Tuesday, May 22, 2018

इक बंजारा गाए-31

मेरे साप्ताहिक कॉलम  की अगली कड़ी....।
----------------------------------------------------------
जनसंपर्क का मौका
नेता हो या नेता बनने की हसरत देखने वाला हो। दोनों में एक बात की समानता विशेष रूप से देखने को मिल जाती है। भीड़ देखते ही यह लोग हाल चाल पूछने और मेल मिलाप करने जरूर लग जाते हैं। मौका चाहे खुशी का हो या गम का इससे इनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई कैसा भी सोचे, यह लोग तो अपना जनसंपर्क अभियान जारी रखते हैं। अब नगर परिषद सभापति की माताजी के निधन की ही बात करें। अंतिम संस्कार पर मुक्ति धाम ठसाठस भरा था। इतनी भीड़ अमूनन अंतिम संस्कारों में जुटती नहीं है। इतने भीड़ देखकर छुटभैयों को तो जैसे मुंह मांगी मुराद मिल गई। इधर, लोग सभापति व उनके परिजनों को सांत्वना दे रहे थे, वहीं यह छुटभैये नेता मुक्तिधाम में घूम-घूमकर लोगों से मिल रहे थे। हंस-हंस के बतिया रहे थे। यहां तक कि गर्मजोशी से हाथ भी मिला रहे थे। इतने सारे लोग एक जगह कभी मिल नहीं सकते, इसलिए मौके का फायदा उठाने से छुटभैये चूके नहीं। खैर, फायदा कितना मिला या मिलेगा यह तो समय बताएगा।
चुनावी मौसम
चुनावी मौसम का अपना ही आनंद है। यह मौसम आते ही न जाने कितने ही नेता चुनाव लडऩे का सपना पाल बैठते हैं। हार-जीत अलग विषय है। टिकट मिलना न मिलना भी कोई मायने नहीं रखता। हां यह बात दीगर है कि चुनाव आते-आते सपना देखने वालों की संख्या कम हो जाती है। श्रीगंगानगर में एक पार्टी के नेताजी ने तो बकायदा चुनाव लडऩे का ऐलान कर दिया है। परिणाम चाहे कुछ भी कैसा भी हो, टिकट मिले न मिले लेकिन उन्होंने कह दिया है चुनाव लड़ेंगे। खैर, इसी तरह पार्षद का चुनाव न जीतने वाले शख्स भी विधानसभा चुनाव के नाम पर जीभ लपलपा रहे हैं। हैरत की बात तो है कि यह शख्स हर किसी से पूछते फिर रहे हैं कि उनको लेकर मतदाताओं की क्या राय है? यह बात सुनकर सलाह देने वाले अपना माथा पीटने के अलावा करें भी तो क्या। लोग इस छुटभैये को कैसे बताएं कि मतदाताओं की राय क्या है। वैसे कोई राय हो तब तो बने भी। जानने वाले जानते हैं यह छुटभैया समय-समय पर शहर में अपने होर्डिंग्स टांग कर खुद को विधानसभा का दावेदार बताता रहता है।
घेराव की कहानी
श्रीगंगानगर में मेडिकल कॉलेज खुलने का सपना फिलहाल तो सपना ही बना हुआ है। हां इस सपने को साकार करने के लिए प्रयास कई बार हुए हैं। अब भी हो रहे हैं लेकिन सपना अभी सच हुआ नहीं है। इधर, इस सपने को सच करने के लिए कई तरह के आंदोलन भी हुए हैं। पिछले दिनों इसी विषय को लेकर विधायक का घेराव करने तक घोषणा की कर दी गई। सोशल मीडिया पर पोस्टें वायरल की गई। समाचार पत्रों तक में भी प्रेस नोट भिजवाए गए। इतना होने के बावजूद घेराव स्थगित हो गया। दानदाता ने घेराव करने वालों से चर्चा की और उनको वस्तुस्थिति से अवगत कराया। अब जो बातें सामने आई उनमें ऐसी कोई नई नहीं थी। अब लोगों के समझ में यह नहीं आ रहा कि यह घेराव की रणनीति बनी ही क्यों थी। और बनी भी थी तो ऐसा क्या मिल गया तो टाल दी गई। वैसे यह सवाल कइयों के जेहन में घूम रहा है और जवाब न मिलने के कारण परेशान कर रहा है सो अलग। वैसे घेराव की घोषणा व स्थगित होने की कहानी शायद ही सामने आए।
दावे हैं दावों का क्या
कसमें, वादे, प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या.. यह चर्चित फिल्मी गाना तो कमोबेश हर किसी ने सुना ही होगा। श्रीगंगानगर पुलिस के संदर्भ हो याद रखते हुए अगर गीत के बोल में बातों की जगह दावा जोड़ दिया तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। विशेषकर सरकारी विभागों की तरफ से किसी बात को लेकर दावे तो खूब होते हैं लेकिन कुछ समय बाद दावों की हवा निकल जाती है। लोक परिवहन बसों से जुड़े दावे का हश्र भी कुछ ऐसा ही हुआ। एक हादसे के बाद पुलिस ने आनन-फानन में लोक परिवहन बसों के खिलाफ खूब कार्रवाई की। और साथ में यह दावा भी किया कि इन बसों की लगातार चैकिंग की जाएगी। खैर, जैसे-जैसे हादसे की खबर शांत हुई पुलिस का चैकिंग का अभियान भी सुस्ती पकड़ गया। कई बसें फिर से परंपरागत तरीके से संचालित होने लगी है। शायद फिर कोई हादसा ही खाकी की इस सुस्ती को तोड़ेगा। वैसे भी सुस्ती हादसे के बाद ही टूटती है।
----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 17 मई 18 के अंक में प्रकाशित 

No comments:

Post a Comment