Tuesday, December 17, 2019

फिर लगाया ही क्यों था?

टिप्पणी 
सुखाडि़या र्सिर्कल स्थित भारत माता चौक पर लगा सौ फीट ऊं चा तिरंगा फिर ‘गायब’ है। ‘गायब’ शब्द इसलिए कि यह क्यों उतरा? किसने उतारा? किसलिए उतारा? अब तक कितनी बार उतरा? इन सब सवालों के जवाब यूआईटी के पास नहीं है। जाहिर सी बात है कि जब जिम्मेदारी ही तय नहीं है तो रखरखाव कौन व कैसे करेगा। औपचारिकता की हद देखिए यूआईटी में इस ध्वज के लिए नोडल अधिकारी तो नियुक्त है लेकिन किसी तरह का रजिस्टर संधारित नहीं है। बिना रजिस्टर के ध्वज लगाने या उतारने से संबंधित जानकारी भी नहीं है। भले ही यूआईटी ने ध्वज के रखरखाव का जिम्मा किसी फर्म को सौंप दिया हो लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं है कि वो एकदम से ही आंख मूंद ले। ध्वज उतरने या बिजली गुल रहने की बात जब तब अधिकारियों के संज्ञान में लाई जाती है तो उनका एक जवाब होता है ‘पता करवाते हैं। ’ पता नहीं यह ‘पता करवाते हैं।’ का जुमला अधिकारियों को इतना मुफीद क्यों लगता है? क्या वो शहर में नहीं रहते? या वो सुखाडि़या सर्किल से होकर नहीं गुजरते? राष्ट्र के आन, बान व शान के प्रतीक तिरंगे को यूआइटी के उदासीन रवैये ने मजाक बनाकर रख दिया है और इस उदासीनता से यह भी जाहिर होता है कि इसको सस्ती लोकप्रियता व तात्कालिक वाहवाही बटोरने के लिए ही लगाया गया था। जिम्मेदारों को तिरंगे के मान-सम्मान की वाकई चिंता होती तो इसका सरेआम इस तरह मजाक नहीं उड़ता। बिना किसी वजह के इसको मनमर्जी से उतारना एक तरह का अपमान ही है। इस उदासीनता से सबके जेहन में एक सवाल जरूर उठता है कि जब उसकी सार-संभाल ही नहीं हो पा रही है तो इसको लगाया ही क्यों था? क्यों इतने रुपए खर्च किए गए थे? लगाते वक्त यह क्यों नहीं सोचा गया था कि भविष्य में किस तरह की चुनौतियां व खर्चे आ सकते हैं? और उनसे कैसे व किस तरह पार पाना है। खैर, ध्वज लगाने का निर्णय जल्दबाजी में लिया गया हो, अव्यवहारिक हो, अदूरदर्शी हो लेकिन जब लगा ही दिया तो इसका सम्मान होना चाहिए। मनमर्जी या किसी बहाने से उसको गुपचुप उतारने या लगाने का क्रम भी बंद होना चाहिए। हां कोई वजह हो या तकनीकी कारण हो तो बात अलग है वरना ध्वज नियमित रूप से फहरे तथा रात को रोशनी नियमित रूप से हो इसकी पालना भी सुनिश्चित हो।

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 राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में छह सितम्बर 19 के अंक में प्रकाशित

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