Tuesday, June 11, 2019

श्रीगंगानगर का दुर्भाग्य!

टिप्पणी
आज़ादी के सात दशक बीतने के बाद भी यह श्रीगंगानगर शहर का दुर्भाग्य ही है कि यहां समस्याएं जस की तस हैं। प्रदेश में कितनी ही सरकारें आई-गई लेकिन इस शहर की तस्वीर नहीं बदल पाई। लोक लुभावन नारों व वादों के सहारे बहुत से नेताओं अपना भाग्य चमकाया लेकिन शहर की सूरत नहीं चमका सके। श्रीगंगानगर को ‘चंडीगढ़ का बच्चा’ या ‘चंडीगढ़ का बाप’ बनाने वालों ने भी राजनीतिक रोटियां सेककर खुद का भला जरूर किया लेकिन शहर का भला नहीं कर सके। इससे भी बड़ा दुर्भाग्य इस बात का है कि शहर में ऐसे जनप्रतिनिधि भी चुनकर आने लगे हैं, जिनके पास न तो खुद की कोई दूरदृष्टि है और न ही शहर को समस्या रहित बनाने की कोई कारगर कार्ययोजना। यहां आने वाले प्रशासनिक अधिकारी भी यहां के जनप्रतिनिधियों के नक्शेकदम पर ही चलते नजर आते हैं। 
शहर की सबसे बड़ी समस्या तो बरसाती पानी की निकासी है। यह हर साल पेश आती है। अभी मानसून पूर्व की जरा सी बारिश ने ही शहर की हालत खराब कर रखी है या यूं कहिए कि बरसाती पानी निकासी पानी के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च करने वालों की पोल खोल कर रख दी। बड़ी बात है कि पानी की निकासी के नाम पर यह पैसा हर साल खर्च होता है। हर साल बजट बढ़ता जाता है लेकिन समस्या का ठोस या स्थायी समाधान नहीं होता। हो भी कैसे? ‘ बारिश ज्यादा आई तो सेना को बुला लेंगे।’ जैसे बयान देने वाले नेताओं के हाथ में शहर की बागडोर है। ऐसे नेता शहर का किस तरह से भला करेंगे, सहज ही सोचा जा सकता है। तभी तो यहां आने वाले अधिकारी भी शहर के प्रति गंभीरता नहीं दिखाते। नए नवेले अधिकारियों में एक-आध एक दो बार शहर भ्रमण करने की औपचारिकता निभा देते हैं, इसके बाद शहर भगवान भरोसे ही रहता है। अधिकारी भी बंद कमरे में ही शहर की चिंता करते नजर 
आते हैं। 
नगर परिषद व नगर विकास न्यास सौन्दर्य के नाम पर करोड़ों रुपए का मोटा बजट खर्च करते हैं। इन निकायों में बैठने वाले अधिकारियों का ध्यान बजट बनाने और उसे खर्च करने पर ही ज्यादा रहता है, भले ही वह लोगों के काम आए या नहीं। शिव चौक से जिला अस्पताल तक लगाई गई इंटरलोकिंग फुटपाथ तथा एक तरफ बनाया गया डिवाडर किसी काम का नहीं है। यह प्रस्ताव क्यों बना? किसके लिए बना? तथा इसका फायदा किसको हुआ? यह जानने समझने की बात न तो यहां के जनप्रतिनिधि करते हैं और न ही प्रशासनिक अधिकारी। इंटरलोकिंग के नाम पर लाखों रुपए मिट्टी में मिला दिए गए। इस तरह के उदाहरण यहां कई हैं। 
शहर की बदहाली और इसको लेकर जनाक्रोश न होने पर अक्सर श्रीगंगानगर को ‘मुर्दों का शहर’भी कह दिया जाता है। दरअसल, यहां विरोध तो होता है लेकिन उसमें शहर हित कम नजर आता है। विडम्बना यह भी है कि विरोध प्रदर्शन करने वालों में परम्परागत चेहरे ही ज्यादा नजर आते हैं। उनका जनता से जुड़ाव कम है या जनता उन्हें पसंद नहीं करती। कोई तो वजह है। और इसी वजह के कारण ही इसे ‘मुर्दों का शहर ’ कहा जाने लगा। अधिकारी व जनप्रतिनिधि शहर के प्रति उतनी दिचपस्पी नहीं दिखाते। जिस दिन विरोध में जनता उठ खड़ी हुई उस दिन तय मानिए, न तो सेना बुलाने जैसे हास्यास्पद बयान देने वाले नेता जीतकर आएंगे। और न ही बंद कमरों में बैठकर शहर का हित करने वाले अधिकारी यहां टिकेंगे। विकास कार्यों के नाम, उनसे आमजन को होने वाला फायदा तथा उन पर खर्च होने वाली राशि का विवरण जनता मांगना शुरू कर दे तो नि:सदेह बजट राशि का दुरुपयोग कम होगा। लेकिन यह बात भी तभी बनेगी जब जनता जागेगी।
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श् राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 16 मई 19 के अंक में प्रकाशित। 

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