने के बाद दो रातें ऐसी गुजरी हैं जब मच्छरों की वजह से ठीक से सो नहीं पाया हूं..। एक दिन तो जैसे ही आफिस से आया और कमरे की कुण्डी खोली और बिजली गुल। मोबाइल की हल्की सी रोशनी में मोमबत्ती का वह आधा टुकड़ा इधर-उधर देखने के बाद बड़ी मुश्किल से मिला। वो पूरा जल गया लेकिन बिजली नहीं आई। देर रात मोमबत्ती कहां से लाता। पड़ोसी के पास जाकर दो मोमबत्ती मांग कर लाया। उसके बाद अगले दिन तो पूरा पैकेट खरीद कर ले आया...। हां मच्छरदारनी की बात चल रही थी। वो हुआ यूं कि बिजली गुल होने पर होने पर अंदर गर्मी का भभका इस कदर था कि लेटना तो क्या बैठना तक मुश्किल हो रहा था। खाना खाया तब तक पसीने में सरोबार हो गया। तकिया एवं दरी लेकर बाहर छत्त पर आया तो मच्छरों की फौज इस कदर पीछे पड़ी जैसे वो मेरा ही इंतजार कर रही हो। अंदर जाकर पतली चद्दर लेकर आया लेकिन बाहर का मौसम भी चद्दर ओढऩे की अनुमति नहीं दे रहा था। सच में मुझे इस दिन तुम्हारी बहुत याद आई। तुम होती तो रात आंखों में नहीं बल्कि आराम से सो कर गुजरती। याद है एक बार पहले भी ऐसा हुआ था, तो तुमने छत्त पर पता नहीं इधर-उधर से रस्सी जोड़कर मच्छरदानी टांगने का जुगाड़ कर दिया था.... लेकिन मैं यह जुगाड़ कर नहीं पाया और रात भर मच्छरों से लड़ता रहा....। क्रमश...।
और हां, तुम्हारे होने और न होने का फर्क बस मैं ही जान सकता हूं और कोई नहीं...क्योंकि जो भुक्तभोगी होता है, वह बेहतर जानता है। हो सकता है तुम्हारे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा हो लेकिन फिर भी हमारे हालात एवं प्रतिस्थितियों में दिन रात का अंतर है। मेरी तन्हाई वास्तव में तन्हाई है और तुम तन्हा होकर भी तन्हा नहीं हो। वो इसलिए क्योंकि... तुम्हारे पास बच्चे हैं, परिजन हैं, परिचित हैं, रिश्तेदार हैं। इतने लोगों के बीच वक्त कैसे गुजर जाता है तुमको भी पता होगा। और इधर, मेरा वक्त.. बस कुछ मत पूछो। लोग आफिस से जाने से जी चुराते होंगे लेकिन फिलहाल मेरे को तो घर से बेहतर आफिस ही लगता है। काम में व्यस्तता की वजह से तन्हाई महसूस ही नहीं होती है लेकिन आफिस से लौटने के बाद... टीवी और कम्प्यूटर ही तन्हाई के साथी हैं। बिजली चली जाए तो एक-एक लम्हा गुजारना भी मुश्किल हो जाता है। और आजकल नींद भी पता नहीं कहां चली गई है। तुम्हारे रहते तो कई बार मेरी दोनों मोबाइल के अलार्म से भी आंख नहीं खुल पाती थी। शायद जेहन में यह भरोसा था कि देरी नहीं होगी...। मैं जागूं ना जागूं तुम जाग जाओगी और उठा दोगी.. यह बात दिमाग में हो तो फिर नींद इत्मिनान के साथ ही आएगी ना। तभी तो बच्चों को स्कूल बस छोडऩे के बाद फिर अक्सर सो लेता था, तुम्हारे आने के बाद शायद यह क्रम फिर शुरू हो जाए... लेकिन अब का आलम तो यह है कि इत्मिनान की नींद सोए मुद्दत हो गई है। एक अनजाना सा भय रहता है, कहीं आफिस पहुंचने में देर ना हो जाए...। कहीं देर तक सोया हुआ ना रह जाऊं, इसी भय के चलते कभी-कभी तो सुबह चार-बजे भी आंख खुल जाती है। घड़ी ठीक दीवान के ऊपर है। जब भी आंख खुलती है तो बरबस नजर उसी को और उठ ही जाती है। कैसी विडम्बना है, अकेला होने के बाद भी चैन की नींद को तरस रहा हूं..। कभी सुबह की मीटिंग से जल्दी फारिग हो जाता हूं तो भी अकेलापन एवं घर का सन्नाटा डराता रहता है... ऐसे में नींद कहां... और चैन कहां.... क्रमश...।
देखो ना.. बच्चों के दिन में शोर के बावजूद भले ही थोड़ी देर के लिए लेकिन मैं कितना निश्चिंत होकर सो लेता था। मेरी इस आदत से तुम कितनी ही बार मेरे से चिढ़ गई। बार-बार एक ही शिकायत... अजीब आदमी हो इतने शोर में भी घोड़े बेचकर सो जाते हो...। दरअसल यह तुम्हारी पीड़ा है, क्योंकि तुम ऐसे माहौल में सोने की आदी नहीं हो...मैं भी नहीं था लेकिन खुद को समय के साथ ढाल लिया। वक्त ही कितना है.. और जो मिलता है वह टुकड़ों में... खैर अब किसी तरह का शोर नहीं है... अजीब सी खामोशी है... बिलकुल सब ठहरा हुआ सा लगता है। हर तरफ शांति है। इतना शांत माहौल कि पिन भी गिराओ तो आवाज आएगी... लेकिन फिर नींद नहीं है। सच में एकांतवादी होना भी कितना चुनौतीपूर्ण काम है। कभी यह आलम था कि एकांत से बेहतर कोई विकल्प ही दिखाई नहीं देता है... और अब यह आलम है कि एकांत से भी डर लगने लगा है। एकांतवाद के पक्षधरों एवं हिमायतियों के पास अपने-अपने तर्क होंगे लेकिन हकीकत यह है कि पारिवारिक सुख भोगने के साथ यकायक एकांतवादी हो जाना किसी सजा से कम नहीं है। मेरा अनुभव तो यही कहता है... और वह भी तब तब आप अपनी माटी एवं अपने लोगों से दूर हो...। अपनों से कटने तथा माटी से दूर होने का दर्द भी अगर शिद्दत के साथ महसूस किया जाए तो एकांत में ही होता है। अजनबी शहर एवं अजनबी चेहरों के बीच रहने और काम करने का हौसला भी तो सबसे पहले परिवार से ही मिलता है। ऐसे प्रतिकूल में हालात में अगर कोई एकांकी जीवन गुजारे तो कल्पना मात्र से मन सिहर उठता है। भावनाओं के तूफान में हिचकोले खाते हुए देखो ना मैं कैसे दार्शनिक अंदाज में बह गया... पता ही नहीं चला..। आखिरकार लब्बोलुआब यही निकलता है कि व्यक्ति की पहचान, उसका हौसला, उसका सहारा और उसका सम्बल उसके परिवार से ही है। घर की रौनक परिवार से है। वैसे भी अकेले और जड़ों से कटे आदमी और जानवर में मेरे को तो कोई बड़ा अंतर नजर नहीं आता.. क्रमश...
सुबह की शुरुआत चाय के साथ करने की तो पुरानी आदत रही है। बचपन से ही। पहले मां चाय बनाकर उठाया करती पढऩे के लिए। वैसे सुबह जल्दी उठकर चाय बनाने का क्रम गांव में आज भी जारी है। मां आज भी सबसे पहले ही उठती है और सबको चाय बनाकर पिलाती है। और इधर तुम...तुम भी तो कमोबेश ऐसा ही करती हो..। तभी तो पहली चाय बिस्तर में ही हो जाती है। आफिस जाते-जाते तो दूसरी भी बन जाती थी। तुमने कभी मना नहीं लिया... भूल से कभी मेरे को दूसरी याद नहीं रही तो तुमने ही पूछा, चाय नहीं लोगे क्या...। याद है ना एक दो बार तुमने भी कहा था, कभी तो आप भी चाय बना लिया करो...। और कुछ ना सीखो कम से चाय तो सीख लो। हम भी तो देखें कैसी चाय बनाते हो...। और मैंने न जाने कितनी ही बार तुम्हारे प्यार भरे आग्रह को बड़ी ही बेफिक्री वाले अंदाज में टाल दिया। लेकिन मेरा यह व्यवहार शायद ही तुमको नागवार गुजरा होगा। वैसे एक-दो बार तो चाय बनाने की कोशिश जरूर की है... और भी बनाई भी... लेकिन बात फिर वही आलस्य वाली आ जाती है। पता नहीं क्या हो गया है, गृहस्थी का काम मैं उतने उत्साह एवं रुचि के साथ नहीं कर पाता हूं जितना आफिस का करता हूं। घर आने के बाद भी आफिस से संबंधित न जाने कितने ही फोन आते हैं, उनमें कितना वक्त लगता है, लेकिन तुम बिना किसी शिकायत के चुपचाप अपने काम में तल्लीन रहती हो। क्रमश...11.मुझे अच्छी तरह से मालूम है कि अंगुलियों पर दिन गिनने से न तो वे जल्दी बीतते हैं और ना ही कम होते हैं। वक्त तो अपने हिसाब से ही चलता है। फिर भी झूठी दिलासा समझो या मन को बहलाने का शगल.. रोजाना इतने गए... इतने शेष रहे की गिनती चलती ही रहती है। 43 दिन गुजर गए...। वैसे तो तुमको भिलाई से गए 62 दिन हो गए लेकिन बीच में एक मीटिंग के सिलसिले में जयपुर आया तो फिर दो दिन गांव रुक गया था। 8 मई को मैं भिलाई लौट आया था। यह दिन कैसे बीते हैं, कोई भुक्तभोगी ही बता सकता है। खैर, अब तो एक दिन से भी कम समय शेष रहा है...। अगले पांच दिन भी बड़ी व्यस्तता भरे हैं। लगातार सफर ही सफर.... शुक्रवार सुबह दिल्ली पहुंचने के बाद इसी दिन रात को जोधपुर की गाड़ी पकडऩी है। 22 जून सुबह जोधपुर पहुंच जाऊंगा। शादी के नौ साल के बाद संभवत: यह पहला ही मौका होगा जब शादी की वर्षगांठ ससुराल में मनाऊंगा। वैसे तो सिर्फ पहली वर्षगांठ को छोड़कर हमने सारी वर्षगांठ साथ-साथ ही मनाई है। इस बार ससुराल का संयोग भी बना है... यह सब अकस्मात ही हो गया.. क्योंकि रेल में आरक्षण तो मैं 15 जून से ही करवाना चाह रहा था... बच्चों की स्कूल जो शुरू हो गई है, लेकिन वेटिंग-वेटिंग... देखते-देखते आगे बढ़ता गया.. तब जाकर यह आरक्षण संभव हो पाया है। वह भी टुकड़ों में... पांच दिन बाद जब वापस भिलाई पहुंचेंगे तो कोई बड़ी बात नहीं कि थकान से कमर टेढ़ी हो जाए... क्रमश:
- बच्चों की पढ़ाई से याद आया...। पिछले साल भी तो कुछ ऐसा ही हुआ था। याद है बिलासपुर से जब भिलाई तबादला था। इसके बाद बच्चों का दाखिला करवाते-करवाते पूरा जुलाई बीत गया था। करीब दो माह का होमवर्क पेंडिंग रह गया था। मासूम बच्चे इतना सारा काम कैसे करते। वो रुटीन का होमवर्क करें या फिर पेंडिंग को निबटाए.. मेरे को तो यही चिंता सताए जा रही थी लेकिन तुमने तुमने देखते-देखते ही चुटकियों में होमवर्क का काम पूरा कर दिया। कहने भर को इस काम में थोड़ी बहुत मदद मैंने भी की थी लेकिन सारा काम तुम्हारा ही था। पुस्तकों पर जिल्द चढ़ाने से लेकर उनके रखरखाव तक की जिम्मेदारी भी तुम्हारे ही जिम्मे है। बीते सत्र में एक दिन भी ऐसा नहीं था जब मैंने बच्चों को होमवर्क करवाया हो... उनको होमवर्क करवाने से लेकर परीक्षा के दौरान तैयारी करवाने तक का सारा काम तुमने ही तो देखा था...। वैसे भी तुमको पढ़ाने का अभ्यास ज्यादा ही है और बाकायदा पढ़ाने की डिग्री भी है। शादी के बाद जॉब करने की इच्छा तो तुम्हारी भी थी लेकिन मैंने ही मना कर दिया..। याद है ना मैंने कहा था कि बच्चे जब तक सक्षम नहीं हो जाते.. वे खुद उठकर नहाकर स्कूल जाने लग जाए तब कहीं जाकर जॉब करने की सोचना... ऐसा न हो कमाई के चक्कर में हम बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ कर बैठें...। खैर, मेरी बात तुम मान गई। अरे याद आया, इस बार भी तो बच्चे ज्यादा तो नहीं सप्ताह भर जरूर लेट हो जाएंगे। सात दिन का बकाया होमवर्क भी तो तुमको ही देखना... पिछले साल भी तो देखा था... क्रमश
एक बात और एकांकी आदमी भले ही रचनात्मक काम से ना जुड़ा हो लेकिन दिमाग में विचारों का द्वंद्व तो चलता ही रहता है। वह भूत-भविष्य के बारे में सोचता ही रहता है। कई तरह की कल्पनाएं करता है.. सुनहरे सपने देखता है..। इस बार एकांकीपन में मैंने भी कई बार सोचा... कई तरह की कल्पनाएं की हैं, कई सपने बुने..। खुद के बारे में भी और तुम्हारे बारे में खूब सोचा। न जाने कितनी ही बार घरेलू कामकाज को लेकर आपस में तुलना कर बैठा। केवल घर के मामलों में मेरे आलसी स्वभाव को लेकर अपनी कई बार स्वस्थ बहस हुई है...। लेकिन कभी झगड़े में तब्दील नहीं हुई है। मेरा मानना है यह सब अपने स्वभाव की समानता एवं परिवार से मिले संस्कारों का ही प्रतिफल है। वैसे भी यह चापलूसी या मस्का लगाने वाली बात नहीं है और ऐसा करना मेरी आदत भी नहीं है। मैं कई बार सोचता हूं... अगर तुम भी मेरी तरह घर के मामले में उतनी ही आलसी होती तो क्या गृहस्थी की गाड़ी आज जिस अंदाज में सुचारू चल रही है, वैसे चल पाती..। सच में अगर तुम मेरी ही तरह होती तो यकीनन गृहस्थी का गाड़ी का संतुलन बिगड़ता और वह हिचकोले ही खाते ही रहती..। मुझो खुशी इसी बात की है कि मेरी इस कमजोरी को... मेरे इस आलस्य को तुमने दिल पर बिलकुल नहीं लिया...। जीवन के प्रति सकारात्मक सोच एवं वर्तमान में जीने का अंदाज ही तुम्हारी सबसे बड़ी पूंजी है.. और मेरा सौभाग्य.. और यह सब होना या मिलना किस्मत की बात है... ऊपर वाले के हाथ है....क्रमश..।
भले ही कोई मेरी बात से संतुष्ट या सहमत ना हो लेकिन मेरा मानना है कि एकांकी आदमी ज्यादा सोचता है। वह अपनी तन्हाई में भी मनोरंजन के रास्ते खोजता है। मेरे को देखो ना.. वैसे भी काम लिखने-पढऩे का ही है... लेकिन वह निजी जिंदगी में भी रच-बस गया है। अक्सर ऐसा होता भी है। जॉब का असर निजी जिदंगी में कहीं न कहीं परिलक्षित होता ही है। पिछले साल भी तो कुछ ऐसा ही हुआ था। याद करो... तुम को गांव छोड़कर जब मैं बिलासपुर आया और पहले दिन तुमको मोबाइल पर मैसेज भेजा था। दिल की बात मैंने चार लाइन की रुबाई के माध्यम से व्यक्त की थी। तुमने हौसला क्या बढ़ाया वह तो रोजाना का हिस्सा बन गया। लगातार तीस दिन तक मैंने तुकबंदी कर-करके रुबाइयां लिखी और प्रतिदिन तुमको मैसेज भी भेजे। मोबाइल का सेंटबॉक्स फुल हो जाने के कारण मैंने वह सारी रुबाइयां एक डायरी में लिख ली थी। मोबाइल में ज्यादा दिन तक नहीं रख सकता.. वह मल्टीमीडिया नहीं है। बिलकुल साधारण सा होने के कारण उसकी मैमोरी भी ज्यादा नहीं है। खैर, डायरी में लिखने से दिल नहीं भरा तो उनको मैंने अपने ब्लॉग पर भी डाल लिया था। चूंकि इस बार हालात ऐसे बने नहीं...। व्यस्तता के चलते इस दिशा में देर से सोचा...। वह भी तब जब भिलाई से जोधपुर रवाना होने में मात्र तीन-चार दिन का समय शेष रह गया। लेकिन मुझे लगता है इस बार काम रुबाइयों से अधिक प्रभावी हैं.. हां एक बात और यह पोस्ट तुम लगातार पढ़ भी पा रही हो... तुमको मैंने फेसबुक से जो जोड़ दिया है। एक दो पोस्ट पर तो तुमने कमेंट भी कर दिए हैं..। कपड़े धोने की बात पर लगता है तुम ज्यादा ही खुश हो..। लेकिन मेरी आदत से तो तुम परिचित ही हो.. तुम्हारे आने के बाद मेरा द्वारा कपड़े धोने पर विराम लगना तो तय सा ही है.. क्रमश....
अब देखो ना... तन्हाई को सार्वजनिक करने से लोग डरते हैं। अंदर ही अंदर घुटते रहते हैं। शर्माते हैं...बस जेहन में एक ही सवाल.. पता नहीं लोग क्या सोचेंगे। इसमें डरना किस बात का है। मैंने जब से यह पोस्ट फेसबुक पर लगाई है तब से परिचितों एवं दोस्तों के काफी सुझाव मिल रहे हैं। इतना ही नहीं कई अजनबी भी बेझिझक अपनी राय दे रहे हैं। वैसे भी मैं तो साफ दिल का आदमी हूं... स्पष्ट व सच मुंह पर कहना मेरी फितरत है। तुम तो जानती ही हो..। मैं जीवन को रहस्यमयी तरीके से जीने का आदी कभी नहीं रहा। हमेशा खुली किताब की तरह जिंदगी बिताने के दर्शन में ही विश्वास करता आया हूं। बनावटीपन व दिखावा तो बिलकुल भी पसंद है नहीं...। विशुद्ध रूप से गांव का आदमी हूं... इसलिए अंदर-बाहर का भेद भी अपनी समझा से बाहर है। इसीलिए तो दुराव या भेदभाव जैसे शब्दों से भी अभी तक अछूता ही हूं..। बिलकुल कोरा... सफेद कागज की तरह...। मेरा मानना यह भी है कि चाहे सुख हो या दुख दूसरों के साथ साझा जरूर करना चाहिए....। बांटने से खुशी कम नहीं होती है.. लेकिन पीड़ा को बांटने से उसका एहसास हल्का जरूर हो जाता है। कुछ तसल्ली मिल जाती है..। मैंने भी अपनी तन्हाई रूपी पीड़ा सभी के साथ बांटी...। इसके बदले में जो आनंद की जो अनुभूति हुई वह मैं ही जानता हूं..। तुम्हारा गांव जाना तय था... इतने दिन मेरा अकेले रहना तय था। ऐसे में मैं अकेला अंदर ही अंदर घुटता रहता.. कूढ़ता रहता... तो सोचो जीवन क्या ऐसा होता.. क्या ऐसा लिख पाता.. शायद नहीं..। कहा भी गया है कि सोच बदलने से सितारे बदल जाते हैं। खैर, भावनाओं का प्रवाह ही ऐसा है कि फिर दार्शनिकों जैसी बातें कर रहा हूं..। हमारी-तुम्हारी बातें कहां से शुरू हुई और कहां तक पहुंच गई...। कहीं यह पराकाष्ठा तो नहीं... क्रमश...।
करीब डेढ़ माह ससुराल में बिताने के बाद पिछले 19 दिन से तुम मायके में हो...। ससुराल और मायके की भूमिका में फर्क बहुत होता है। जमीन-आसमान का। ससुराल की सीमाएं.. हैं मर्यादाएं.. हैं और अति व्यस्तता के चलते फोन पर तुमसे बात भी ठीक से नहीं हो पाती थी। लेकिन मायके में आकर तुम परिवार के बीच इतना खो गई कि कई बार मेरे को ऐसा आभास हुआ जैसे मैं गौण हो गया हूं...। फिर भी देर-सवेर तुम फोन जरूर करती हो। वैसे भी परिवार के बीच रहकर तुम भले ही कुछ ना करो.. उनके बीच में रहना भी तो किसी व्यस्तता से कम नहीं है। मेरे साथ भी तो यही होता है जब गांव जाता हूं..। वैसे फोन पर तुमसे जो नियमित वार्तालाप होता है...उससे लगता है कि तुम फेसबुक अपेडट भी चैक करती रहती हो.. फिर भी कभी-कभी न जाने क्यों एक पल ऐसा भी लगता है कि मैं इतनी मेहनत करके बड़ी ही तल्लीनता के साथ दिल से लिख तो रहा हूँ लेकिन क्या तुम पढ़ भी रही हो..। ऐसा संभव हो भी सकता है, क्योंकि मायके का माहौल, काम से आजादी और अपनों के बीच हंसी-ठहाकों के दौर के बीच ना चाहते हुए भी व्यस्तता बढ़ जाती है। यह सब इसीलिए कह रहा हूं क्योंकि फेसबुक पर मैंने अपने एकांकीपन की जो बातें सार्वजनिक की हैं और उन पर जो प्रतिक्रिया आ रही है.. वो सब एक से बढ़कर एक.. हैं। सब अपने-अपने अंदाज में उसको परिभाषित कर रहे हैं। उसके मायने निकाल रहे हैं। मेरे को कई तरह की उपमाएं दी जा रही हैं। एक साथी ने तो तुलसीदास तक से तुलना कर दी.. कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली... खैर, यह सब तुम्हारा, दोस्तों, परिचितों एवं जानकारों को स्नेह है जो इस रूप में प्रदर्शित हो रहा हैं। सभी का आभार जताते हुए और अगले विषय की खोज में फिलहाल मैं इस एपीसोड पर अब यहीं विराम लगाता हूं..। एक बार पुन: सभी को मेरी तन्हाई का न केवल राजदार बनाने के लिए बल्कि हौसला बढ़ाने के लिए...।धन्यवाद।
Thursday, June 20, 2013
तुम बिन....
Sunday, May 26, 2013
लोकप्रियता का खेल
टिप्पणी
चुनावी साल है, इसलिए लगे हाथ अरबों रुपए के विकास कार्यों का भूमिपूजन भी धड़ाधड़ हो रहा है। लेकिन जिन कार्यों का भूमिपूजन हो रहा है, वे कब पूरे होंगे, उनकी समय सीमा क्या है, यह बताने की स्थिति में कोई नहीं है। फिलहाल तो सरकार का एकसूत्री कार्यक्रम भूमिपूजन कर तात्कालिक वाहवाही बटारेने का ही दिख रहा है। प्रदेश में ऐसे विकास कार्यों की लम्बी फेहरिस्त हैं, जिनका भूमिपूजन या घोषणाएं हुए तो मुद्दत हो गई लेकिन वे आजतक अमलीजामा नहीं पहन पाए। कई जगह तो भूमिपूजन के पत्थर तक गायब हो गए और घोषणाएं हवा-हवाई साबित हुई। भिलाई एवं दुर्ग शहर भी इस प्रकार के भूमिपूजनों एवं घोषणाओं से अछूते नहीं है। प्रदेश के स्वास्थ्य एवं चिकित्सा मंत्री शनिवार को खुर्सीपार में प्रस्तावित दस बिस्तर वाले अस्पताल के जच्चा-बच्चा केंद्र का उद्घाटन करने आ रहे हैं। अस्पताल बाद में शुरू होगा, पहले जच्चा बच्चा केन्द्र शुरू होगा। इस अस्पताल का भूमिपूजन भी पांच साल पहले हो गया था। इसके भवन निर्माण के लिए दानदाताओं ने भी सहयोग किया था, फिर भी प्रदेश सरकार को यहां तक आने में पांच साल का लम्बा वक्त लग गया और अब तक भी काम पूर्ण नहीं हुआ है। प्रदेश के मुखिया की घोषणा की सबसे बड़ी बानगी तो भिलाई का लाल बहादुर शास्त्री शासकीय अस्पताल सुपेला ही है, जहां पांच साल पहले की गई घोषणा के बाद भी सुविधाओं एवं संसाधनों में आज तक विस्तार नहीं हुआ है।
बहरहाल, सस्ती लोकप्रियता पाने या तात्कालिक वाहवाही बटोरने की मंशा से जनता का भला नहीं होने वाला। प्रदेश के मुखिया एवं उनके मातहत अगर वाकई कुछ करने की हसरत रखते हैं तो उनको सबसे पहले कथनी एवं करनी के भेद को खत्म करना होगा। भूमिपूजन के पत्थर लगाकर भूलने की बीमारी का इलाज भी जरूरी है, क्योंकि भूमिपूजन करके पत्थर लगा देने या अस्पताल खोलने भर से ही पीडि़तों को राहत नहीं मिलती। जरूरी है उनमें पर्याप्त स्टाफ हो, संसाधन हो। अगर यह सब नहीं होता है तो फिर 'विकास' का नारा व 'विकास यात्रा' दोनों ही बेमानी है।
साभार - भिलाई पत्रिका के 25 मई 12 के अंक में प्रकाशित।
Monday, May 20, 2013
तुम्हारा रिश्ता क्या है?
बस यूं ही
ट्रेन दुर्ग रेलवे स्टेशन से नागपुर के लिए रवाना हुई थी कि डिब्बे में टीटीई आ गया। बारी-बारी से सबकी टिकटें चेक की। मैंने बताया था कि मेरी टिकट दूसरे टीटीई के पास है और उनका नाम पार्थो सरकार है। मेरा जवाब सुनकर वह संतुष्ट हो गया। इसके बाद युवक की तरफ मुखातिब हुआ तो युवक ने जेब से ई-टिकट निकाली। टीटीई ने जब युवती से टिकट मांगा तो उसने सामान्य डिब्बे का टिकट दिखाया। टीटीई यह सब देखकर ऊंचे लहजे में बोला, अरे आप, इस डिब्बे में कैसे? आपके पास तो टिकट सामान्य डिब्बे का है। उठिए, आप अपने डिब्बे में जाइए। टीटीई की बात सुनकर युवक एवं युवती दोनों के चेहरों का रंग पीला पड़ गया। थोड़ी हिम्मत जुटाकर युवक बोला हम एडजस्ट कर लेंगे। टीटीई, युवक का जवाब सुनकर सकपकाया और बोला, भला ऐसे कैसे हो सकता है। तो फिर बोला, प्लीज अंकल देख लीजिए ना, कह रहा हूं कि हम बर्थ पर एडजस्ट हो जाएंगे। टीटीई फिर बोला, भइया सीट पर एडजस्ट तो हो जाओगे लेकिन इस डिब्बे में बैठने के लिए जुर्माना लगेगा, आपकी रसीद कटवानी पड़ेगी। युवक ने जिज्ञासावश रसीद की राशि के बारे में पूछा तो टीटीई ने जेब से रेट कार्ड निकाला, हिसाब-किताब लगाकर बोला 1105 रुपए लगेंगे और दोनों को एक ही सीट पर बैठना पड़ेगा। अलग से कोई सीट नहीं मिलेगी। संभवत: नागपुर में टीटीई बदल जाए तो उसकी कोई गारंटी नहीं है। अगर कोई आए तो आप उससे निवेदन कर लेना। 1105 रुपए का नाम सुनते ही युवक बगले झांकने लगा। युवक संभवत: नौसिखुआ था, वह टीटीई के अंदाज को सही तरह से भांप नहीं पाया। टीटीई भी बार-बार पूछने लगता, क्या सोचा, क्या-सोचा? जल्दी करो, जल्दी करो।
करीब पन्द्रह बीस मिनट बाद युवक हिम्मत करके बोला आप रसीद काट दीजिए। इसके बाद युवक ने अपना पर्स निकाला तो उसमें सौ-सौ के दो चार नोट थे। बाकी छोटे नोट थे। चूंकि युवक को अपने पर्स का अंदाजा था, इसलिए कभी वह उसको खोलकर देखे तो कभी बंद कर दे। युवती चुपचाप यह माजरा देख रही थी। वह समझ गई थी कि मामला पैसे पर अटक रहा है। उसने बिना देरी किए तत्काल एक हजार रुपए का नोट निकालकर युवक को थमा दिया।
टीटीई ने तत्काल पैसे गिने और रसीद थमाकर अगले केबिन की ओर चला गया। इधर, युगल पर टिप्पणियों की बौछार होने लगी। रसीद के पैसे पर सभी ने कहा कि बिलकुल मंगल हो गया है। इसके बाद युगल और भी खुलकर बातें करने लगे। दरअसल, युवक मूलत: ओडिशा का रहने वाला था और रायपुर में ही उसने पढ़ाई की और यहीं पर बीपीओ में नौकरी करने लगा। जैसा कि युवक ने बताया कि युवती भी उसके साथ ही काम करती है। युवक किसी साक्षात्कार के सिलसिले में इंदौर जा रहा था। सफर में बोरियत ना हो लिहाजा वह युवती को भी साथ ले आया। उनके तौर-तरीकों एवं टिकट देखने से यह तो अंदाजा हो गया था कि युवक का कार्यक्रम पहले से तय था जबकि युवती का आनन-फानन में ही बना था। सुबह यह युगल भोपाल रेलवे स्टेशन पर उतरा। इस दौरान रोचक वाकया यह हुआ कि पूरे घटनाक्रम को देखने वाला रायपुर का एक सिंधी युवक आखिरी में युवक से पूछ बैठा, यार तुम्हारा रिश्ता क्या है?। सिंधी के सवाल पर केबिन में ठहाके गूंज उठे।ट्रेन दुर्ग रेलवे स्टेशन से नागपुर के लिए रवाना हुई थी कि डिब्बे में टीटीई आ गया। बारी-बारी से सबकी टिकटें चेक की। मैंने बताया था कि मेरी टिकट दूसरे टीटीई के पास है और उनका नाम पार्थो सरकार है। मेरा जवाब सुनकर वह संतुष्ट हो गया। इसके बाद युवक की तरफ मुखातिब हुआ तो युवक ने जेब से ई-टिकट निकाली। टीटीई ने जब युवती से टिकट मांगा तो उसने सामान्य डिब्बे का टिकट दिखाया। टीटीई यह सब देखकर ऊंचे लहजे में बोला, अरे आप, इस डिब्बे में कैसे? आपके पास तो टिकट सामान्य डिब्बे का है। उठिए, आप अपने डिब्बे में जाइए। टीटीई की बात सुनकर युवक एवं युवती दोनों के चेहरों का रंग पीला पड़ गया। थोड़ी हिम्मत जुटाकर युवक बोला हम एडजस्ट कर लेंगे। टीटीई, युवक का जवाब सुनकर सकपकाया और बोला, भला ऐसे कैसे हो सकता है। तो फिर बोला, प्लीज अंकल देख लीजिए ना, कह रहा हूं कि हम बर्थ पर एडजस्ट हो जाएंगे। टीटीई फिर बोला, भइया सीट पर एडजस्ट तो हो जाओगे लेकिन इस डिब्बे में बैठने के लिए जुर्माना लगेगा, आपकी रसीद कटवानी पड़ेगी। युवक ने जिज्ञासावश रसीद की राशि के बारे में पूछा तो टीटीई ने जेब से रेट कार्ड निकाला, हिसाब-किताब लगाकर बोला 1105 रुपए लगेंगे और दोनों को एक ही सीट पर बैठना पड़ेगा। अलग से कोई सीट नहीं मिलेगी। संभवत: नागपुर में टीटीई बदल जाए तो उसकी कोई गारंटी नहीं है। अगर कोई आए तो आप उससे निवेदन कर लेना। 1105 रुपए का नाम सुनते ही युवक बगले झांकने लगा। युवक संभवत: नौसिखुआ था, वह टीटीई के अंदाज को सही तरह से भांप नहीं पाया। टीटीई भी बार-बार पूछने लगता, क्या सोचा, क्या-सोचा? जल्दी करो, जल्दी करो।करीब पन्द्रह बीस मिनट बाद युवक हिम्मत करके बोला आप रसीद काट दीजिए। इसके बाद युवक ने अपना पर्स निकाला तो उसमें सौ-सौ के दो चार नोट थे। बाकी छोटे नोट थे। चूंकि युवक को अपने पर्स का अंदाजा था, इसलिए कभी वह उसको खोलकर देखे तो कभी बंद कर दे। युवती चुपचाप यह माजरा देख रही थी। वह समझ गई थी कि मामला पैसे पर अटक रहा है। उसने बिना देरी किए तत्काल एक हजार रुपए का नोट निकालकर युवक को थमा दिया।टीटीई ने तत्काल पैसे गिने और रसीद थमाकर अगले केबिन की ओर चला गया। इधर, युगल पर टिप्पणियों की बौछार होने लगी। रसीद के पैसे पर सभी ने कहा कि बिलकुल मंगल हो गया है। इसके बाद युगल और भी खुलकर बातें करने लगे। दरअसल, युवक मूलत: ओडिशा का रहने वाला था और रायपुर में ही उसने पढ़ाई की और यहीं पर बीपीओ में नौकरी करने लगा। जैसा कि युवक ने बताया कि युवती भी उसके साथ ही काम करती है। युवक किसी साक्षात्कार के सिलसिले में इंदौर जा रहा था। सफर में बोरियत ना हो लिहाजा वह युवती को भी साथ ले आया। उनके तौर-तरीकों एवं टिकट देखने से यह तो अंदाजा हो गया था कि युवक का कार्यक्रम पहले से तय था जबकि युवती का आनन-फानन में ही बना था। सुबह यह युगल भोपाल रेलवे स्टेशन पर उतरा। इस दौरान रोचक वाकया यह हुआ कि पूरे घटनाक्रम को देखने वाला रायपुर का एक सिंधी युवक आखिरी में युवक से पूछ बैठा, यार तुम्हारा रिश्ता क्या है?। सिंधी के सवाल पर केबिन में ठहाके गूंज उठे।
Monday, April 15, 2013
बिल, बयान और बवाल-10
बस यूं ही
लगता है रुबाई पढ़कर आप भी उलझ गए हैं, क्योंकि विषय ही कुछ ऐसा था। बात अब निर्णायक एवं अंतिम दौर में है लिहाजा थोड़ी सी गुस्ताखी तो बनती है ना। वैसे भी आजकल इसी विषय पर लिख रहा हूं, इस कारण सपनों में भी आइडियाज मिलते रहते हैं। वैसे अपुन को सपने कम ही आते हैं, लेकिन आज दोपहर को अखबार पढ़ते-पढ़ते जरा सी आंख लगने की ही देर थी कि सपना शुरू हो गया। सपने में नजारा किसी कस्बे का था। अपुन को सपने में दो तीन दुकानों पर जबरदस्त भीड़ दिखाई दी। कस्बे में इतनी भीड़ देखकर अपुन चौंक गए। जिज्ञासावश पहली दुकान के पास गए तो वह किसी तथाकथित तांत्रिक की थी। वह ताबीज बनाने में तल्लीन था। भीड़ को धकियाते हुए अपुन किसी तरह उस तांत्रिक के पास पहुंच गए। वहां का नजारा देखकर अपुन भूल गए कि यह सपना है या हकीकत। अपुन तो बस हकीकत समझकर उस तांत्रिक से सवाल पूछने में जुट गए। चूंकि एक ही सवाल में कई सवाल पूछ लिए इसलिए तांत्रिक कुछ देर तो सकुचाया, फिर अपुन को ऊपर से नीचे देखकर बोला, आप थोड़ा बैठिए, सभी सवालों का जवाब मिलेगा। करीब आधा घंटे बाद तांत्रिक ने भीड़ से दस मिनट की अनुमति ली और मेरे से मुखातिब हुआ। चूंकि सवाल अपुन पहले ही पूछ चुके थी इसलिए तांत्रिक ने प्वाइंट टू प्वाइंट बोलना शुरू किया। वह बोला मैं पहले बुरी नजर से बचाने का ताबीज बनाता था लेकिन धंधा मंदा हो गया था। एक-एक ग्राहक के लिए दिन भर तरसना पड़ता था। कोई भूला भटका या ग्रामीण ही आ जाए तो गनीमत है वरना दिन भर मक्खी मारने के अलावा कोई चारा नहीं था। बिलकुल फटेहाल एवं तंगहाल हो गया था।
इसी बीच एक दिन चमत्कार हो गया। अचानक सुबह-सुबह दुकान पर भीड़ लग गई। मैं समझ नहीं पाया कि यह सब क्या हो गया। लोगों से पता चला कि वे सब नजर का ताबीज मांग रहे थे। मैं अंदर ही अंदर सकपकाया कि ताबीज का क्रेज रातोरात कैसे बढ़ गया। तत्काल कुछ परिचितों से फोन पर बात करके पता किया तो जानकारी मिली कि अब किसी को घूरना या ताकना भी अपराध की श्रेणी में आता है। मतलब वह बुरी नजर मानी जाएगी। तांत्रिक लगातार बताता जा रहा था और अपुन बड़े गौर से उसकी बातों को सुन रहे थे। वह फिर बोला कि भीड़ देखकर मेरा मन ललचा गया। मैं हाथ आए मौके को खोना नहीं चाहता है। मैं ताबीज बुरी नजर से बचाने का बनाता था, और भीड़ में शामिल लोग भी वही चाहते थे। अपना धंधा चल निकला। अपुन ने बीच में उसकी बात काटते हुए उससे पूछा कि लोग आपके ताबीज पर इतना विश्वास क्यों करने लगे। इस पर वह बोला मैंने यह प्रचारित करवा रखा है कि ताबीज पहनने वालों को कोई खतरा नहीं है। और अगर कोई बुरी नजर से देखेगा भी तो उसका शर्तिया अहित होगा वह भी निर्धारित समय सीमा में। अपुन ने फिर टोका, इससे क्या फर्क पड़ा। वह बोला दरअसल यह निर्धारित समय सीमा में अहित होने वाली बात ही लोगों को ज्यादा पंसद आ रही है। लोगों का कहना है कि किसी ने बुरी नजर से देखा तो पहले तो पुलिस के पास जाओ। वह तरह-तरह के सवाल इस उम्मीद में पूछेगी ताकि जवाबों पर चटखारे लगाए जा सके हैं। घूरने से ज्यादा पीड़ा तो कई तरह के अजीबोगरीब सवालों से ही हो जाती है। और किसी तरह मान-मनौव्वल से अपराध दर्ज भी कर लिया तो फैसला आने में वक्त लग जाता है। लोगों से जब फैसलों में देरी की बात सुनी तो मैंने अवसर भुनाया और संजय दत्त का उदाहरण बता दिया। बस लोगों के दिमाग में एकदम फिट बैठ गया। और अपनी दुकान चल निकली।
तथाकथित तांत्रिक से अपनी जिज्ञासा शांत कर अपुन भीड़ वाली दूसरी दुकान पर पहुंचा। यहां दूसरे पक्ष के लोगों की भीड़ लगी थी। यह दुकान सीसी कैमरों की थी। सब दुकानें नई-नई खुली थी। दुकानदार को बात करने की भी फुर्सत ही नहीं थी। अपुन ने एक सैल्समैन को पटाया और भीड़ से अलग एक तरफ ले जाकर पूछा कि यह सब अचानक कैसे हो गया। उसने पलटवार करते हुए अपुन से कहा कि क्यों मजे ले रहो हो, आपको सब पता है, वह घूरने वाला कानून बना है ना, बस उसी से हमारे को रोजगार मिल गया है। अपुन के बिना पूछ ही वह बोला नया कानून तो बन गया है। अब दुनिया में सभी तरह के लोग हैं। जरूरी तो नहीं सभी कानून का सम्मान करें- उसका पालन करें। बहुत से ऐसे भी हैं जो इसका दुरुपयोग भी करेंगे। कई निर्दोष भी चपेट में आ सकते हैं। बस यही डर और अपनी सुरक्षा के लिए लोग सीसी कैमरे खरीद रहे हैं। विशेषकर स्कूलों एवं कॉलेजों में, आंखों के चिकित्सकों के यहां। सरकारी व निजी दफ्तरों तथा विशेष एकल उद्बोधन वाले कार्यक्रमों के लिए सीसी कैमरों की भारी डिमांड है।
ताबीज एवं सीसी कैमरों की दुकान देखकर अपुन ने मन ही मन धारणा बना ली कि कानून चाहे कैसा भी लेकिन इससे कई लोगों को रोजगार तो मिला है। रोजगार के नए-नए अवसर सृजित हो रहे हैं। अपुन यह सोचते-सोचते हुए आगे बढ़ ही रहे थे कि दो तीन धूप के चश्मे बेचने वाले मिल गए। बेचारे संकट में फंसे थे। रो तो नहीं रहे थे लेकिन रोने से कम भी नहीं थे। दुकानों के आगे सन्नाटा पसरा था। अपुन ने जरा कुरेदा तो फूट पड़े बोले भाईसाहब गर्मी के सीजन को देखते हुए लाखों रुपए का चश्मे मंगवा लिए। वैज्ञानिकों ने भविष्यवाणी की थी कि इस बार बारिश देर से आएगी। हमने सोचा कि धूप देर तक पड़ेगी तो धंधा भी अच्छा चलेगा। लोग काले चश्मे खरीदेंगे। अपुन उनकी बात फिर भी नहीं समझे। तो बोले, वो कानून बना है ना घूरने वाला। सारी गड़बड़ उसके बाद से ही शुरू हो गई। इक्का-दुक्का ग्राहक आते थे लेकिन अब काले चश्मों का विरोध शुरू हो गया। कुछ संगठन मांग कर रहे हैं कि गाडिय़ों पर जब काला शीशा प्रतिबंधित है तो फिर चश्मे का काला शीशा उचित नहीं है। सच में प्रतिबंधित लग गया तो हम बर्बाद हो जाएंगे। सड़क पर आ जाएंगे। अपुन उनकी पीड़ा सुन ही रहे थे कि अचानक शोर सुनकर आंख खुल गई। देखा तो बच्चे बैड पर उछलकूद कर रहे थे। बच्चों की मौज मस्ती में अपुन को अखबार के पन्ने बिखरे हुए दिखाई दिए। अचानक नजर एक कार्टून पर पड़ी। कार्टून में तीन महिलाएं पुलिस को शिकायत करती दिखाई गई थी। वे बोल रही थी। चश्मे के शीशे काले हैं। इसलिए पता नहीं चल रहा है कि घूर रहा है या देख रहा है। अपुन यकायक हड़बड़ा गए। जो सपने में देखा वह हकीकत में भी होने जा रहा है। और ऐसा हो गया तो फिर काले शीशे के चश्मों को भी इतिहास बनने में देर नहीं लगेगी। ऐसे में काले शीशे का चश्मा लगाने वाली वह सलाह भी बेमानी ही समझो।
इतिश्री।
Saturday, April 13, 2013
बिल, बयान और बवाल-9
बस यूं ही
कल की कड़ी में चर्चा इस बात पर हो रही थी कि आखिर आंखों पर काला चश्मा लगाया जाए या फिर आंखें दान कर दी जाएं। अब बात इससे आगे की करते हैं। सुझाव के बीच एक आग्रह भी आया था कि जब आंखों पर लिख ही रहे हैं तो आंखें फिल्म के चर्चित गीत 'उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता, जिस मुल्क की सरहद की निगाहबान हैं आखें...।' पर भी कुछ लिखो। कहने की जरूरत नहीं है, यह बहुत ही प्यारा गीत है। पुरानी कडिय़ों में इस गीत का जिक्र इसलिए भी नहीं किया था कि गीत देशभक्ति से जुड़ा है, लिहाजा देशभक्ति का जज्बा एवं संदेश आखिरी कडिय़ों में सार स्वरूप दिया जाए तो बेहतर है। गीत का विस्तार से जिक्र करने से पहले बता दूं कि जब इस विषय पर लिखना शुरू किया था, उस वक्त यह बिल कानून नहीं बना था, इस कारण अधिकतर कडिय़ों में भविष्य की संभावना/आशंका जताई गई थी कि कानून के अस्तित्व में आने के बाद ऐसा हो जाएगा। चूंकि अब कानून बन चुका है, ऐसे में अब संभावनाओं एवं आशंकाओं का दौर तो खत्म हो चुका। अब तो ध्यान यह रखना है कि कानून का दुरुपयोग ना हो और उसके संभावित दुरुपयोग से बचा कैसे जाए। इसमें कोई शक नहीं है कि कानून हमेशा अच्छी सोच के साथ एवं अच्छे परिणाम तथा पीडि़तों को न्याय मिलने की धारणा से प्रभावित होकर ही बनाए जाते हैं, लेकिन चालाक व चतुर लोग फिर भी इनसे बचने के रास्ते ढूंढ लेते हैं। कई तो कानून को हथियार के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं। विशेषकर प्रभावशाली एवं पहुंच वालों के लिए कानून का दुरुपयोग करना कोई मुश्किल काम नहीं है। बदकिस्मती है कि देश में आज कानून का दुरुपयोग ज्यादा हो रहा है। कहने का आशय यही है कि दुश्मनी निकालने के लिए, प्रायोजित तरीके से किसी को बदनाम करने लिए या फिर तात्कालिक लाभ लेने के लिए भी लोग कानून की आड़ लेते हैं। कहने की जरूरत नहीं है क्योंकि पूर्व में भी लिखा था कि दहेज प्रताडऩा जैसा कानून जिसके बनाने के पीछे बहुत पाक मकसद रहा लेकिन वर्तमान में देखें तो दहेज प्रताडऩा के मामले जांच के बाद कितने फीसदी सच साबित होते हैं। खैर, मामला कुछ ज्यादा गंभीर मोड़ पर पहुंच गया है।
चलो इस गंभीरता को यहीं पर विराम देकर फिर से हल्के फुल्के माहौल में चलते हैं। बात आखें फिल्म के गीत की हो रही थी। गीतों की बात न करने का वादा किया था लेकिन वादे टूट जाते हैं। वैसे यहां वादा जानबूझाकर तोड़ा जा रहा है, क्योंकि गीत देशभक्ति से जुड़ा है और अपुन को देश से बहुत प्रेम है। इसलिए गीत का उल्लेख तो बनता ही है। इसी गीत की एक-एक पंक्ति में बहुत बड़ा फलसफा छिपा है। आप भी गीत के कुछ चुनिंदा अंतरों का आंनद लीजिए- देखें.. हर तरह के जज्बात का ऐलान हैं आखें, शबनम कभी शोला कभी तूफान हैं आखें...। आगे देखिए.. आंखें ही मिलाती हैं, जमाने में दिलों को, अनजान हैं हम तुम अगर, अनजान हैं आखें...। लब कुछ भी कहें, इससे हकीकत नहीं खुलती, इंसान के सच झाूठ की पहचान हैं आखें...। गीत के दो चार अंतरे और भी है। गीत का एक-एक बोल वाकई अपनी पीछे बहुत बड़ी कहानी रखता है। बानगी देखिए.. हम तुम अनजान ही रहते हैं अगर आंखें भी अनजान हैं। कहने का मतलब है पहचान तो आंखें ही करती हैं। वाकई बहुत गहरे राज वाली पंक्तियां हैं ये।
बिलकुल वैसे ही जैसे कहा गया है कि 'सतसैया के दोहे, ज्यों नाविक के तीर, देखन में छोटे लगे, घाव करें गंभीर..।' आंखें और सरहद से मकबूल गीतकार गुलजार की रचना याद आ गई। आज भले ही मखमली आवाज के धनी गजल गायक मेहंदी हसन इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन यह रचना उनसे सरोकार रखती है। आप भी देखिए... 'आंखों को वीजा नहीं लगता, सपनों की सरहद नहीं होती, बंद आंखों से रोज मैं सरहद पार चला जाता हूं, मिलने मेहंदी हसन से..। ' सच में न तो सपनों की सरहद होती है और ना ही बंद आंखों पर कोई कानून आड़े आता है। लेकिन गुलजार साहब से इतर विचार रखने वालों ने तो बंद आंखों से भी खतरा बता दिया है। जांनिसार अख्तर साहब फरमाते हैं 'लम्हा-लम्हा तिरी यादें, जो चमक उठती हैं, ऐसा लगता है, उड़ते हुए पल जलते हैं, मेरे ख्वाब में कोई लाश उभर जाती है, बंद आंखों में कई ताजमहल जलते हैं... ' अख्तर साहब की बात का समर्थन यह रुबाई भी करती है देखिए.. 'उम्र की राह में रस्ते बदल जाते हैं, वक्त की आंधी में इंसान बदल जाते हैं, सोचते हैं तुम्हे इतना याद न करें, लेकिन आंखें बंद करने से ही इरादे बदल जाते हैं..। ' सोचने की बात है बंद आंखों से ही इरादे बदलेंगे तो फिर तो कोई इलाज दिखाई भी नहीं देता है। बड़े-बड़े शायरों व शायरी की बातों का उल्लेख करते-करते अपुन का मूड भी शायराना हो गया है। वैसे राज की बात यह है कि शायरी के शौकीन तो अपुन शुरू से ही रहे हैं। कॉलेज लाइफ में तो जूनियरों ने विदाई देते समय टाइटल भी शायर का ही दिया था। इसलिए आज की कड़ी इन दो रुबाइयों के साथ पूर्ण कर रहा हूं। आप भी लुत्फ उठाइए..। 'जब भी उनकी गली से गुजरता हूं, मेरी आंखें एक दस्तक देती हैं, दुख ये नहीं वो दरवाजा बंद कर देते हैं, खुशी ये है वो मुझे अब भी पहचान लेते हैं।' कितना आशावादी सोच है। दाद देनी पड़ेगी इसकी। अब दूसरी रचना देखिए... 'इश्क है वही जो हो एकतरफा, इजहार है इश्क तो ख्वाइश बन जाती है, है अगर इश्क तो आंखों में दिखाओ, जुबां खोलने से ये नुमाइश बन जाती है..। ' अब धर्मसंकट यही है कि आंखों से इजहार करो तो खतरा और जुबां से करो तो नुमाइश..। उलझा के रख दिया इस रुबाई ने तो। फिलहाल अपुन इसके उलझन में उलझे हुए हैं, तब तक आप भी दिमाग के घोड़े दौड़ाइए ताकि इस धर्मसंकट से उबरने का कोई रास्ता दिखाई दे जाए। दिखाई दे तो चुप मत रहना, साझा कर लेना। बिना डरे बेहिचक और बेझिझक। .
.... क्रमश:
Friday, April 12, 2013
बिल, बयान और बवाल-8
बस यूं ही
वैसे, इस शीर्षक का अब कोई मतलब नहीं रहा है, क्योंकि बिल तीन अप्रेल को राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद कानून बन गया है। इस कानून को बनने में दो माह का समय लगा। तीन फरवरी को अध्यादेश जारी हुआ। इसके बाद 19 मार्च को लोकसभा में तथा 21 मार्च को यह राज्यसभा में पारित हुआ। अंतत: तीन अप्रेल को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई। दरअसल, इन दिनों व्यस्तता कुछ ज्यादा ही रही। पारिवारिक और कार्यालयीन दोनों ही जगह। बच्चों के दाखिले, फीस, किताबें, डे्रस आदि की याद भी इसी माह में आती है। इधर भिलाई के पास एक निर्माणाधीन सीमेंट प्लांट में आगजनी की बड़ी वारदात हो गई। दोनों ही बड़े एवं महत्वपूर्ण मसले थे, लिहाजा उनमें ही उलझा रहा। एंटी रेप बिल के बारे में आखिरी बार दो अप्रेल को लिखा था। दस दिन के इस अंतराल में अपडेट यह हुआ बिल अब कानून बन गया है। एंटी रेप लॉ अस्तित्व में आने के बाद इतना तो तय हो गया है कि आंखों को लेकर जो गीत प्रचलन में हैं और उनको लेकर जो शंकाएं जताई जा रही थी वे सब सही होने की राह पर हैं। आंखों से जुड़े गीत और भी हैं लेकिन पिछली पोस्ट में यह वादा भी तो कर दिया कि अब बात आंखों के अलावा होगी। कड़ी-दर-कड़ी लिखने का विचार तो पहले की कर चुका था लेकिन एक दिन ख्याल आया कि इस संबंध में कम से कम दस पोस्ट तो लिखी ही जानी चाहिए। बस का दस का वादा है इसलिए शीर्षक पुराना ही लगा दिया है। दस कड़ी लिखने की यह बात भी सार्वजनिक रूप से एक-दो मित्रों से शेयर भी कर ली थी। हां, मित्रों से याद आया कि यह पोस्ट लिखने का विचार भी तो मित्रों की ही देन है। उन्होंने इस विषय पर कुछ कलम चलाई तो अपुन को भी लगा वाकई विषय प्रासंगिक है, लिहाजा कुछ तो लिखा ही जाना चाहिए। बस फिर क्या था लिखना शुरू हो गए। मित्रों की हौसला अफजाई निरंतर होती रही। उनसे कई बातें सुनने को मिलीं, जो निसंदेह इस विषय को जिंदा रखने और आगे से आगे लिखने के लिए न केवल मार्ग प्रशस्त करती रही बल्कि प्रेरणास्पद भी बनी। दूसरी कड़ी लिखने के बाद एक मित्र ने सुझाव दिया कि घूरने की धारा से बचने का आसान तरीका, गहरा काला चश्मा रखो। इसी कड़ी पर एक दूसरे मित्र ने कहा कि अब तो आंखें दान कर देनी चाहिए। दोनों मित्रों ने सुझाव मौजूदा माहौल को देखते हुए दिए हैं, इसलिए उनमें गंभीरता है। चश्मा, और वह भी गहरा काले शीशे का लगाएंगे तो पता ही नहीं चल पाएगा कि आंखें क्या कर रही हैं। यहां कुछ संभावना है, मतलब विकल्प बताया गया है बचाव का। हो सकता है वर्तमान परिप्रेक्ष्य में और इस विचारधारा में विश्वास करने वाले काले चश्मे का उपयोग करने लग जाए तो कोई बड़ी बात नहीं है। चश्मे से जुड़ा एक गीत भी याद आ रहा है। बोल हैं 'गौरे-गौरे मुखड़े पर काला-काला चश्मा, तौबा खुदा खैर करे खूब है करिश्मा....।'
वैसे एक बात साफ कर दूं कि अपुन ने भी चश्मा पहना है लेकिन नजर वाला। अपुन के चश्मे का किस्सा भी बड़ा रोचक है लिहाजा, बताना जरूरी है। बात आज से करीब दस साल पहले की है। कार्यालय में एक दिन कम्प्यूटर पर अचानक अक्षर ऊपर नीचे होते दिखाई देने लगे। दोनों हाथों से आंखो को रगड़ा लेकिन पढऩे में आ रही दिक्कत दूर नहीं हुई। ठण्डे पानी के छींटे आंखों में मारने के बाद भी जब कोई राहत नहीं मिली, तो आभास हो गया कि जरूर आंखों में कुछ गड़बड़ हो गई। दूसरे दिन तो आधा सिर भी दर्द करने लगा। दुकान से दर्द की टेबलेट ली, तब जाकर कुछ चैन आया। सिरदर्द और टेबलेट लेने का यह क्रम करीब पन्द्रह दिन तक बदस्तूर जारी रहा, लेकिन किसी ने यह नहीं कहा कि आपकी आंखें कमजोर हो गई हैं। आखिरकार टेबलेट खाने से कुछ राहत मिलती न देख एक दिन एक चिकित्सक के पास गया तो उसने कहा कि भाईसाहब आपकी आंखें कमजोर हो गई हैं और चश्मा चढ़ाना पड़ेगा। मेरे को चिकित्सक की सलाह उस वक्त उपयुक्त भी लगी जब चश्मा लगाते ही सिर का दर्द उडऩ छू हो गया। अब तो चश्मा पहनना रोज का काम हो गया। इस बीच दो दिन बार चश्मा टूटा भी लेकिन नया ले लिया। कुछ समय बाद चश्मा लगाते-लगाते भी सिर दर्द होने लगा तो उसी चिकित्सक को दिखाया तो उसने माइग्रेन (घोबा- यह राजस्थानी शब्द है। इससे तात्पर्य है सिर के आधे हिस्से में रह-रहकर दर्द उठना। ) बताया। वैसे लोगों से सुना था कि माइग्रेन एक बार होने के बाद ठीक नहीं होता है, क्योंकि यह स्थायी मर्ज है। वाकई बड़ा तकलीफदायक था। किसी फोड़े की माफिक दुखता था अंदर ही अंदर। चिकित्सक ने एक माह की दवा दी और सिर का दर्द ठीक हो गया। इधर, रखरखाव उचित प्रकार से न कर पाने के कारण चश्मे के दोनों लैंस स्क्रेच कारण धुंधले हो गए थे। ऐसे में स्पष्ट देखने व पढऩे में फिर से दिक्कत होने लगी। पुन: उसी चिकित्सक के पास गया। उसको आंखें दिखाई। जांच-पड़ताल के बाद वह बोला आपकी आंखें एकदम ठीक हैं। आपको चश्मे की जरूरत ही नहीं है। मेरे लिए यह किसी चमत्कार से कम नहीं था। अमूमन एक बार चढऩे के बाद जो चश्मा जिंदगी भर नहीं उतरता, वह मेरी आंखों से मात्र पांच साल बाद ही उतर गया। बताने का आशय यही है कि पांच साल चश्मा लगाने का अनुभव अपनु भी रखते हैं, लेकिन उस वक्त ना कानून था और ना ही ऐसा माहौल, लिहाजा चश्मा लगाने के बचाव और फायदे अपुन हो मालूम नहीं है।
इधर, चश्मे की चर्चा में आंखें दान करने वाला सुझाव तो नजरअंदाज हो गया था। वैसे आंखें दान करने वाला आइडिया बुरा नहीं है लेकिन सवाल यही है कि दान कब की जाए। मरने के बाद की जाए तो कोई किन्तु-परन्तु ही नहीं हैं लेकिन जीते-जी कर दी तो यह बेहद खतरनाक है। आखिर एक खतरे से बचने के चक्कर में इतना बड़ी कुर्बानी और खुद की दुनिया में अंधेरा करना उचित नहीं होगा। इससे तो बेहतर होगा शिकायत का मौका ही नहीं दिया जाए।
....क्रमश:
Monday, April 8, 2013
यह 'आग' कब बुझेगी ...?
टिप्पणी
नंदिनी-अहिवारा के पास निर्माणाधीन सीमेंट प्लांट में लगी भीषण आग पर देर रात भले ही काबू पा लिया गया है लेकिन ग्रामीणों के दिलों में सुलग रही आग अब भी वैसी की वैसी ही है। पुलिस छावनी में तब्दील नंदिनी थाने के बाहर शुक्रवार को चिलचिलाती धूप में शासन, प्रशासन, पुलिस और प्लांट प्रबंधन के खिलाफ नारेबाजी करते ग्रामीणों का गुस्सा भी यही जाहिर कर रहा था कि आक्रोश की आग की लपटें अभी कमजोर नहीं हुई हैं। दुधमुंहे बच्चों को गोद में लेकर तेज धूप में पसीने से तरबतर होने के बावजूद चार-पांच किलोमीटर का पैदल मार्च कर नंदिनी थाने पहुंची इन महिलाओं की एक सूत्री मांग थी कि रात को घर से 'जबरन' उठाए गए परिजनों को पुलिस या तो बिना शर्त रिहा करे अन्यथा उनको भी गिरफ्तार कर ले। नारेबाजी के बीच पुलिस प्रशासन पर कई संगीन आरोप भी लगे। आरोपों की बानगी देखिए.. 'प्लांट प्रबंधन से मिलीभगत कर साजिशन ग्रामीणों को फंसाया है।' 'पुलिस ने अलसुबह चार बजे ग्रामीणों को घर से जबरस्ती उठाया है।' 'सारा प्रशासन बिका हुआ है।' 'हम ढाई माह से आंदोलनरत है लेकिन कभी किसी ने सुध क्यों नहीं ली' ... और भी कई तरह के आरोप सरेआम लगाकर शासन-प्रशासन को कठघरे में खड़ा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पांच घंटे तक ग्रामीण एक ही मांग पर अडिग रहे लेकिन उनसे बात करने के लिए पुलिस एवं प्रशासन के अधिकारी बदलते रहे। सभी ने समझाइश के भरपूर प्रयास किए लेकिन ग्रामीण अपनी एक सूत्री मांग के समर्थन में टस से मस नहीं हुए और वहीं बैठ गए।
इधर निर्माणाधीन प्लांट तथा मलपुरी में कहने को खामोशी एवं सन्नाटा पसरा है लेकिन रात के घटनाक्रम के निशान दोनों जगह ही दिखाई देते हैं। प्लांट में आग से खाक हुए वाहन, जनरेटर, दुपहिया वाहन एवं अन्य उपकरण हादसे की भयावहता को बयां कर रहे थे, वहीं मलपुरी खुर्द के रास्तों में पसरा सन्नाटा एवं अजीब से भय के चलते छाई खामोशी भी यही बता रहे थे कि रात के अंधेरे में एक आग बुझाने के प्रयास में दूसरी 'आग' को किस कदर भड़काया गया है। नौकरी देने और न देने की दोनों पक्षों की 'जिद' ने बजाय कुछ पाने के बहुत कुछ खो दिया है, जिससे उबरने में दोनों को ही लम्बा वक्त लगेगा।
बहरहाल, सबसे मौजूं सवाल तो यही है कि विरोध की खाई को पाटने के बजाय गहरा करने वाली कार्रवाई तथा एक दूसरे के जान के दुश्मन बने दोनों पक्षों के बीच भविष्य में सदभाव, स्नेह एवं सहयोग किस तरह कायम हो पाएगा? और यह भी जरूरी नहीं है कि ग्रामीणों पर अपराध दर्ज करने के बाद इस प्रकरण का पटाक्षेप हो गया है, क्योंकि आक्रोश की चिंगारी अब 'आग' बन चुकी है। खैर, इस घटनाक्रम को अगर इसी अंदाज में अंजाम तक पहुंचाना था तो फिर शासन व प्रशासन की भूमिका पर सवाल उठने लाजिमी हैं। वैसे भी यह सीमेंट प्लांट शुरू से ही विवादों में घेरे में रहा है। संवेदनशील मसला होने के बाद भी शासन-प्रशासन ने पता नहीं क्यों एवं क्या सोचकर इसको गंभीरता नहीं लिया। इतना ही नहीं प्रशासन ने विवाद को निबटाने की कभी ईमानदारी कोशिश भी नहीं की। समय रहते दोनों पक्षों के मध्य कोई बीच का रास्ता निकाल दिया जाता संभवत: इस प्रकार के हालात ही नहीं बनते। वैसे भी किसी विवाद का हल जोर-जबरदस्ती या बलात तरीके से आज तक नहीं हुआ है। इतिहास गवाह है कि विवादों का हल अक्सर बातचीत से ही संभव हुआ है।
साभार - पत्रिका भिलाई के 06 अप्रेल 13 के अंक में प्रकाशित।
Friday, April 5, 2013
साक्षात मौत और बदहवाश दौड़ते श्रमिक
नंदिनी अहिवारा से लौटकर
परिवार एवं सामान के साथ पैदल ही बदहवाश दौड़ते श्रमिकों को देखकर लगा कि वाकई जब जान खतरे में हो तो आदमी को जो भी सूझता है, वैसा ही करता है। नंदिनी अहिवारा में निर्माणाधीन सीमेंट प्लांट में गुरुवार शाम को जो हुआ वह श्रमिकों के लिए साक्षात मौत देखने जैसा ही था। निर्माणाधीन प्लांट से लेकर अहिवारा बस स्टैण्ड तक करीब तीन किलोमीटर रास्ते में महिला व पुरुष श्रमिकों की कतार लगी हुई थी। जान बचाने के चक्कर में उबड़-खाबड़ रास्ते एवं अंधेरे के बीच इन श्रमिकों की सांसें इस कदर उखड़ी हुई थी कि वे चाहकर भी कुछ नहीं बोल पा रहे थे। बार-बार कुरेदने पर बस इतना ही बोल पा रहे थे कि 'भइया, जान खतरे में है'। कहां से हो, तो अधिकतर ने यूपी-बिहार का निवासी बताया। प्लांट के प्रवेश द्वार तक पहुंचने से डेढ़ किलोमीटर पहले ही आग की लपटें एवं धुएं के गुबार दिखाई दे रहे थे। प्लांट के प्रवेश द्वार पर बिखरे पत्थर इस बात की गवाही दे रहे थे कि पथराव किस स्तर पर हुआ है। प्रवेश द्वार पर बड़ी संख्या में पुलिस जवान तैनात थे। अंदर का नजारा देखकर किसी भी भले चंगे आदमी के रौंगटे खड़े होना तय है। प्रवेश द्वार के पास बने केबिन के टूटे हुए शीशे एवं बिखरा सामान बता रहे थे कि हंगामा बहुत देर तक बरपा था। बस, जेसीबी और अन्य सामान से आग की लपटें बराबर उठ रही थी, लेकिन आग बुझाने के साधन वहां पर दिखाई नहीं दिए। आग से जलकर खाक पुलिस की गाड़ी के पास फायर बिग्रेड के कर्मचारी पानी तलाश रहे थे। उनकी गाड़ी का पानी खत्म हो चुका था, लिहाजा उनके पास सिवाय आग को देखने के कोई चारा नहीं बचा था। वहीं प्लांट के एक सुरक्षाकर्मी ने बताया कि यहां अंदर पानी नहीं है। जगह-जगह तैनात पुलिसकर्मी सभी मीडियाकर्मियों को अजनबी निगाह से घूर रहे थे। धुएं के गुबार व आगजनी के बीच फूटते पटाखे हालात को और भी भयावह बना रहे थे। हिम्मत और हौसला दिखाते हुए कुछ आगे बढ़े तो अंदर कुर्सी पर पुलिस के चार-पांच जवान रिपोर्ट बनाने में व्यस्त दिखाई दिए। पास ही एक व्यक्ति सिर पर पट्टी बांधे पुलिस अधिकारियों के सवालों का जवाब देने में तल्लीन था। एक सुरक्षाकर्मी भी आंख पर पट्टी बांधे दिखाई दिया। तभी ड्राइवर ने हमारी गाड़ी जलाने के सूचना दी, तो हम वापस प्रवेश द्वार की तरफ लपके। वहां एसपी हेलमेट लगाए और डंडा लिए खड़े थे। मौके की नजाकत देखते हुए हमने गाड़ी संयंत्र परिसर के अंदर पुलिस के वाहनों के पास खड़ी की। इसके बाद हम फिर आगजनी को देखने आगे बढ़े। सबसे खास बात यह दिखाई दी कि जो वाहन जल रहे थे, या जिस हालात में थे, वे जलते ही रहे। इसका कारण बाद में समझ में आया कि क्योंकि आग बुझाने के लिए जो दमकलें गई थी, उनकी संख्या आगजनी को देखते हुए ऊंट के मुंह में जीरे के समान थी। कुछ और आगे बढ़े तो जिला कलक्टर लिखी गाड़ी दिखाई दी। आगे देखा तो दोनों हाथ पीछे बांधे अपने गनमैन के साथ कलक्टर लौट रहे थे। पत्रकारों को सामने देखा तो चौंक गए और बोले 'आ गए आप, आपको भी खबर हो गई।' जहां कलक्टर मिले थे वहीं से कुछ दूरी पर वह स्थान दिखा जहां दो-तीन दिन पहले मिट्टी धंसने की वजह से एक श्रमिक की मौत हो गई थी, जबकि दो घायल हो गए थे। हालांकि रास्तों पर बिजली के पोल लगे थे, लेकिन धुएं के गुबार के बीच रोशनी मंद पड़ चुकी थी। आगे बढ़े तो प्लांट के कुछ लोगों ने आगाह किया, 'आगे अंधेरा है, रास्ते भी ठीक से दिखाई नहीं दे रहे हैं। आप संभलकर एवं अपनी रिस्क पर जाना।' उन लोगों की बातों को अनसुना करने के बाद हम लोग आगे बढ़ गए और वहां पहुंच गए, जहां प्लांट के लिए चिमनी लगी थी। आगे का नजारा देखकर तो अजीब से डर से घिर गया। चारों तरफ आग ही आग। प्लांट के अधिकारियों के लिए बनाए गए वातानुकूलित केबिन आग से स्वाहा हो चुके थे, जबकि दूसरी ओर के केबिन को भी आग अपने जद में ले चुकी थी। केबिन के अंदर आग की लपटें उठ रही थी। मौके पर मौजूद लोगों ने बताया कि इन केबिन में ही कम्प्यूटर वगैरह रखे हुए थे। केबिन के पास ही अंधेरे में ही फायर बिग्रेड के लोग आग बुझाने की मशक्कत कर रहे थे लेकिन आग इतने बड़े पैमाने पर लगी थी कि देर रात तक उस पर किसी तरह से काबू नहीं पाया जा सका था। वाहन जलने के बाद वह अपने आप ही बुझा रही थी। लौटते समय अधेंरे में इधर-उधर देखा तो रास्तों में बाल्टियां एवं जरीकेन हुए दिखाई दिए। पूछा तो बताया गया कि इन बाल्टियों में ज्वलनशील पदार्थ भरकर बाल्टी को लकड़ी में फंसा कर लाया गया और वाहनों एवं सामान पर डाल-डाल कर आग के हवाले कर दिया गया। रास्ते में हमको तीन जगह बाल्टी पड़ी दिखाई दी। आग से उठते धुएं व रह-रहकर उनमें होते विस्फोट के बीच ज्यादा देर खड़ा रहना संभव नहीं था। धीरे-धीरे वापस प्रवेश द्वार की ओर लौटने लगे। रास्ते में प्लांट के काफी सुरक्षाकर्मी हेलमेट व चेस्ट गार्ड लगाए दिखाई दिए। कुछ के हाथों में डंडे भी थे। लौटने लगे तो पुलिस के जले हुए वाहन के पास पुलिस के फोटोग्राफर दिखाई दिए। धीरे-धीरे प्रवेश द्वार तक आए और लौट आए। देर रात वहां हालात तनावपूर्ण, लेकिन नियंत्रण में थे। इधर पुलिस पांच-छह दर्जन ग्रामीणों पर अपराध कायम करने की तैयारी में जुटी हुई थी। प्लांट के प्रवेश द्वार पर तैनात उस महिला टीआई से यह कहकर अब जा रहे हैं हम भिलाई लौट आए। वाकई इतने बड़े पैमाने पर भीषण आगजनी देखने का यह अपना अलग अनुभव रहा। रास्ते में कई लाल-पीली बत्ती वाले वाहन सायरन बजाते हुए प्लांट की तरफ जाते मिले। नंदिनी का बाजार भी देर तक खुला था। वाहनों की लगातार आवाजाही से लोगों की नींद उड़ी हुई थी। आग की खबर तो उनको पहले ही लग चुकी थी।
साभार - पत्रिका भिलाई के 05 अप्रेल 13 के अंक में प्रकाशित।
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