Monday, April 1, 2013

शह और संपर्क का खेल


टिप्पणी

भले ही यह जांच का विषय है लेकिन इतना तो तय है कि दुर्ग के बेथल चिल्ड्रन होम में अरसे से चल रहे  'अनाथों' से अनाचार के सनसनीखेज एवं घिनौने कृत्य में न केवल केयर टेकर व संचालक आरोपी हैं बल्कि वे सब भी बराबर के दोषी हैं, जो जानते हुए भी अनजान बने रहे। तभी तो जिला प्रशासन की ठीक नाक के नीचे बिना मान्यता के भी यह चिल्ड्रन होम बेरोकटोक चलता रहा। ऐसा शातिराना एवं शर्मनाक काम केवल शह, सम्पर्क और साठगांठ के सहारे ही संभव है, वरना एक सामान्य आदमी अचानक और आश्चर्यजनक रूप से अर्श पर कैसे पहुंच सकता है। रसूखदारों से रिश्ते, सियायत से सम्पर्क और जिम्मेदारों से जानकारी का फायदा उठाकर फर्जीवाड़े के सहारे यह अमानवीय कृत्य होता रहा। मिलीभगत के इस खामोश खेल का खुलासा अब भी नहीं हो पाता, अगर कुछ जागरूक संगठन पहल नहीं करते या लड़कियां होम से ना भागती। प्रदेश में आश्रमों की असलियल उजागर होने के बाद सामूहिक दुष्कर्म का यह बड़ा मामला है।
खैर, हकीकत सामने आने के बाद हड़कम्प मचाना स्वाभाविक है। थोड़ा बहुत तात्कालिक, रस्मी और औपचारिक हंगामा भी है। इस प्रकार के मामलों में ऐसा हमेशा ही होता है। झलियामारी एवं आमाडुला आश्रमों की हकीकत से पर्दा उठने से लेकर अब तक हुई हलचल का इतिहास और परिणाम सबके सामने हैं। आश्रमों की असलियत उजागर होने पर होने वाला आश्चर्य मिश्रित अफसोस इस बार भी है लेकिन हालात से हारे मासूमों की मदद के लिए कोई सामूहिक आवाज नहीं उठ रही है। उनकी तकलीफ समझना तो दूर उनको तमाशा बना दिया गया है।
दिल्ली की 'दामिनी' के लिए दुर्ग में जो दर्द दिखाई दिया वैसा दर्द मासूमों के साथ दुष्कर्म को लेकर नहीं दिख रहा है। अब ना तो कोई शर्मसार है और ना ही किसी चेहरे पर शिकन। किसी के गमगीन या गुस्सा होने का तो कहीं नामोनिशान तक नहीं है। संवेदनाओं का सैलाब भी सूख गया है। हमदर्दी और हिम्मत दिखाने वालों का भी अकाल है। कागजी बयानों की फेहरिस्त दिनोदिन जरूर लम्बी हो रही है। और इधर कार्रवाई के नाम पर चार पुलिस अधिकारियों को जांच सौंप कर इतिश्री कर ली गई है। ऐसे घिनौने और गंभीर मामले की न्यायिक जांच होनी चाहिए।


साभार- पत्रिका भिलाई के 01 अप्रेल 13 के अंक में प्रकाशित।

कुछ तो ऐसा कीजिए, जो याद रखें

टिप्पणी 

श्रीमान, आयुक्त, नगर निगम, भिलाई
निगम आयुक्त का पदभार संभालने के बाद आपने शहर की बदहाल सड़कों को ठीक करने की दिशा में तत्परता दिखाते हुए ठेकेदारों के खिलाफ जो कार्रवाई की थी, उसको लोग अभी भूले नहीं हैं। यह बात दीगर है कि सड़कों की दशा में ज्यादा सुधार नहीं हो पाया। इसका प्रमुख कारण यह है कि आप जितनी मेहनत कर रहे हैं, उसका उतना न तो प्रतिफल मिल रहा है और ना ही कहीं प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। यह भी विडम्बना है कि भिलाई निगम क्षेत्र में आपके नेतृत्व में कई तरह के अभियान तो चलाए गए, लेकिन मंजिल तक कोई नहीं पहुंचा। अभियानों का आगाज जरूर प्रभावी अंदाज में हुआ, लेकिन उद्देश्य की पूर्ति किसी से भी नहीं हुई। सभी अभियानों का हश्र कमोबेश एक जैसा ही रहा और सभी पूर्ण होने से पहले ही दम तोड़ गए।
आपके खाते में ऐसे अधूरे अभियानों की फेहरिस्त बेहद लम्बी है। शहर में सरकारी आवासों से अवैध कब्जों को हटाने की मुहिम बड़े जोर-शोर से शुरू हुई थी, लेकिन कब्जे कितने हटे आप भी जानते हैं। यही हाल नाले पर अतिक्रमण हटाने का रहा। महज दो दिन फूं फां करके आपका अमला अचानक चुपचाप बैठ गया। नेहरूनगर के आवासों में व्यावसायिक गतिविधियां संचालित करने वालों को नोटिस देकर कार्रवाई के नाम पर रहस्यमयी चुप्पी साध ली गई। यही नहीं शहर में अवैध तथा बिना टोंटी के नलों को बंद करने की कार्रवाई भी पता नहीं क्यों बंद हो गई। गर्मी के मौसम में आज भी शहर के कई हिस्से पानी के लिए तरस रहे हैं। इधर, सुपेला में रविवार को लगने वाले साप्ताहिक बाजार को दूसरी जगह स्थानांतरित करने को भले ही आप और आपके मातहत बड़ी उपलब्धि मानें, लेकिन आज भी सुपेला की सड़क अतिक्रमण से मुक्त नहीं है। सड़क पर न केवल अस्थायी दुकानें बेखौफ लग रही हैं, बल्कि स्थायी दुकान वालों ने भी सामान सड़क तक खिसका कर कब्जा जमा लिया है। यकीन नहीं हो तो आप स्वयं मौका देख सकते हैं।
शहर में सर्वाधिक चर्चा तो सर्विस लेन से कब्जे हटाने की कार्रवाई को लेकर हो रही है। दो-चार दिन कार्रवाई चली, उसके बाद आप अवकाश पर चले गए और आपके मातहतों को अभियान बंद करने की जोरदार वजह मिल गई। पहले तो वे कहते रहे कि आयुक्त आएंगे तब कार्रवाई होगी, लेकिन आपके लौटने के बाद भी कोई हलचल नहीं हुई। उलटे जहां से कब्जे हटाए गए थे, वहां अतिक्रमी फिर से काबिज हो गए। अभियानों का इस तरह गला घोंटने से आपकी एवं मातहतों की कार्यप्रणाली पर कई तरह के सवालिया निशान और अवैध वसूली के चक्कर में अभियान से समझाौता करने तक के आरोप लग रहे हैं। इन सवालों और आरोपों का पटाक्षेप तभी होगा, जब तमाम तरह के हस्तक्षेप एवं दवाबों को नजरअंदाज कर अधूरे  अभियानों को कारगर कार्रवाई कर पूर्ण किया जाए। बेहतर होगा जनहित से जुड़े अभियानों का आप स्वयं औचक निरीक्षण करें। और अगर अभियानों में इसी तरह  औपचारिकता ही निभानी है तो बेहतर है उनको शुरू ही नहीं किया जाए।
बहरहाल, आम जन से जुड़े अभियानों का इस तरह गला मत घोंटने दीजिए। उनको जिंदा रखिए। अभियान जिंदा रहेंगे तभी आमजन को राहत मिलेगी। एक बात और, आरामतलबी एवं कामचोरी आपके जिन मातहतों की आदत में आ चुकी है, इनके लिए दिशा-निर्देश या फटकार किसी भी सूरत में कारगर नहीं हो सकते। ऐसे लोगों के खिलाफ कड़ाई जरूरी है। अगर आप वाकई में कुछ करने का माद्दा रखते हैं तो आपको जनहित में कड़े फैसले व सख्त कार्रवाई से हिचकिचाना नहीं चाहिए। बात चाहे आपके मातहतों की हो या फिर अभियानों की, कुछ तो ऐसा कीजिए, ताकि भिलाई के लोग आपको कुशल व दक्ष अधिकारी के रूप में लम्बे समय तक याद रखें। 

 
साभार- पत्रिका भिलाई के 31 मार्च 13 के अंक में प्रकाशित। 

Saturday, March 30, 2013

बिल, बयान और बवाल-6


बस यूं ही

आंखों की जिंदगी में अहमियत इतनी है कि इनके बिना किसी तरह की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। आंख है तभी तो दुनिया रोशन है, रंगीन है। आंखों के बिना तो घुप अंधेरा है। आप देख ही नहीं पाएंगे कि दुनिया कैसी है और उसमें क्या हो रहा है। आंखों के फिल्मी गीतों से संबंध को लेकर संभवत: यह आखिरी कड़ी है। इसके बाद इस बिल के संभावित परिणाम पर नजर डाली जाएगी। वैसे आज भी आंखों से संबंधित करीब तीन दर्जन गीत याद आ रहे हैं। बहुत चर्चित गीत है, यकीनन आपने भी सुना होगा और गुनगुनाया भी होगा। 'तुम्हारी नजर क्यों खफा हो गई, खता बख्श दो गर खता हो गई...।' अब कोई नजरों से खफा होने के बारे में पूछेगा ही नहीं। ऐसे में खता होने की गुंजाइश भी कम हो जाएगी। लेकिन संकट यह भी है कि अब नजर खफा है या नहीं इसका पता लगाना भी टेढ़ी खीर होगा। अब तो नजर जैसी है, वैसी ही रहे तो गनीमत है। वैसे अपुन को आंखों पर लिखे कई मुहावरे व शेरो-शायरियां भी याद हैं लेकिन फिलहाल चर्चा गीतों की ही होगी। यह गीत देखिए 'नैनों में सपना, सपनों में सजना...' इसमें जरूर बचाव का रास्ता दिखाई दे रहा है। आखिर देखना या घूरना ही तो अपराध है। किसी के सपने देखना अपराध थोड़े ही है। वह चाहे जागती आंखों से देखे या फिर सोते हुए, यह उसकी मर्जी। हां भविष्य में सपनों पर भी रोक लग जाए तो कह नहीं सकता लेकिन फिलहाल इस गीत को सुनने या गुनगुनाने में मेरे कोई खतरा नजर नहीं आता। शायद फिल्म वालों को भी नहीं आता। तभी तो यही गीत पहले जितेन्द्र पर फिल्माया गया और और अब नए कलेवर में अजय देवगन पर। लेकिन इस प्रकार के बिना खतरे वाले गीत कम ही हैं। 'तेरे दिल ने न जाने क्या कहा, तेरे नैन मेरे नैन देखते रहे...।' अब यहां तो फंसने के पूरे-पूरे आसार बन रहे हैं। अब दिल चाहे कुछ भी कहे लेकिन नैन आपस में देखने से तौबा कर लेंगे।
खैर, बिल, बहस और बवाल को लेकर यह छठी कड़ी हैं और लगातार आंखों पर ही लिखा जा रहा है। लेकिन लेखन को लेकर कोई अपुन पर किसी तरह का 'वाद 'चस्पा ना करे। क्योंकि अपुन को न वाद पसंद है और ना ही विवाद। अपुन को तो बस निर्विवाद बना रहना चाहते हैं। वैसे ईमानदारी की बात तो यह है कि घूरने एवं ताकने को अपुन भी बुरा मानते हैं, लेकिन इसका पैमाना क्या होगा, बहस इसी बात को लेकर है। मतलब इसकी आड़ में इसका दुरुपयोग होने की आशंका रहेगी। अपुन उसी आशंका को आधार बनाकर लिख रहे हैं कि ऐसा हो जाएगा तो भी खतरा है। ऐसा भी नहीं है कि अपुन के लिखने से कानून या नियम तोडऩे वाला रुक जाएगा। देश में कानून एवं नियम अक्सर टूटते रहते हैं। गाहे-बगाहे उनका दुरुपयोग होता रहता है। वैसे अपुन की फितरत नियम एवं कानून को मानने एवं उनका पालन करने की ही रही है। इसलिए कोई यह ना समझ ले कि मैं ऐसा करके नियम या कानून पर कोई टीका-टिप्पणी कर रहा हूं। सार यही है कि लेख लिखने के पीछे अपुन की नेक नियति पर किसी को किसी तरह का शक ना हो और ना ही कोई सवाल उठाए। अपुन सभी का बराबर सम्मान करते हैं। भले ही वह आधी दुनिया हो या पूरी। अपना उद्देश्य केवल और केवल हास-परिहास एवं मनोरंजन है। अपुन का लिखा किसी को दिल पर लग रहा है तो माफ करे। किसी को भूल से भी दिल पर नहीं लेना चाहिए। भागदौड़ एवं तनाव भरी जिंदगी में वैसे भी हंसने या मनोरंजन के लिए किसके पास वक्त है। अपुन ने तो हंसाने का एक अदना सा प्रयास किया है। हाथ की पांचों अंगुलियां ही बराबर नहीं होती है तो फिर मानसिकता एक होना तो संभव ही नहीं है। अपुन तो यही सोच कर लिख रहे हैं कि अपुन के लिखे से किसी को बुरा नहीं लगे। फिर भी बात मानसिकता वाली आती है, लिहाजा किसी को बुरी लग भी सकती है। फिर भी पुरजोर शब्दों में आग्रह है कि , इस विषय को बेहद हल्के-फुल्के एवं मनोरंजन करने वाले अंदाज में ही लें, पढ़कर गंभीर तो कतई ना हों। अफसोस जताना है या नहीं यह अपुन आप सब के विवेक पर छोड़ते हैं।
अब, आंखों और बिल के बीच अपुन की बात भी तो रखनी थी ना। लेकिन बात रखने का अंदाज बड़ा हो गया और आंखों वाले गीत फिर छूट गए। चलो कोई नहीं। जब इतना ही झेल लिया तो फिर इतना तो हक बनता ही है। वैसे भी दो चार लाइन ज्यादा पढऩे से कौन सा फर्क पड़ जाएगा। एक बात और है, लिखना भी आपके मूड पर निर्भर रहता है। जिस दिन जैसा मूड होता है वह आपके विचारों में झलक जाता है। अब यह मत सोच लेना कि अपुन का मूड आज कैसा था जो आंखों से हटकर लिख दिया। सच बताऊं तो आज लिखने का मूड ही नहीं था। मतलब गंभीरता नहीं थी। आधे-अधूरे मन से ही शुरुआत की, वह भी काफी देर से। अब कड़ी तो पूरी करनी थी ना। सौ लगे रहे रबड़ की तरह बढ़ाने में। वैसे मूड मजाकिया भी नहीं था। बिलकुल बीच का सा था। अब बीच में रहने से नुकसान की आशंका ज्यादा रहती है। लगता है कि आज की कड़ी पूरी होने को है। जाते-जाते एक गीत याद आ रहा है। 'मेरे नैना, सावन भादो, फिर भी मेरा मन प्यासा...।' अपुन के पसंदीदा गायक किशोर कुमार का गाया यह गीत मौजूदा माहौल में जरूर प्रासंगिक लगता है। क्योंकि इस गीत के बोलों में अपुन को कोई खतरा नजर नहीं आता। ऐसे में यह गीत दुबारा चर्चा में आ जाए तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए। जमाना रीमेक का है। हिम्मतवाला फिल्म का गीत आपके सामने है, जिसका जिक्र पूर्व में किया जा चुका हैं। तो आप भी नैन बंद करके सपने देखिए क्योंकि 'देखा एक ख्याब तो यह सिलसिले हुए, दूर तक निगाह में है गुल खिले हुए...' शायद आपको भी खिले हुए गुल नजर आ जाए।     
... 

क्रमश:                                                                                                                                                 

Friday, March 29, 2013

बिल, बयान और बवाल-5


बस यूं ही

बचपन से लेकर जवानी की दहलीज पर कदम रखने तक अपुन ने आंखों
को  केन्द्र मानकर लिखे गए बहुत से गीतों को बार-बार सुना है। क्यों एवं कैसे सुना इसमें आप दिमाग मत लगाना। अपुन को भारतीय संगीत से प्रेम है और सभी तरह के गीत सुने हुए हैं बस। फिल्म देखने का शौक तो बचपन में ही लग गया था, लिहाजा उन फिल्मों के गीत जुबान पर चढऩे लाजिमी थे। आलम यह था कि घर में नीम के पेड़ की सबसे ऊंची शाखा पर जाकर अपुन बैठ जाते और फिर जैसा भी बनता जोर-जोर से गाने लगते। उस वक्त जो भी गाना सुनते बस गुनगुनाने लगते। उम्र रही होगी यही कोई सात-आठ साल। एक दिन तो एक परिजन ने टोक ही दिया था। अपुन अपनी मस्ती में गाए जा रहे थे 'मोहब्बत बड़े काम की चीज है..' अब परिजन ने पलट के पूछ लिया बेटा यह मोहब्बत क्या होती है और यह किस तरह काम की चीज है। सच कह रहा हूं, यकीन कीजिए अपुन को अर्थ मालूम नहीं था, लिहाजा बगलें झांकने के अलावा कोई चारा भी नहीं था। अब भी वह वाकया याद आता है तो सच में हंसी थमने का नाम नहीं लेती है। खैर, रेडियो तो घर में पैदा होने से पहले ही आ गया था लेकिन टेपरिकार्डर उस वक्त आया जब अपुन ने दसवीं पास की ही थी। बस ऑडियो कैसेट खरीदने का ऐसा चस्का लगा कि 1992 से लेकर 2000 के बीच में जो भी फिल्म प्रदर्शित होती अपुन कैसेट खरीद लाते। देखते-देखते में घर में साढ़े पांच सौ के करीब ऑडियो कैसेट एकत्रित हो गए। खूब गीत सुने। दिन भर यही एकसूत्री कार्यक्रम चलता और गीत सुनते-सुनते ही नींद आ जाती। पढ़ाई के दौरान भी गीत बजते रहते। शौक तो अब भी है लेकिन वक्त नहीं है। घर में अलमारी में रखे वो साढे पांच सौ कैसेट्स धूल फांक रहे हैं। वैसे जमाना हाइटेक हो गया आजकल मोबाइल जितना चाहो गीत डाउनलोड कर लो लेकिन अड़चन वही वक्त की आती है।
खैर, लम्बी चौड़ी भूमिका बांधने का आशय यही था कि गीत से अपुन को जबरदस्त लगाव है और कोई गीत किसी वजह से अप्रासंगिक हो जाए तो अपुन को नागवार गुजरता है। आंखों को लेकर काफी कुछ लिख चुका हूं फिर भी लगता है कुछ छूट रहा है। बस यही सोच कर आगे से आगे लिखता जा रहा हूं। बचपन में सुना यह गीत 'भूल-भुलैय्या सैंया अंखियां तेरी, रस्ता भूल गई मैं, ओ घर जाऊं कैसे...। ' क्या अब मौजूं रह पाएगा, क्योंकि अब रास्ता भूलने का झंझट ही नहीं रहेगा। ना रहेगा बांस और ना बजेगी बांसुरी। चूंकि आंखों को आईना भी कहा गया है। याद आया इस पर एक गीत है 'ये आंखें हैं आईना मेरी जिंदगी का...।' आईने में जिस तरह अक्स उभरते रहते हैं वैसे ही अपनी स्मृतियों में जिंदा आंखों पर लिखें गीत एक-एक कर याद आ रहे हैं। 'तू कुछ कहे ना मैं कुछ कहूं आ बैठ मेरे पास तुझे देखता रहूं..।' कितने प्यारे बोल हैं इस गीत के। ना कुछ कहने की ना सुनने की बस और बस केवल देखने की हसरत है। लेकिन यह हसरत अब घूरने या ताकने की श्रेणी में गिनी जाएगी। 'तुझे देखा तो यह जाना सनम...।' की जुर्रत कौन करेगा। वैसे अपुन ने तो शुरू से ही स्पष्ट कर दिया था कि आंखें हैं तो सब कुछ हैं। अपुन अपने बयान पर अभी कायम हैं लेकिन लोग फिर जाते हैं। अब देखो ना जो सलमान खान दबंग फिल्म में 'मेरे दिल का ले गए चैन, तेरे मस्त-मस्त दो चैन...' गाते हुए नजर आते हैं लेकिन अपनी दूसरी फिल्म दबंग-2 में नैनों को दगाबाज कहने से नहीं चूकते। 'कल मिले थे, भूल गए आज रे, तोरे नैना बड़े दगाबाज रे...।' अब नैन मस्त से दगाबाज कैसे एवं क्यों बने यह तो सलमान ही बता सकते हैं। इधर अजय देवगन भी तो आंखों को तीर कमान समझ बैठे। तभी तो बोल बच्चन में 'चलाओ ना नैणों से बाण रे..। ' गाते हुए नजर आते हैं।
वैसे गीतकारों की नजरों में आंखें कभी सागर, तो कभी मयखाना है। मयखाने से एक गीत का अंतरा याद आ गया। 'इक सिर्फ हमीं मय को आंखों से पिलाते हैं... कहने को तो दुनिया में मयखाने हजारों हैं...। ' अब पीने-पिलाने की बात कहां संभव होगी। वैसे हकीकत की शराब महंगी बहुत हो गई है। ऐसे में लोगों के पास यह विकल्प था लेकिन अब तो यह भी जाता रहेगा। 'छलके तेरी आंखों से शराब और ज्यादा...।' तथा 'आंखों में मस्ती शराब की..।' अब गुजरे जमाने की बात हो जाएगी। ना ही आंखों से शराब छलकेगी और ना ही आंखों में शराब की मस्ती दिखाई देगी। किसी 'पियक्कड़ ' ने पीने की भूल की तो अंजाम के लिए भी तैयार रहे। कहने वालों ने तो यहां तक कह दिया कि 'ये हल्का-हल्का सुरुर है, सब तेरी नजर का कसूर, मुझे एक शराबी बना दिया रे मुझे जाम लबों से पिला दिया...।' लेकिन अब सुरुर पैदान करने के लिए दूसरा ठिकाना तलाशना ही बेहतर होगा।
बहरहाल, अभी तक तो आखें में सपने भी सजते रहे हैं और ख्वाब भी महकते रहे हैं। उदाहरण के लिए 'आंखों में हमने आपके सपने सजाए हैं..' , 'आपकी आंखों में कुछ महके हुए से ख्वाब हैं..।' तथा 'हमने देखी है इन आंखों की महकती खुशबू...।' को सुना जा सकता है। कल्पना की ऐसी उड़ान क्या अब संभव है। जब देखना ही प्रतिबंधित हो जाएगा तब न सपने सजेंगे ना ही ख्वाब महकेंगे और ना ही महकती खुशबू का एहसास होगा। किसी ने गुस्ताखीवश या भूल से पूछ लिया कि 'आंखों में क्या जी..।' तो पलटवार करते हुए जवाब दिया जाएगा 'आंखों में कयामत के बादल..।' आंखों में कयामत के बादल साक्षात नजर आएंगे तो कोई आ बैल मुझे मार की कहावत क्यों चरितार्थ करेगा। इतना ही नहीं अब तो कोई यह कहकर कि 'तेरी आंख का जो इशारा ना होता.. तो बिस्मिल कभी दिल हमारा ना होता..। ' की दलील भी तो नहीं दे सकता...। क्योंकि आंखें, आंखों को देखेंगी ही नहीं तो बिस्मिल (घायल/ जख्मी) भला कहां से होंगी।                                                                                                                                                                                                                                    .... क्रमश:

Thursday, March 28, 2013

बिल, बयान और बवाल-4


बस यूं ही

आंखों पर लिखे गए फिल्मी गीत और एंटी रेप बिल को लेकर यह चौथी किश्त है, लेकिन आंखों से संबंधित गानों की फेहरिस्त छोटा होने का नाम ही नहीं ले रही है। घूरने और ताकने के समर्थन एवं विरोध करने वालों के पास अपने-अपने तर्क हैं लेकिन मेरा मानना है कि कई बार नजर अनायास भी मिल जाती है। यकीन मानिए ऐसा कभी आप के साथ भी हुआ होगा। आप देखना कुछ और चाहते हैं लेकिन नजर यकायक कहीं और चली जाती है। यह अलग बात है कि ऐसा होने के बाद चौंकना या झेंपना लाजिमी है। फिर भी गीतकारों ने इस तरह के वाकये को भी कलमबद्ध कर दिया है। 'बेइरादा नजर मिल गई तो, मुझसे दिल वो मेरा मांग बैठे...।' गीत कुछ ऐसा ही है। अब किसी के साथ ऐसा हो जाए और कोई मांग पूरी नहीं करे तो फिर मौजूदा माहौल में हश्र क्या होगा समझा जा सकता है। हां, इस गीत से इतना तो तय है कि नजर इरादतन और बेइरादतन भी मिलाई जाती है। खैर, आंखों और गीतों का एपीसोड लम्बा हो रहा है, लेकिन लम्बे समय से गीतों का तलबगार रहा हूं और अब भी हूं, लिहाजा इस बहाने आंखों से वाबस्ता उन सभी गीतों को याद कर रहा हूं। क्या पता बाद में गीत सुनना तो दूर गुनगुनाने का मौका भी ना मिले। 'तेरे चहरे से नजर नहीं हटती...' यह गीत खूब गाया और गुनागुनाया गया है। कइयों ने गीत के माध्यम से दिल की बात दिलरुबा तक पहुंचाई। लेकिन अब नजर नहीं हटेगी तो हवालात की हवा खानी पड़ जाएगी। इसलिए नजरों की यह 'दादागिरी' अब खत्म ही समझो। चर्चित और हजारों दिलों को जोडऩे वाले गीत का इस तरह दर्दनाक द एंड हो जाएगा कभी सोचा भी ना था ? इसी तरह अब 'जरा नजरों से कह दो तुम निशाना चूक ना जाए...' लेकिन अब निशाना चूकना शर्तिया तय है, क्योंकि अब निशाना लगाना ही गुनाह हो रहा है।
वैसे आंखों की इस चर्चा में एक बात याद आ गई। बचपन में पढे कुछ शेर याद आ गए। ग्रामीण इलाकों में चलने वाली बसों के अंदर कई तरह की शेरों-शायरियां लिखी हुई होती हैं। पहले यह पेंटर से लिखवाई जाती थी, आजकल जमाना तकनीक का है ऐसे में बसों वाले आजकल रेडीमेड स्टीकर चिपका कर काम चला लेते हैं। शेर देखिए 'संत भला एकांत में संसार की बातें क्या जाने, जब नजरों पर पाबंदी हो वो प्यार की बातें क्या जाने..।' बीस-पच्चीस साल पहले लिखे गए शेर का भावार्थ भी यही है कि नजरों पर जब पाबंदी हो तो वे प्यार की बातें नहीं करेंगी। अब कोई 'नजर के सामने, जिगर के पास, कोई रहता है वो हो तुम..' कहेगा तो यकीनन कसूरवार माना या ठहराया जाएगा। 'दिल की आवाज भी सुन, मेरे फसाने पर ना जा, मेरी नजरों की तरफ देख जमाने पे ना जा..' लेकिन अब दिल की आवाज अनसुनी कर दी जाएगी। अब जमाने का नहीं बल्कि कानून का डर नजरों को देखने से रोकेगा। हां, तो चर्चा बसों में लिखे शेरों की हो रही थी। इसी तरह एक शेर था 'नजर से नजर मिली मगर कमाल ना हो सका, हाय रे हाथ उठाया था मगर सलाम ना हो सका..' अब ना कमाल होगा और ना सलाम। अब यह गीत 'अकेली ना बाजार जाया करो, नजर लग जाएगी..।' एक एकदम ही निरर्थक हो जाएगा। नजर तो तभी लगेगी ना जब कोई देखेगा। इसलिए अब नजर लगने का डर खत्म समझो। ऐसे में नजर उतारने वालों की दुकान पर ताला लगना तय है। नजर लगने से संबंधित यह गाना 'तुझे लागे ना नजरिया..' भी अब नेपथ्य में चला जाएगा।
'मुझको हुई ना खबर, कब प्यार की पहली नजर' जैसे गीत अपवाद स्वरूप जिंदा जरूर रह सकते हैं। क्योंकि यहां तो नायिका इतनी बेखबर है कि उसको खबर हुए बिना प्यार भरी नजर उसका दिल चुरा कर ले गई। वैसे गीतों से मेरे को बेहद प्यार है लेकिन यह गीत पता नहीं क्यों बिलकुल भी नहीं जमता। अब हकीकत में ऐसा हो नहीं सकता है, क्योंकि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती है। पहली नजर में प्यार होना तो सभी ने सुना है लेकिन बिना खबर हुए ऐसा होना तो किसी से आश्चर्य से कम नहीं है। उदाहरण के लिए 'सैंया ले गई जिया तेरी पहली नजर...'जैसे गीत को लिया जा सकता है। यहां नजरें पहली बार मिली और दिल भी लगा। कहने का आशय है कि एक दूसरे ने आपस में देखा तभी तो यह संभव हुआ ना। 'जादू तेरी नजर, खुशबू तेरा बदन...' पहले प्रंशसा के दो बोल कह कर बाद में हक जताने की हद भला अब माफी के काबिल कैसे होगी। 'तेरी झुकी नजर, तेरी हर अदा, मुझे कह रही है ये..' यहां तो कुछ कहना ही बेकार है। यहां तो झुकी हुई नजर भी बोल रही है। आखिर में एक गीत और याद आया 'लैला बेचारी क्या करती,, नजरिया मजनूं से लड़ गई..' देखिए गीत में लैला कितनी लाचार और मजबूर हो गई फिर भी दोष नजरों का ही बताया जा रहा है। बहरहाल, आंखों की महिमा अपरमपार है। आंखों से प्यार भला किसको नहीं होगा। हम सभी को है। और कोई आंखों से प्यार न कहने की बात करता है तो यकीनन वह झूठ बोल रहा है। लेकिन मौजूदा हालात में झूठ बोलने वालों की संख्या में दिनोदिन इजाफा हो रहा है। भले ही ऐसे लोग रात को तनहाई में 'किसी नजर को तेरा इंतजार आज भी है..' सुनें और गुनागुनाएं लेकिन बात वही कथनी और करनी में अंतर वाली ही है। इस गीत पर जरा गौर फरमाइए 'चंदन सा बदन, चंचल चितवन...' ऐसा होना स्वाभाविक है। तभी तो नायक सरेआम कहता भी कि उसको दोष मत देना। नायक का यह कहना उचित भी प्रतीत होता है। सुंदरता होती ही देखने के लिए है। उसकी बातों का समर्थन यह शेर भी तो करता है..। 'तुम देखने की चीज हो, इसलिए देखता हूं मैं, मुझको सजा ए मौत जो मेरा कसूर हो..। '
 
...क्रमश:

Tuesday, March 26, 2013

बिल, बयान और बवाल-3


बस यूं ही

बातचीत का सिलसिला इस विषय पर चल रहा था कि एंटी रेप बिल पास होने के बाद आंखों पर आधारित गीतों का हश्र क्या होगा? पिछली कड़ी में आंखों पर जो लिखा गया वह तो केवल परिचय भर ही था। देखा जाए तो आंखों के बिना फिल्मी गीतों का इतिहास ही अधूरा हैं। आंखों को लेकर कई तरह की कल्पनाएं की गई हैं। हां, इतना जरूर है कि कहीं आंखों को बेहद नाजुक एवं खूबसूरत बताया गया है, वहीं, कहीं पर नैन आक्रामक होकर वार करने से भी नहीं चूकते। हालिया प्रदर्शित एक फिल्म का यह गीत 'तेरी अंखियों का वार, जैसे शेर का शिकार' घूरने और ताकने के विरोध में कानून बनाने का समर्थन करने वालों के लिए ढाल की तरह काम करेगा। जब अंखियों का वार शेर के शिकार की तरह होगा तो भला कौन होगा जो ऐसे विकट हालात में आंखों से आंखें मिलाना चाहेगा। वो तो मैं पहले ही कह चुका हूं कि आंखों पर कई विरोधाभासी गाने लिखें गए हैं, फिर भी किसी ने आंखों का विरोध नहीं किया लेकिन मौजूदा समय में विरोध होना बड़ी बात नहीं है, क्योंकि देश में बहुत से ऐसे लोग भी हैं, जिनको बेवजह बाल की खाल निकालने की आदत है। ऐसे लोगों के लिए मौजूदा माहौल एकदम मुफीद है। हालांकि इस बात की गुंजाइश ना के बराबर है, फिर भी कई गीतों में आंखों को आक्रामक और दबंग बताया गया है। घूरने और ताकने के आरोपों को यह गीत पुष्ट जरूर कर सकते हैं। यह गीत देखिए 'अंख लड़ गई मेरी अंख लड़ गई...।' यहां आंख लड़ रही है। 'आंख लडऩा।' एक चर्चित मुहावरा भी है। यह बात दीगर है कि आंखों के लडऩे के पीछे गहरा राज छिपा है। मतलब उनके एक होने से पहले इस तरह की लड़ाई होना लाजिमी है, लेकिन गीत ख्यामखाह की आंखों को लड़ाकू बता रहा है। 'आंखों का था कसूर छुरी दिल पर चल गई...' भला वास्तव में ऐसा होता है क्या.? फिर भी कसूरवार आंखें ही हैं, वो दिल पर छुरी चला रही हैं, इस कारण वो कातिल की भूमिका में हैं। 'एक आंख मारूं तो..' इस गीत में तो कल्पना की ऊंची और अविश्वनीय उड़ान है। पहले एक आंख फिर दूसरी और आखिर में दोनों आंखों के बारे में बताया गया है। मसलन एक आंख मारने से रास्ता रुक जाता है, तो दूसरी आंख मारने से जमाना झुक जाता है। दोनों साथ-साथ मारने से लड़की पटने का दावा किया गया है। हकीकत में ऐसा संभव है भला ? फिर भी गाना न केवल हिट है बल्कि बदस्तूर जारी है।
वैसे अक्सर बातचीत में कहा जाता है। आपने भी जरूर कहीं सुना होगा कि आंखों की भाषा आखें ही समझती हैं। अब आंखें, आंखों की तरफ देखेंगी ही नहीं फिर तो भाषा समझ में कैसे आएगी। सीधा सा फंडा है कि नजर से नजर मिलने पर ही पता चलता है कि आंखों की भाषा क्या है। लेकिन विरोधाभास की गुंजाइश यहां भी है। वह भी भरपूर मात्रा में है। लोग कहते हैं आखों की भाषा समझने के लिए आंखों का आपस में मिलना जरूरी है। कोई इनको लडऩा भी कहता है लेकिन अर्थ एक ही है। तभी तो इनके समर्थन में 'नैनों को करने दो, नैनों से बात आओ हम चुप बैठें...' जैसे गीतों की रचना हुई, क्योंकि जब नैन बात करते हैं तो जुबान खामोश हो जाती हैं। अब कोई इस तर्क को यह कहकर कि 'उनसे मिली नजर कि मेरे होश उड़ गए...' गलत साबित करने का प्रमाण दे तो दे लेकिन नजर मिलने से होश कितनों के उड़े। कम से मैंने तो ऐसा नहीं सुना और ना ही कोई मेरे को ऐसा मिला जिसके नैनों से किसी का होश उड़ गया हो..। खैर, जैसे दिन-रात, सच-झूठ अच्छा-बुरा आदि विषयों पर गाने लिखे गए हैं। वैसे ही आंखों पर लिखे गए हैं, इनका अंदाज अलग है लेकिन भावार्थ कमोबेश एक जैसा ही है। हां इतना जरूर है गीतों के बोल कहीं सरल, सीधे, सपाट एवं आसानी से समझ में आ जाते हैं तो कहीं वे गूढ़ और कलिष्ट हो जाते हैं।
आंखों से संबंधित गीतों के इस विरोधाभास के विवरण को आगे बढ़ाए तो पाएंगे कि एक तरफ 'अंखियों से गोली मारे, लड़की कमाल रे' 'आंख मारे, सिटी बजाए, ओ लड़की आंख मेरे', 'अंखियां लड़ी हो बीच बाजार..दिल मेरा लुट गया पहली बार' और 'रफ्ता-रफ्ता देखो आंख मेरी लड़ी है' जैसे गीतों की फेहरिस्त लम्बी है, जो आंखों के लडऩे, झगडऩे और उनसे गोली मारने तक की बात करते हैं। चूंकि हम आंखों के लडऩे की बात पहले कर चुके हैं। यहां गोली मारने का उल्लेख हुआ है, मतलब आंख अब बंदूक का काम भी करने लगी है। सचमुच में ऐसा हो तो फिर देश में सेना के लिए गोला-बारुद पर अरबों-खरबों रुपए खर्चने की जरूरत की कहां है। यह काम तो अंखियां ही कर देती। बहरहाल, आंखों को इस तरह आक्रामक, लड़ाकू, कातिल एवं बंदूक की संज्ञा देने वालों को एक तरह से नकारात्मक प्रवृत्ति का ही माना जाएगा, क्योंकि ऐसे गीतों की रचना होने के कारण ही तो आंखें बदनाम हो रही हैं। आंखों को खलनायक बनाने वाले इस तरह के गीत ही आरोपों को मजबूत कर रहे हैं। घूरने एवं ताकने को कानून बनवाने का समर्थन करने वालों के लिए ऐसे गीत बतौर सबूत काम आ सकते हैं। उदाहरण बन सकते हैं। वैसे यह सब अपना-अपना नजरिया है, वरना आंखों की महिमा किसी से छिपी नहीं है। आंखों की कीमत पूछनी है तो किसी अंधे से पूछो। कहा भी गया है कि आंख गई तो संसार गया है। इस प्रकार की सकारात्मक सोच वालों की बदौलत ही तो 'देखा है तेरी आंखों में प्यार ही प्यार..' तथा ' तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है....' जैसे गीत रचे गए हैं। लेकिन इनको अब याद कौन रखेगा। हमारी कथनी और करनी में अंतर की खाई बहुत गहरी हो चुकी है। कोई सच कहताभी है तो उसका विरोध हो जाता है। वह भी इसीलिए क्योंकि खुद को पाक दामन और चरित्रवान बताने का दावा अमूनन सभी करते हैं। ईमानदारी एवं दिल पर हाथ रखकर बताएंगे तो यकीनन 'इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं..' वाला गीत चरितार्थ होते देर नहीं लगेगी। ऐसा हकीकत में है फिर भी दोगलापन दिखाया जा रहा है। पता नहीं क्यों...?
 

....क्रमश:

Friday, March 22, 2013

बिल, बयान और बवाल-2


बस यूं ही

एंटी रेप बिल अमल में आया तो फिल्मी गीतकारों को फिर नए अंदाज में सोचना पड़ेगा। नए सिरे से गीतों की रचना करनी पड़ेगी। कई कालजयी गीतों पर बेमानी होने का खतरा मंडराने लगेगा। गीतकार भविष्य में आंखों को केन्द्र में रखकर गीत लिखने से परहेज करने लगे तो कोई बड़ी बात नहीं। क्योंकि घूरने या ताकने के लिए बजाय किसी हथियार या साधन के सिर्फ और सिर्फ आंखों की ही जरूरत पड़ती है और किसी ने आंखों का महिमामंडन तो दूर आंखों से संबंधित गीत भी गुनगुनाए तो वह भी गुनाह ही माना जाएगा। गुनाह करने वाले की प्रशंसा करना भी तो एक तरह का सहयोग ही हुआ और गुनाह में सहयोग तो सीधा-सीधा अपराध की श्रेणी में ही आएगा। खैर, आंखों से जुड़े गीतों को याद करने बैठा तो फिर लम्बी सूची बन गई। आंख, नैन, निगाह, नजर आदि सभी इसी श्रेणी में तो आएंगे। सबसे पहले गीत याद आया 'आंखों ही आंखों में इशारा हो गया...बैठे-बैठे जीने का सहारा हो गया...' लेकिन अब आंखों में इशारा कैसे होगा। आंखें, आखों को देखने से ही डरेंगी, तो इशारा भला क्या खाक करेंगी। और जब इशारा ही नहीं होगा तो जीने के सहारे का तो सवाल ही नहीं उठता है। इसी कशमकश के बीच एक और गीत याद आया 'अंखियों को रहने दे अंखियों के आसपास, दूर से दिल की बुझती रहे प्यास।' अब ऐसे माहौल और कानून के डर के आगे अंखियां, आंखों के पास कैसे रह सकती हैं। जाहिर सी बात है ऐसे में प्यास भी फिर अधूरी ही रहेगी। 'सरबती तेरी आंखों की गहराई में मैं डूब जाता हूं...' अब ऐसा कहना तो बड़ा ही संगीन अपराध होगा। जहां देखना तक गुनाह है, वहां डूबना तो उससे भी बड़ा अपराध हो जाएगा। लिहाजा डूबने की तो अब कल्पना करना ही बेकार है। 'ये रेशमी जुल्फे, ये सरबती आंखें, इन्हे देखकर जी रहे हैं सभी...' लेकिन अब ऐसा कहने वाले और जीने वालों की संख्या कितनी रह जाएगी, अंदाजा लगाया जा सकता है। 'तुझे देखें मेरी आंखें, इसमें क्या मेरी खता है..' वाकई कभी ऐसा करना खता नहीं था लेकिन अब हो जाएगा और किसी ने दिल के हाथों मजबूर होकर यह खता कर भी दी तो उसकी खैर नहीं होगी। सोचनीय विषय तो यह है कि किसी को देखने को खता न मानने वाले ने भूल से भी यह गीत गुनागुनाया तो मान लिया जाएगा कि उसके ख्याल 'नेक' नहीं हैं। 'नैन लड़ जैहें तो मनवा मा कसक होय ब करी... ' लेकिन अब नैन लडऩे की संभावना पर लगभग पूर्ण विराम लग जाएगा तो फिर मन में न तो कसक होगी और ना ही प्रेम का पटाखा छूटेगा। दिल की बात अब दिल में रहेगी। और किसी ने 'चोरी-चोरी तेरे संग अखिंया मिलाई रे..' की तर्ज पर आंख मिला भी ली तो वह गंभीर परिणाम भुगतने के लिए खुद को तैयार रखे। एक और गीत है ना.. 'आंखों के रस्ते, तू हंसते-हंसते दिल में समाने लगा है..।' लेकिन आंखों के रास्ते पर अब बैरियर लग चुका है, लिहाजा आंखों के सहारे दिल की तरफ जाने का रास्ता अब बंद ही समझो । और किसी ने इस रास्ते पर चलने की सोची तो फिर 'सवारी अपने सामान की रक्षा स्वयं करे...' के जुमले को दिमाग में रखना होगा। 'अंखियों के झरोखे से तूने देखा जो सांवरे...' कल्पना कीजिए, बेचारा सांवरा क्या अब ऐसा कर पाएगा। वह तो आंखों के झरोखे से तो दूर सीधी आंखों से देखने से तौबा करता दिखाई देगा।
ऐसी विषम परिस्थितियों एवं प्रतिकूल माहौल में आंखों का अतिश्योक्ति वर्णन या कई तरह की उपमाओं का दौर खत्म हो जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वैसे देश में विभिन्न मतों का समर्थन करने और उनको मानने वाले लोग रहते हैं लेकिन आंखों के साथ यह सुखद संयोग जुड़ा है कि उसको समर्थन ही मिला है। गीत चाहे कैसा भी हो, भले ही वह आंखों की बड़ाई करें, आलोचना करें, उलाहना दें या फिर कोई उपमा दें। ऐसा है तभी तो जो आंखें जीने का सहारा बनती हैं, वही आंखें जुल्मी भी बन जाती हैं। ठीक आंखों का तारा होना और आंखों की किरकरी होना की तर्ज पर। यकीन ना हो तो देखिए..। 'जीवन से भरी तेरी आंखें, मजबूर करे जीने के लिए...' यहां आखों में जीवन नजर आता है वो जीने के लिए मजबूर करती नजर आती हैं लेकिन दूसरे ही पल 'ओ गौरी तेरी नैना हैं जादू भरे, हम पे छुप-छुप जुल्म करे' वह जुल्म पर उतारू हो जाती हैं। कितना विरोधाभास है फिर भी कोई विरोध नहीं है, आलोचना नहीं है। लेकिन अब ऐसे गीत लिखे जाएंगे तो विरोध की आशंका बलवती हो उठेगी। क्योंकि विरोध ही नहीं हुआ तो लोग ऐसे गीतों से प्रेरणा लेंगे और वास्तविक जीवन में उतारने का प्रयास करेंगे। इतिहास गवाह है। ऐसा होता आया है। देश में प्यार पनपाने में फिल्मों का बड़ा योगदान रहा है और अब भी मौजूं हैं। जब आंखों को इस देश में इतना मान-सम्मान मिला है। आंखों पर लिखे गए गीतों को गुणग्राहकों व कद्रदानों ने दिल से लगाया है तो फिर इस एंटी रेप बिल के बहाने आंखों को खलनायक बनाने का सवाल तो गलत ही हुआ ना। सभी भेड़ चाल में हां-हां में मिलाए जा रहे हैं। कोई आंखों का समर्थन कर रहा है तो उसका विरोध किया जा रहा है। वैसे यह देश विविधता से भरा है। यहां खुली आंखों के ही नहीं बल्कि बंद आंखों के मुरीद भी मिल जाएंगे। ऐसा है तभी तो 'ये तेरी आंखें झुकी -झुकी , ये तेरा चेहरा खिला-खिला, बड़ी किस्मत वाला है वो प्यार तेरा जैसा मिला' जैसे गीतों की रचना हुई। मौजूदा हाल में ऐसे गीतों में ही बचाव की आंशिक गुंजाइश नजर आती है, क्योंकि यहां कशीदे खुली आंखों के नहीं बल्कि झुकी हुई आंखों की शान में गढ़े और पढ़े जा रहे हैं। लेकिन जब कोई पलटवार करते हुए यह गाने लगे कि 'तुम्हारी नजरों में हमने देखा, अजब सी चाहत झलक रही है, ना देखो ऐसे झुका के पलकें हमारी नियत बहक रही है..।' अब इसका इलाज क्या होगा। यहां तो झुकी हुए पलकें देखकर ही नियत डोल रही है। ऐसे में तो फिर भगवान ही मालिक है। ......  


क्रमश: ..

बिल, बयान और बवाल-1


बस यूं ही

अस्सी के दशक में आई फिल्म राम तेरी गंगा मैली का एक चर्र्चित गीत हम सभी ने सुना ही होगा। गीत के बोल थे 'सुन साहिबा सुन, प्यार की धुन...' इसी गीत का एक अंतरा है, जिसके बोल हैं 'कोई हसीना कदम, पहले बढ़ाती नहीं, मजबूर दिल से ना हो, तो पास आती नहीं..' इसके ठीक अगले अंतरे के भाव भी कमोबेश ऐसे ही हैं 'तू जो हां कहे तो बन जाए बात भी, हो तेरा इशारा तो चल दूं मैं साथ भी..' दोनों ही अंतरों के भावार्थ देखें तो मतलब साफ है कि नायिका, नायक से यह अपेक्षा रखती है कि वही पहल करे और इशारा भी। ऐसा न कर पाने के लिए वह अपनी मजबूरी भी बयां करती हैं। प्रसिद्ध गीतकार हसरत जयपुरी की ओर से लिखे इस गीत के करीब 28 साल बाद जद यू नेता शरद यादव द्वारा दिया गया बयान भी इस गीत के बोलों के आसपास ही प्रतीत होता है। हाल ही में संसद में एंटी रेप बिल पर बहस के दौरान जद यू नेता यादव ने कहा था कि 'जब महिला से बात करनी होती है, तब पहल महिला नहीं करती है। पहल तो हमें ही करनी होती है। कोशिश तो हमें ही करनी पड़ती है। प्यार से बताना पड़ता है। यह पूरे देश का किस्सा है, हमने खुद अनुभव किया है। हम सब लोग उस दौर से गुजरे हैं, उसको ऐसे मत भूलो।' विडम्बना देखिए गीत सुपर-डुपर हिट रहा लेकिन बयान विवादित हो गया। बयान को लेकर चटखारे लिए जा रहे हैं, व्याख्याएं की जा रही हैं। बयान का विरोध एवं समर्थन करने वालों के पास अपने-अपने तर्क हैं और उसी के हिसाब से शरद बाबू के बयान को परिभाषित किया जा रहा है। देशव्यापी बहस चल रही है। इतना ही नहीं बहस घूरने एवं पीछा करने की बात पर भी चल रही है।
यह बिल वैसे तो शुरू से ही विवादों एवं चर्चा में रहा है। पहले सम्बंधों की उम्र १६ करने को लेकर बहस छिड़ी तो अब घूरने एवं पीछा करने जैसी बातों के लिए। संसद में जिस दिन यह बिल पास हुआ, उसी दिन मन में सवाल था कि घूरने एवं पीछा करने के आरोपों की सच्चाई जानने का पैमाना क्या होगा। मैंने घूरना शब्द के बारे में गंभीरता से सोचा। शब्दकोश में इस शब्द के पर्यायवाची भी देखे। सार यही रहा कि देखना से ही घूरना शब्द बना है और उसी को ताकना भी कहते हैं। ताकना से तात्पर्य स्थिर दृष्टि से ध्यानपूर्वक देखना व कुदृष्टि डालना होता है। इसी तरह घूरना का मतलब आंखें गड़ाकर देखना, क्रोधभरी नजर से देखना या कामातुर होकर देखना होता है। इन्ही शब्दों से मिलता-जुलता एक और शब्द है, निहारना। इसके मायने हैं, निरखना या गौर से देखना। विडम्बना यह है कि यह सभी शब्द आपस में समानार्थी हैं लेकिन इनका प्रयोग परिस्थितियों के हिसाब से किया जाता है। देखना या निहारना शब्द इतने आपत्तिजनक नहीं हैं, जितने कि ताकना या घूरना। ताकना या घूरना शब्द भी जरूरी नहीं गलत मकसद के साथ ही जोड़े जाएं या प्रयोग किए जाएं। मसलन कोई संकट के समय में मदद के लिए किसी की तरफ उम्मीद भरी नजरों से ताकता है तो कोई किसी अपराधी को सजा मिलने या पकड़े जाने की स्थिति में विजयी मुद्रा के हिसाब से भी देखता है, तब उसका अंदाज कमोबेश घूरने जैसा ही होता है। खैर, विषय रोचक लगा है, इसलिए अपन ने इस पर लिखने का मानस तो पहले दिन ही बना लिया था। रात को कार्यालयीन काम पूर्ण होने के बाद घर गया और धर्मपत्नी से रूबरू होते हुए कहा कि देश में अब महिलाओं को घूरना या ताकना भी अपराध हो गया है। मेरा सवाल पूर्ण होने से पहले ही धर्मपत्नी का जवाब आया इसका सबूत क्या होगा। यकीन मानिए उसके पलटवार का मेरे पास कोई माकूल जवाब नहीं था। भले ही मेरे तर्कों को महिला विरोधी मान लिया जाए लेकिन देश में दहेज प्रताडऩा एवं अनाचार के ऐसे मामलों में फेहरिस्त बहुत लम्बी है, जो जांच के बाद झूठे पाए गए। दहेज प्रताडऩा में गवाह एवं अनाचार के मामलों में मेडिकल जांच मामले की सत्यता जांचने का आधार बनते हैं लेकिन घूरना या ताकना के प्रावधान में तो ऐसी कोई संभावना भी तो नजर नहीं आती है। जाहिर सी बात है ऐसे में इस प्रावधान के गलत उपयोग की आशंका अधिक होगी। मन में विचारों का द्वंद्व चलता रहा लेकिन धर्मपत्नी के सवाल का जवाब खोज नहीं पाया।
द्वंद्व को शब्दों में पिरोने का विचार तो शुरू से ही था लेकिन आज बिल के राज्य सभा में पास होने की खबर होने के बाद एक वेबसाइट देखी तो चौंक गया। इसमें बताया गया था कि इस एंटी रेप बिल से घूरकर देखने के अपराध को प्रावधान हटा दिया गया है। एक पल फिर रुक गया, सोचा जब विषय ही खत्म हो गया है तो फिर लिखना प्रासंगिक नहीं होगा। अचानक ख्याल आया कि वेबसाइट पर दी गई जानकारी गलत भी तो हो सकती है। बस फिर क्या था लगातार टीवी चैनलों एवं समाचार पत्रों की वेबसाइट खंगालने में जुट गया। करीब एक घंटे की माथापच्ची करने के बाद भी सफलता नहीं मिली। आखिरकार अपनी पीड़ा को लिखकर संबंधित चैनलों एवं बेवसाइट के लिंक के साथ फेसबुक पर चस्पा कर दिया। इसके बाद सर्वप्रथम रतनसिंह जी भाईसाहब का कमेंट आया। उन्होंने भी इसी विषय पर ज्ञान दर्पण डॉट कॉम में विस्तार से लिखने की जानकारी दी। मैंने तत्काल उनकी पोस्ट पोस्ट पढ़ी। उन्होंने इस प्रावधान के अमल में आने के बाद की संभावित परिस्थितियों का जो खाका खींचा वह न केवल चौंकाने वाला बल्कि सोचने पर मजबूर भी करता है। सटीक शब्दों में व्यंग्यात्मक शैली में लिखी उनकी पोस्ट इतनी पठनीय लगी है कि मैं एक सांस में नॉनस्टॉप पढ़ गया। पोस्ट पढऩे के बाद द्वंद्व फिर शुरू होना लाजिमी था। रहा सहा पोस्ट पर कमेंट लिखा, जिसमें इसी विषय पर लिखने का जिक्र भी कर दिया। खैर, ईमानदारी से कहूं मैंने भी व्यंग्यात्मक शैली में लिखने का मानस बनाया था। लेकिन मेरा अंदाज अलग होगा। 

क्रमश: ...

Thursday, February 28, 2013

ये लिफ्ट ठीक करवा दीजिए!


टिप्पणी

श्रीमान, जिला कलक्टर, दुर्ग।
विडम्बना देखिए, जिले के लोग दूर-दूर से हर सप्ताह जनदर्शन में अपनी फरियाद इस उम्मीद से लेकर आपके पास आते हैं कि उसका निर्धारित समय अवधि में निराकरण होगा। उनके साथ न्याय होगा, उनको राहत मिलेगी। खैर, फरियादियों की समस्याओं का निराकरण कितना होता है, यह अलग विषय है लेकिन आपके कार्यालय परिसर में ही एक समस्या पिछले आठ माह से बनी हुई है। बार-बार आपके संज्ञान में लाने के बावजूद यह समस्या यथावत है। करीब तेरह लाख रुपए खर्च करके जिस उद्देश्य की पूर्ति तथा जिन लोगों की सुविधा के लिए यह लिफ्ट लगाई गई थी, उसमें न तो यह कारगर साबित हुई और ना ही संबंधित लोगों को इसका लाभ मिल पाया। लिफ्ट के अभाव में निशक्त, बुजुर्ग एवं असहाय लोग मशक्कत करते हुए किस प्रकार आपके कक्ष तक पहुंचते हैं, यह आपसे भी छिपा हुआ नहीं है। एक-एक सीढ़ी चढ़ते, गिरते-संभलते किसी तरह आपके कक्ष तक यह लोग पहुंच तो जाते हैं लेकिन सीढिय़ों का यह सफर उनके लिए किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं है।
वैसे जिले के लोगों ने देखा है कि आप जिले के मुखिया होने के साथ-साथ संवदेनशील इंसान भी हैं और मातहतों की बातों पर विश्वास न करके आंखों देखी पर ज्यादा यकीन रखते हैं। तभी तो गाहे-बगाहे कार्यालय का काम छोड़कर आप किसी भी विभाग का निरीक्षण करने निकल जाते हैं। इससे इतना तो जाहिर हैं कि आप जमीन से जुड़े हुए हैं। सोचनीय विषय यह है कि जब आपके व्यक्तित्व के साथ यह खूबी और खासियत जुड़ी है तो फिर लिफ्ट को ठीक करने की दिशा में अब तक कोई पहल क्यों नहीं हो पाई। यह सही है कि लिफ्ट के मामले में आपने ,मातहतों को निर्देश भी जारी किए लेकिन उन्होंने इसको कितनी गंभीरता से लिया, सबसे बेहतर आप ही जानते हैं। अगर मातहत आंखों के सामने ही आपके आदेशों को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं तो जिले की बात करना बेमानी है। इतना ही नहीं  पंचायत एवं समाज कल्याण विभाग ने आठ माह के दौरान पीडब्ल्यूडी को छह पत्र लिख दिए हैं फिर भी समस्या जस की तस है।
बहरहाल, जनदर्शन का मतलब और मकसद लोगों को राहत पहुंचाना है तो लिफ्ट ठीक करना भी उसी दायरे में आता है। उसको ठीक करने से भी संबंधितों को राहत ही मिलेगी। और यदि जनदर्शन का मतलब कार्यालय बुलाकर सिर्फ जन का दर्शन ही करना है तो फिर कुछ कहना या ना कहना एक समान है और चिराग तले अंधेरा वाली कहावत से आप भी अछूते नहीं है। आप जिले के मुखिया हैं इसलिए आपसे उम्मीदें ज्यादा हैं। यकीन मानिए निशक्तोंं बुजुर्गों की समस्या का निराकरण भले हो या न हो लेकिन सीढिय़ों के कष्टदायी सफर से मुक्ति तो मिल ही जाएगी। अगर आपने यह करवा दिया तो ये लोग आपको दुआ देंगे। वैसे भी आपके लिए यह कोई बड़ा काम नहीं है।


साभार - पत्रिका भिलाई के 28  फरवरी 13 के अंक में प्रकाशित।

Tuesday, February 26, 2013

यह फेसबुक है मेरी जान...


बस यूं ही 

यह दुनिया बड़ी अजीब है। इस दुनिया में ना उम्र की सीमा है और ना ही समय का कोई बंधन। यहां दिन गुलजार हैं और रातें रंगीन व रोशन। नींद का तो यहां कोई नामलेवा भी नहीं है। यहां सच भी है लेकिन दिखावा और झूठ का बोलबाला भी कम नहीं है। यहां फर्जीवाड़े और फरेब का कॉकटेल है तो प्यार की सौंधी महक भी महसूस होती है। यहां मनोरंजन की चासनी में मोहब्बत का तड़का लगता है तो भक्ति एवं ज्ञान के प्रवचनों की गंगा भी प्रवाहित होती है। इसमें आधुनिकता का रंग तो पग-पग पर है लेकिन परम्परा से जुड़ाव भी दिखता है। यहां जोश, जुनून एवं जज्बा जगाया जाता है तो कड़वी हकीकत से रूबरू भी करवाया जाता है। आश्चर्य से भरी, कौतुहल जगाती, विस्मय पैदा करती तथा हकीकत के पास होते हुए भी हकीकत से दूर करती यह कोई तिलिस्मी नगरी ना होकर फेसबुक है। सूचना एवं प्रौद्योगिकी में आए क्रांतिकारी बदलावों के चलते महानगर तो क्या, छोटे-छोटे कस्बों, गांवों एवं ढाणी तक के लोग इस मायानगरी से जुड़ रहे हैं। सहज एवं सरल विधि ही इस मायानगरी की सबसे बड़ी खूबी और खासियत है। फेसबुक की मायावी नगरी आत्मविश्वास तो जगाती ही है हिम्मत और हौसला भी देती है। भले ही फेसबुक को लेकर सभी के दीगर मत हों लेकिन विचारों को बेझिझक संप्रेषित करने का सबसे सशक्त माध्यम भी है।
हम भी करीब दो साल से इस मायावी नगरी में विचरण रहे हैं। महाकाल की नगरी उज्जैन में इंटरनेट पर बैठे-बैठे अकस्मात की इस दुनिया से जुडऩे का सौभाग्य मिल गया। जुड़ तो गए लेकिन शुरू-शुरू में तो अपुन को इसका ककहरा भी नहीं आता था। नियम-कायदों का तो बिलकुल भी ज्ञान नहीं था। बस कम्प्यूटर बैठे और फिर धीरे-धीरे सीखते गए। आगे से आगे राह मिलती गई। अब भी पूर्णतया पारंगत तो नहीं हुए लेकिन खाते में अच्छा-खासा अनुभव जरूर जुड़ गया है। बस यह अनुभव ही लिखने का मजबूर कर गया। फेसबुक पर क्या देखा, जाना और सीखा, वह सब आपसे साझा करने को मन कर गया। खैर, फेसबुक के मामले में जो अनुभवी हैं, हो सकता है उनको यह लेख सामान्य सा लगे लेकिन फेसबुक की दुनिया में नवप्रवेशित लोगों को इससे फीडबैक जरूर मिलेगा, इसका दावा तो नहीं लेकिन यकीन जरूर है।
इस मायावी नगरी में प्रवेश करना आसान है लेकिन यहां के कुछ दस्तूर व उसूल भी हैं। अगर इन उसूलों एवं दस्तूरों का किसी ने पालन नहीं किया तो फिर वह अलग-थलग ही पड़ जाता है। मतलब लाइक एवं कमेंट। फेसबुक की दुनिया में प्रवेश करते समय पहले वास्ता इन दोनों से ही पड़ता है। आप किसी को नियमित लाइक करते रहे तो यकीन मानिए आपने कुछ लिखा तो यकीनन आपको भी लाइक मिलने लगेंगे। और अगर आप कमेंट तक आ गए तो फिर बदले में कमेंट मिलना भी लाजिमी है। यह क्रम नियमित रहना जरूरी है। बीच में एक बार टूटा तो फिर जोडऩे में या पटरी में लाने में वक्त लगता है। यह तो शुरुआती चरण है। अगर आप इतना सीख गए तो फिर तो अंदरुनी उठापटक को समझने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। यथा...फेसबुक का संसार बड़ा विचित्र है। इसके कई रंग हैं। यहां गलाकाट प्रतिस्पर्धा भी है। एक दौड़ सी लगी है। बिलकुल अंधी होड़ है। और दौड़ और होड़ से कई तरह के प्रेमियों का जन्म होता है, मसलन देश प्रेमी, कला प्रेमी, खेल प्रेमी, प्रकृति प्रेमी, और भी कई तरह के प्रेमी। प्रेमियों के ज्ञान की तो बस पूछिए ही मत।
यहां कोई धर्म कर्म की बात करेगा तो कोई किसी देवता या संत की फोटो को लाइक या शेयर करने पर शर्तिया कुछ अच्छा होने की गारंटी देगा। फेसबुक पर लोग ज्ञानी बन जाते हैं। निशुल्क ज्ञान बांटते हैं, प्रवचन देते हैं। न कुछ कटने का झंझट और ना कुछ सम्पादित होने का डर। जो बोला या लिखा सबके सामने। यहां मौलिकता कोई मायने नहीं रखती है। इसकी टोपी उसके सिर पर की तर्ज पर कट, कॉपी, पेस्ट का खेल एकदम बिंदास अंदाज में चलता है। कोई संस्मरण सुनाता है तो कोई यात्रा वृतांत। तभी तो फेसबुक ज्ञान, नसीहत, नीति एवं धर्म की राह पर चलने वाले अमूल्य विचारों का खजाना है। यह खजाना खत्म नहीं होता है। अनवरत चलता ही रहता है। आगे से आगे। कुछ शेयर करते हैं तो कुछ अलग से सेव करके अपने नाम से चलाते हैं लेकिन सिलसिला थमता नहीं है।
सेंतमेत में प्रचार करने का भी तो फेसबुक सबसे जोरदार जरिया है। विज्ञापन लगाने काम भी यहां बदस्तूर चल रहा है। कोई प्रचार कर रहा है अपने उत्पाद का तो कोई दुकान का। पुस्तकों का विमोचन भी अब तो फेसबुक पर होने लगा है। राजनीति का अखाड़ा भी है फेसबुक है। यहां केवल दिशा-निर्देश ही नहीं बल्कि वोट तक मांगे जा रहे हैं फेसबुक पर। प्रधानमंत्री तक का फैसला फेसबुक पर होने लगा है। रायशुमारी तक कर ली जाती है।
इतना ही नहीं जो जिस विधा में माहिर, वह उसके बारे में विशेषज्ञ की तरह पेश आता है। और जिसके पास फन नहीं है वह अपनी शानोशौकत दिखाने के लिए घर, वाहन आदि की फोटो तक को चस्पा कर रहा है। सचमुच कितनी कौतूहल भरी है यह फेसबुक की दुनिया। कोई दुनिया और अंतरिक्ष की रोचक जानकारी जुटाता है तो कोई फेसबुक पर मुशायरा करवा देता है। कोई कविताओं, शेर, शायरी व लघु कथाओं का मुरीद है तो किसी को किस्से, चुटकुले आदि लुभा रहे हैं। कोई अपनी रचनाएं, कोई फोटो तो कोई कार्टून लगा रहा है। सारी उधेड़बुन यही रहती है कि प्रतिस्पर्धा में खुद को बरकरार कैसे रखा जाए। कुछ विसंगतियों को पकडऩे का काम करते हैं तो कुछ वर्तमान एवं अतीत की गलतियों को जोड़कर पेश करते हैं। गाहे-बगाहे बहस का दौर तो चलता ही रहता है। कुछ फेसबुक पर लाइक एवं कमेंट की उम्मीद में सवाल छोड़ देते हैं तो कई बहस करते हैं। कुछ उन्मादी भावातिरेक में बह जाते हैं। बाहें चढ़ाते हैं। एक दूसरे को चुनौती देते हैं। वाकई ज्ञान का भंडार है फेसबुक। कहने को काफी कुछ है इसके बारे में। सामाजिक कुरीतियां भीं यहां दूर होती हैं तो परम्पराएं भी यहां पर सहेजी जा रही हैं। कोई बालिकाओं को बचाने की अपील कर रहा था तो कोई अपने दोस्तों को जन्मदिन की बधाई देने से भी नहीं चूकता। कुछ ऐसे भी हैं जिनके लिए गुड मार्निंग एवं गुड नाइट से ज्यादा कुछ नहीं है फेसबुक। वाकई फेसबुक कई तरह के सवालों का जवाब है तो कई जवाबों का सवाल भी है।
इतने गुण होने के बाद फेसबुक के साथ विरोधाभास जुड़ा है। शादी के लड्डू की तरह सभी लाइक व कमेंट की उम्मीद तो रखते हैं लेकिन टैग किसी को फूटी आंख भी नहीं सुहाता है। टैंग करने वाले फेसबुकियों से कुछ परेशान हैं तो कुछ आदतन शिकायताकर्ता। कोई टैग कर दे तो फिर आसमान सिर पर उठाते हैं। नैतिकता की दुहाई देते हैं।
पिछले माह फेसबुक के गुणगान करने वाली एक पोस्ट भी देखी। बंदे ने क्या जोरदार खाका खींचा। फेसबुक पर विचरण करने वालों का प्रकृत्ति के हिसाब से नामकरण भी कर दिया। करीब दर्जनों नाम लिखे थे। कुछ तो याद हैं अभी तक आप भी देखिए। फेसबुक मुर्गा- जो सबको गुड मोर्निंग कह कर जगाता है। फेसबुक सेलीब्रिटी- जो पांच हजार फ्रेंड की लिमिट को पूरा करता है, भले ही सभी मित्रों के बारे में सही जानकारी ना हो। फेसबुक बाबा- भगवान व धर्म से संबंधित पोस्ट ही लगाएंगे। फेसबुक चोर- दूसरों के स्टेटस एवं पोस्ट चोरी करके अपने नाम से अपने वॉल पर डालते हैं। फेसबुक देवदास-दर्दभरी कविताएं यां शायरी कहते हैं और अपने दुख दुनिया से साझा करते हैं। फेसबुक न्यूज रिपोर्टर- खबरों के बारे में जानकारी देते रहते हैं। फेसबुक टीकाकार- खुद कुछ नहीं लिखते लेकिन दूसरों की पोस्ट पर जाकर टिप्पणी करते रहते हैं। फेसबुक विदुषक-यह लोग खुद भले ही दुखी हों लेकिन कमेंट एवं पोस्ट से दूसरों को हंसाते रहते हैं। फेसबुक लाइकर- यह लोग कमेंट करने में कंजूसी बरतते हैं लेकिन चुपके से लाइक कर देते हैं। फेसबुक विचारक-यह लोग अपने विचार अपनी पोस्ट के माध्यम से लोगों तक पहुंचाते हैं। फेसबुक कवि और कवियित्री-इनको कविता के अलावा कुछ नहीं दिखता, बस अपनी कविताएं ही पोस्ट पर डालते हैं। फेसबुक टपोरी- यह फेसबुक पर छिछोरी हरकतें करते हैं और हलकट पोस्ट लगाते हैं। फेसबुक द्वेषी-इनको फेसबुक पर किसी की तारीफ करना अच्छा नहीं लगता है। बस लोगों से द्वेष करते हैं। फेसबुक चैटर- इनको फेसबुक पर चैटिंग के अलावा कुछ काम नहीं सूझता। फेसबुक लिंग परिवर्तक-यह फेक आईडी बनाते हैं। इसमें मेल, फीमेल बन जाता है और फीमेल, मेल। फेसबुक खिलाड़ी- यह दिन भर फेसबुक पर गेम खेलते रहते हैं। फेसबुक बंदर- जो कमेंट में कुछ नहीं बोलते, केवल हा, हा या ही, ही करते रहते हैं। फेसबुक भिखारी- ऐसे लोगों की फ्रेंड रिक्वेस्ट अक्सर ब्लॉक कर दी जाती है और यह लोग फ्रेंड बनने के लिए भीख मांगते रहते हैं। और सबसे आखिर में फेसबुक कलेक्टर, जो केवल ग्रुप या पेज ही ज्वाइन करते हैं।
बहरहाल, फेसबुक पर इतना लिखने के बाद भी ऐसा लग रहा है कि काफी कुछ छूट रहा है। यही तो फेसबुक की माया है। आजकल हर जगह इसी की धमक है और इसी के चर्चे हैं। इसके बिना सब बेनूर है, बैरंग है, बेमजा है और यह संस्कृति की संवाहक है। सचमुच कमाल की चीज है। जितना इससे दूर जाने को मन करता है उतना ही पास आते हैं। मायावी की माया है। इससे कोई अछूता नहीं है।

Monday, February 25, 2013

मूंछों का है जमाना


बस यूं ही 
 
वैसे तो मूंछों की शान में अनगिनत कशीदे पढ़े गए हैं। तभी तो मूंछों को आन, बान, शान और स्वाभिमान का प्रतीक माना जाता है। विशेषकर राजस्थान जैसे परम्परावादी राज्य में तो मूंछों को लेकर काफी कुछ कहा गया है। देखा जाए तो
मूंछें प्राचीनकाल से ही लोगों को लुभाती रही हैं और वर्तमान में भी इनकी प्रासंगिकता बरकरार है। मूंछों को लेकर कई किस्से, कहानियां, लोकोक्तियां एवं मुहावरे भी प्रचलन में है। मैं भी कई दिनों से मूंछों पर कुछ लिखने की सोच रहा था लेकिन न तो समय निकाल पाया और ना ही लिखने की कोई बड़ी वजह मिली। 
आज बैठे-बैठे अचानक ब्लॉग पढऩे का मन किया। सबसे पहले नजर श्री रतनसिंह जी भाईसाहब के ब्लॉग ज्ञान दर्पण में हाल में लिखी गई रचना ठाकुर साहब की अकड़ और मूंछ की मरोड़ का राज पढ़ा तो फिर मूंछों की याद आ गई। हालांकि मूंछों से वाबस्ता फिल्मी जुमला मूंछे हों तो नत्थूलाल जैसी तो बचपन में ही सुन लिया था, लेकिन तब यह बात समझ में नहीं आई थी कि आखिर नत्थूलाल की मूंछों में ऐसा क्या है। बाद में फिल्म में देखी तो जिज्ञासा शांत हुई। मूंछों संबंधी जिज्ञासा तो शांत हो गई लेकिन फिल्मों का चस्का ऐसा लगा कि एक तरह की लत ही लग गई । यह फिल्मों का ही असर था कि एक बार अपने भी तोते उड़ गए थे। तोते उडऩे का यह डायलॉग भी अजय देवगन की प्यार तो होना ही था, फिल्म में सुना था। सैलून में मूंछें सेट करवाते हुए नाई जब बातों-बातों में अजय देवगन की एक तरफ की मूंछ साफ कर देता है, और फिर डर के मारे वह जोर-जोर से चिल्लाता है, उस्ताद तोते उड़ गए, उस्ताद तोते उड़ गए। हकीकत जानने पर अजय देवगन ने थोड़ा गुस्सा होने के बाद दूसरी तरफ की मूंछ भी साफ करवा ली थी। 
खैर, तीन साल के लिए मैंने भी मूंछें साफ करवाई थी। कोई वजह पूछता तो अपने पास भी वही परम्परागत बहाना तैयार था। कह देते कि मूंछें सेट करते समय एक तरफ की कुछ ज्यादा छोटी हो गई। देखने में बुरी लग रही थी, इसलिए साफ ही कर दी। अधिकतर लोग तो इस तर्क से संतुष्ट हो जाते। कोई ज्यादा समझदार जब मानने को तैयार नहीं होता तो फिर उसे राजेश खन्ना की फिल्म का डायलॉग सुना देते और कह देते..अरे भई यह तो मर्दों की खेती है, जब चाहे उगा ली और जब चाहे काट ली, इसमें आपका क्या? वैसे चिकना बनने का यह बुखार कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद ही चढ़ा था और पत्रकारिता की एबीसीडी सीख कर जब मैदान में उतरे तो बाकायदा मूंछें साथ थी। मतलब तीन साल तक बिना मूंछों के रहने का अनुभव भी अपुन के साथ चस्पा हो गया। वैसे ईमानदारी की बात यह है कि अपनी गुडबुक में मूंछ वाले हीरो ही ज्यादा रहे हैं, मसलन, राजकपूर, अनिल कपूर, राकेश रोशन आदि, हालांकि अनिल कपूर भी एक बार लम्हे में बिना मूंछों के नजर आए। राकेश रोशन ने भी एक-दो फिल्मों में अपनी मूंछे कटवाईं। यह बात दीगर है कि फिल्मों में कथानक के अनुसार कई नायकों ने मूंछे रखी हैं, भले ही असली जिंदगी में उन्होंने मूंछों से परहेज किया हो। ऐसे नायकों की फेहरिस्त बेहद लम्बी है। खैर, खलनायक तो अपवादस्वरूप ही किसी फिल्म में बिना मूंछों का नजर आया, वरना मूंछों के साथ दाढ़ी तो कई फिल्मों में खलनायक की पहचान बन गई।
खैर फिल्मी दुनिया से इतर भी मूंछों का महत्त्व रहा है। मूंछें चेहरे का रौब बढ़ा देती हैं। दुबारा मूंछे रखने के बाद मैं अपने कई मूंछ ना रखने वाले दोस्तों से मजाक-मजाक में पूछ बैठता कि बिना बात किए आपको किस आधार पर पहचाना जाए कि आप पुरुष हो। वैसे भी मौजूदा पहनावा एवं लाइफ स्टाइल ऐसे हैं कि पुरुष एवं महिलाओं में भेद तक करना मुश्किल हो रहा है। दोस्तों से संतोषजनक जवाब ना मिलने पर विजयी मुस्कान के साथ मैं कहता, मूंछों से ही इंसान की पहचान होती है। हो भी कैसे नहीं। मूंछों को लेकर दर्जनों मुहावरें हैं, जो अलग-अलग संदर्भों में प्रयुक्त किए जाते हैं। मुहावरों की बानगी देखिए...। मूंछ मरोडऩा, मूंछें फरकाना, मूंछों पर ताव देना। मूंछों को बल देना। मूंछें ऊंची होना। मूंछें नीची होना। मूंछ लम्बी होना। मूंछ का बाल।  मूंछ ही लड़ाई
मूंछ का सवाल आदि आदि। इन मुहावरों का भावार्थ देखा जाए तो मूंछों को इज्जत से जोड़कर देखा गया है। मूंछे ऊंची होना जहां सम्मान की बात है, वहीं मूंछें नीची होने का मतलब बेइज्जत होना है। इसी तरह मूंछों को ताव देने से आशय चुनौती देना है तो मूंछ का सवाल का अर्थ प्रतिष्ठा का सवाल है। इन मुहावरों से साफ होता है कि मूंछों की दर्जा काफी ऊंचा हैं और मूंछों के साथ इज्जत को जोड़कर देखा जाता रहा है।
खैर, मेरे विचारों से कोई यह ना समझ लें कि मैं मूंछ ना रखने वालों का विरोधी हूं, ऐसा नहीं है। बस बात की बात है और विषयवस्तु प्रासंगिक है, लिहाजा लिखने को मन कर गया। वैसे भी मैं तो पहले ही स्पष्ट कर चुका हूं कि मेरे पास भी बिना मूंछ रहने का तीन साल का अनुभव है। फिर भी फिल्मी नायकों को देखकर या उन जैसा बनने की हसरत रखने वाले जरूर मूंछें साफ करवाने में विश्वास रखते हैं लेकिन पिछले दो 
तीन  सालों में फिल्मवालों का मूंछ प्रेम भी यकायक बढ़ गया है। हाल ही में आधा दर्जन से ज्यादा फिल्मी आई हैं, जिनमें नायक बाकायदा बड़ी-बड़ी मूंछों के साथ अवतरित हुए हैं। उदाहरण के लिए राउडी राठौड़ में अक्षय कुमार, दबंग व दबंग-2 में सलमान खान, बोल बच्चन में अजय देवगन, तलाश में आमिर खान,  मटरू की बिजली का मन डोला में इमरान खान,  जिला गाजियाबाद में संजय दत्त को देखा जा सकता है। राजस्थान के मंडावा में फिल्माई गई फिल्म पीके में भी संजय दत्त ने मूंछों में किरदार निभाया है। 
लब्बोलुआब यह है कि फिलहाल मूंछों का बोलबाला है और जमाना कहें तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होना चाहिए। अपन तो मूंछ पहले से ही रखे हुए हैं, लिहाजा आजकल मूंछें छोटी या बड़ी रखने की वजह बताने में कोई दिक्कत नहीं है। कई बहाने मिल गए हैं। ना रखी थी तब भी और सामान्य से कुछ बड़ी कर ली तब भी। वैसे अपुन की मूंछें भी आजकल कुछ ज्यादा ही बढ़ गई हैं। यह जानकारी भी तब लगी जब कुछ परिचितों ने हाल की एक फोटो को फेसबुक पर देखकर चेहरे की बजाय मूंछों पर ही टिप्पणी कर दी। किसी ने साउथ का फिल्मी हीरो बता दिया तो किसी ने मूंछों को भारी बता दिया। किसी ने सिंघम तक कह दिया तो कोई बोला मूंछ मोटी कर ली। एक दोस्त ने तो यहां तक कह दिया कि मूंछ है तो सब कुछ है। फोटो पर आई इन टिप्पणियों से इतना तो तय है कि चेहरा देखते समय सर्वप्रथम ध्यान मूंछों पर ही जाता है। इसलिए एक बार मूंछ रखने का अनुभव भी तो लिया ही जा सकता है। और फिर बकौल राजेश खन्ना, यह तो मर्दों की खेती है। जमी तो रख ली, ना जमी तो साफ।

Monday, January 28, 2013

डोंगरगढ़ यात्रा



 बस यूं ही

दो सप्ताह पहले की बात है। दोपहर को घर पर बैठा था कि अचानक बिलासपुर से साथी नरेश भगोरिया का फोन आ गया। बोले, सर इस बार गणतंत्र दिवस पर क्या कर रहे हो। मैंने कहा कि यार, मैंने तो कुछ विचार नहीं किया है। आप बताओ क्या कर रहे हो? इस पर नरेश जी बोले, सर, डोंगरगढ़ चलते हैं। मैंने बिना देर किए या धर्मपत्नी से सलाह लिए, तत्काल हां कर दी। काफी दिनों से डोंगरगढ़ जाने की हसरत थी। ऐसे में नरेश जी ने डोंगरगढ़ की कह कर मेरे मन बात कह दी थी। आखिरकार गणतंत्र दिवस भी आया। और नरेश भगोरिया अपनी प्यारी सी बिटिया एवं श्रीमती के साथ बिलासपुर से रवाना हो गए। सभी की टिकट ऑनलाइन करवाई थी। हमको दुर्ग से बैठना था। निर्धारत समय पर मैं दोनों बच्चों एवं धर्मपत्नी के साथ रेलवे स्टेशन पर पहुंच गया। दुर्ग से डोंगरगढ़ जाने में करीब एक घंटे का समय लगता है। डिब्बे में नरेश जी के साथ रणधीर को देख चौंक गया और पूछ लिया। अरे भाई आपका तो कहीं नाम ही नहीं था। अचानक यह सब कैसे हो गया। रणधीर, नरेशजी से मुखातिब होते हुए बोला, सर ने कहा इसलिए आ गया। रात को सो भी नहीं पाया। अलसभोर चार बजे के करीब तो आफिस से फ्री हुआ। फिर छह बजे के करीब रेलवे स्टेशन आ गया। बातों के इस सिलसिले में एक घंटा कब बीता पता ही नहीं चला और हम डोंगरगढ़ पहुंच गए। ट्रेन से नीचे उतर कर स्टेशन से बाहर आ गए। तभी नरेश जी को ख्याल आया बोले, सर वापसी की ट्रेन की जानकारी अभी कर लेते हैं। इसके बाद ही आगे का कार्यक्रम तय करेंगे। हमने पता किया तो दोपहर दो और ढाई के बीच दो ट्रेन थी। सोचा दो बजे तक फ्री नहीं हो पाएंगे, लिहाजा वापसी में बस से दुर्ग से आ जाएंगे। यहां से हम घर चले जाएंगे और नरेश जी बिलासपुर के लिए ट्रेन पकड़ लेंगे। खैर, यह तय करने के बाद हम जैसे ही बाहर निकले एक ऑटो वाला आ गया। और बैठने का आग्रह करने लगा। बोला प्रति सवारी दस रुपए लूंगा, बैठो। हम बैठ गए। आखिरकार हम मंदिर के पास या यूं कहें कि पहाड़ी के पास पहुंच गए, क्योंकि मंदिर तो पहाड़ी पर है। मंदिर जाने से पहले तय हुआ कि पहले चाय पी ली जाए, इसके बाद दर्शनों के लिए रवाना होंगे। डोंगरगढ़ जैसे छोटे से कस्बे में एक साधारण से होटल में निहायत अदने से डिस्पोजल गिलास में एकदम फीकी चाय की कीमत दस रुपए चुकाकर मेरा चौंकना लाजिमी था। लेकिन यह क्षणिक ही था। मुझे यह अच्छी प्रकार से मालूम है कि अक्सर ऑटो, होटल संचालक एवं स्थानीय दुकानदार बोलचाल के आधार पर यह जान लेते हैं कि अमुक व्यक्ति स्थानीय नहीं हैं और इसी का फायदा गाहे-बगाहे उठा भी लेते हैं। मैं इस प्रकार की कई घटनाओं का साक्षी रहा हूं। विशेषकर ऐसे देहाती इलाकों में जहां लोग स्थानीय भाषा में बात करना जानते हैं, वे इस प्रकार की मुंहमांगी कीमत के शिकार नहीं होते लेकिन हमारे साथ यह दिक्कत थी हम में से कोई भी छत्तीसगढ़ से नहीं था। मैं राजस्थान से, नरेश जी मध्यप्रदेश तो रणधीर बिहार से। खैर, चाय पीकर हम जैसे ही होटल से निकले तो प्रसाद की अस्थायी दुकानों से आवाजें आने लगी। हर कोई लुभाने का जतन कर रहा था। हमने होटल के पास ही एक दुकान पर अपना सामान रखा और वहां से प्रसाद लिया। बदले में दुकान पर जूते आदि रखने का सुविधा भी निशुल्क मिल गई। खाना चूंकि घर से बनाकर ही ले गए थे, इसलिए तय किया गया, इसको मां के दर्शन करने के बाद पहाड़ी के ऊपर ग्रहण किया जाएगा। लिहाजा, खाना साथ में लेकर चल पड़े। तय हुआ कि रोप वे में जाएंगे और उसी में लौट आएंगे। टिकट काउंटर के बाहर दो तरह की कीमत लिखी थी। एक स्पेशल और एक साधारण। चूंकि रोप वे मेरे लिए पहला अनुभव था, इसलिए मैंने जिज्ञावावश नरेश जी की तरफ देखा तो वे बोले सर साधारण एवं स्पेशल में कोई खास फर्क नहीं है। ऐसा करते हैं अपन साधारण का टिकट ही लेते हैं। यह कहकर नरेश जी उत्साह के साथ काउंटर की ओर बढ़े और जल्द ही निराशा के साथ वापस लौट आए। मैंने पूछा तो बोले, सर वेटिंग चल रहा है। नम्बर आने में दो घंटे लगेंगे। मैंने कहा कोई नहीं पैदल ही चलते हैं दो घंटे कौन इंतजार करेगा। हालांकि मन में एक अजीब सा रोमांच भी था। कई दिनों बाद पहाड़ पर चढऩे का मौका जो मिल गया था। खाने का सामान मेरे पास ही था। मैंने कहा कि इसको अब तो नीचे रख देते हैं, वापसी में लौटकर खा लेंगे। क्यों बिना मतलब वजन ऊपर लेकर जाएं। लेकिन मेरी सलाह किसी ने नहीं मानी और खाने की टोकरी को ऊपर पहाड़ पर ले जाने का निर्णय हो गया। सीढिय़ा शुरू होते ही रणधीर ने काउंटर पर बैठे वृद्ध से पूछ लिया ... कि कितनी सीढ़ी है। जवाब आया 11 सौ। जवाब सुनकर रणधीर सकपकाया लेकिन बिना कुछ बोले चुपचाप सीढिय़ों की तरफ बढ़ गया। हम कुल आठ लोग थे। पांच बड़े और तीन बच्चे। नरेश जी की बिटिया छोटी है, इस कारण वह गोद में थी। हमारे दोनों सुपुत्रों को सीढिय़ों का खेल बेहद पसंद आया। और बिना मदद लिए वे भी चढऩे लगे। खाना और सामान जिस में रखा था वह टोकरी बार-बार एक दूसरे के हाथों में बदलती रही ताकि कोई थके नहीं। करीब सौ सीढिय़ा चढऩे के बाद पैरों की पिंडलियों में खिंचाव सा होने लगा और सांसें तेज हो गई। लगा कि अब और नहीं चढ़ा जाएगा। मेरी जैसी हालत लगभग सभी की थी।
पत्रकाािरता के क्षेत्र में होने तथा देर रात सोने के कारण शारीरिक श्रम कहां हो पाता है। समय ही नहीं है। मौसम भले ही सर्दी का हो लेकिन माथे से पसीना टपकने लगा था। रास्ते में मैंने फिर सुझाव दिया कि खाना आते समय खा लेंगे। यह टोकरी किसी दुकान में रख दो। आखिरकार इस बार मेरी सलाह सुन ली गई और एक दुकान में वह टोकरी रख दी गई। आखिर कुछ वजन तो कम हुआ। सांस फूलने की सबसे बड़ी वजह वे सीढिय़ां थी, जिनकी बनावट समान नहीं थी। कहीं बिलकुल आराम से कदम रखे जा रहे थे तो कहंी-कहीं सीढिय़ों के बीच एक से डेढ़ फीट का अंतराल था। सीढी भी ढलवा ना होकर एकदम खड़ी थी, इसलिए थकान ज्यादा एवं जल्दी हो रही थी। सीढिय़ां चढ़ते समय व्यक्ति बोरियत इसलिए महसूस नहीं करता क्योंकि पूरे रास्ते में सैकड़ों दुकानें हैं, जहां चाय-पानी के अलावा पूजन सामग्री की बिक्री होती है। वैसे बच्चों एवं महिलाओं से संबंधित साजो सामान भी इन दुकानों पर खूब सजा है। आखिरकार खरीदारी भी तो यही वर्ग ज्यादा करता है। आधे रास्ते के बाद एकलव्य ने हाथ खड़े कर दिए और मुंह लटकाने वाले अंदाज में बोला, पापा थक गया हूं। प्लीज गोद में ले लो। बच्चे को क्या दोष देता जब मैं खुद ही हाथ खड़े करने वाले अंदाज में था। भारी थकान के बाद भी एकलव्य को गोद में लेकर सीढिय़ां चढऩे लगा। इसके अलावा और कोई विकल्प भी तो नहीं था। वैसे इस मामले में योगराज ने दिलेरी का काम किया। उसकी स्टेमिना वाकई गजब की है। वह दौड़कर सबसे आगे चला जाता और फिर नीचे आता। इस प्रकार से उसने तो हमसे दुगुनी सीढिय़ों को पार किया। रास्ते में नरेश जी कैमरे पर हाथ चला रहे थे लेकिन उस वक्त पहला मकसद तो किसी तरह मंदिर तक पहुंचना था। पता नहीं नरेश जी को किसने कह दिया था, वे बोले मंदिर के पट 12बजे बंद हो जाएंगे। यह सुनना तो और भी कष्टकारी था, क्योंकि मंजिल अभी दूर थी और घड़ी साढ़े ग्यारह बजा चुकी थी। सांसें अब और भी तेज होकर लोहार की धोकनी की तरह चलने लगी थी। बिलकुल हांफने वाले अंदाज में आ चुके थे हम। मैं कभी एकलव्य को गोद में लेता कभी नीचे उतारता। हां, एक दूसरे को देखकर और खुद जैसे ही हाल में पाकर हम सभी एक दूजे को मन ही मन में दिलासा दे रहे थे। आखिरकार बैठते-बैठते हम मंदिर के पास पहुंच चुके थे। यहां श्रद्धालुओं की संख्या कुछ ज्यादा इसलिए हो गई थी कि क्योंकि रोप वे से आने वाले भी आगे इसे रास्ते से कुछ सीढिय़ां चढ़ते हैं। मंजिल नजदीक देख जोश आया लेकिन पिंडलियां एवं जांघें ऐसा लग रहा था मानो जमकर पत्थर बन गई हैं। फिर भी जयकारे के साथ हम बढ़ते गए। मंदिर बामुश्किल दस मीटर की दूरी पर ही था कि अचानक रणधीर को चक्कर आ गया। उसको तत्काल एकांत में भेजकर लेटने का कहा। वह पूरी रात नहीं सोया।
दूसरे लगभग पूरे रास्ते में नरेश जी बिटिया उसी की गोद में रही, तीसरा वह सेहत के मामले में भी कुछ कमजोर है। सारे मेल मिल गए थे, लिहाजा ऐसा हो गया। पहाड़ की सबसे ऊँची चट्टान पर मां का मंदिर है। चट्टान को निर्माण करके कुछ बड़ा कर दिया गया है ताकि मंदिर परिसर में श्रद्धालु आसानी से परिक्रमा लगा सकें। दोनों बच्चों के हाथ थामे में मंदिर परिसर में लाइन में लगा था। थोड़ी से धक्का मुक्की हुई और दोनों बच्चे भीड़ में फंस गए तो मैंने योगराज को अपने आगे खड़ा किया जबकि एकलव्य को फिर गोद में लिया। दर्शन करने के बाद मन में सुकून से आया। चेहरे पर एक विजयी मुस्कान उभर आई थी। सभी ने दर्शन करने के बाद करीब आधा घंटे तक वहंी मंदिर के पास खाली जगह पर बैठकर आराम किया। वहां के वातावरण में इतनी शीतलता था कि अगर लेट जाते तो नींद आ जाती। यहां आराम करने के बाद खुद को  तरोजाता महसूस किया तो थोड़ा नीचे आए। इसी दौरान एक स्थान दिखा। वहां काफी युगल फोटो खिंचवा रहे थे। हम सब भी वहां गए। दूसरे तरफ नजर गई तो चौंक गया। उस तरफ एकदम खड़ा पहाड़ था। और ऐसा लग रहा था कि किसी ऊंचे भवन या टंकी पर चढ़ गए और सीधा धरती को देख रहे हों। इतनी ऊंचाई से देखना किसी रोमांच से कम नहीं था। चक्कर से आने लगे थे मुझे। मैंने दोनों बच्चों के हाथ कसकर पकड़ लिए। कुछ फोटो खिंचवाने के बाद हम यहां से लौट आए। यह स्थान इसलिए भी रोचक है क्योंकि यहां एक बड़ी चट्टान है, जो एक तरफ हवा में है। ऐसा लगता है कि अभी लुढ़क जाएगी लेकिन ऐसा है नहीं। जाते समय जो दर्द पिंडलियों एवं जांघों में हो रहा था वह अब पीठ में होने लगा था। संतुलन बनाए रखने के लिए खुद को टेढ़ा रखना जरूरी है वरना औंधे मुंह गिरने की आशंका रहती है। रास्ते में खिलौनों की दुकानें देख दोनों बच्चे मचल गए। पूछा तो बोले खिलौना दूरबीन लेंगे। वही दूरबीन जो सामान्य मेले में दस से बीस रुपए में मिल जाती है लेकिन आज यह पहाड़ पर बिक रही थी लिहाजा कीमत भी पहाड़ जैसी ही थी। सौ रुपए में दोनों बच्चों को दूरबीन दिलाई। दूरबीन पाकर उनकी खुशी का ठिकाना ना था। जैसे-जैसे सीढिय़ां कम हो रही थी, थकान बढ़ती जा रही थी। आखिरकार वह दुकान आ गई जहां खाना रखा था। वहीं एक गुमटी में बैठकर हम सब ने भोजन ग्रहण किया। इसके बाद धीरे-धीरे फिर सीढिय़ां उतरने लगे। करीब सवा दो बज चुके थे। दुकान पर आकर सामान संभाला जूते पहने और ऑटो में बैठ गए। मैंने ऑटो वाले से कहा कि अभी कोई ट्रेन तो है नहीं आप बस स्टैण्ड छोड़ दो। वह बोला साहब इस वक्त तो ट्रेन भी है आप कहें तो स्टेशन छोड़ दूं। मैंने मना किया और बस स्टैण्ड चलने को ही कहा। रास्ते में रेलवे फाटक बंद मिला, वह उतर पर फाटक वाले के पास गया और बोला अहमदाबाद-पुरी ट्रेन बिलासपुर जाती है ना। अंदर बैठे व्यक्ति ने भी उसके बात सुने बिना ही स्वीकृति में सिर हिला दिया। उसका सकारात्मक जवाब पाकर ऑटो चालक जोश में आ गया, बोला देखो भाईसाहब मैं कह रहा था ना कि ट्रेन है। मैंने नरेश जी को कहा कि एक बार ठीक से पड़ताल कर लो। पता नहीं नरेश जी ने किससे पूछा। आकर बोले हां सर ट्रेन है। स्टेशन ही चलते हैं। तत्काल ऑटो घुमाया गया और स्टेशन पहुंच गए। स्टेशन पहुंचे तो पता चला कि ट्रेन बिलासपुर नहीं जाएगी, बल्कि रायपुर से ही पुरी के लिए दूसरे रास्ते पर चली जाएगी। आखिरकार तय हुआ कि दुर्ग तक इसी ट्रेन में चलेंगे। हम घर चले जाएंगे आप दुर्ग से बिलासपुर की टे्रेन पकड़ लेना। इस तरह शाम पांच बजे के करीब हम घर पहुंच गए और उधर नरेश जी रात नौ बजे के करीब पहुंचे। यकीन मानिए लम्बे समय बाद ऐसी नींद आई कि जिस करवट सोया सुबह खुद को उसी अंदाज में पाया। जागने के बाद करवट बदलने की सोची तो मुंह से हल्की से आह निकल गई। पूरा बदन दर्द कर रहा था। गनीमत रही कि दूसरे दिन रविवार था और इस दिन मेरा साप्ताहिक अवकाश होता है। नरेश जी ने फोटो मेल कर दिए थे। आफिस नहीं जा पाया था लेकिन श्रीमती के मल्टीमीडिया मोबाइल पर मेल चैक करके फोटो देख लिए। आज सोमवार सुबह तक शरीर दर्द कर रहा था। शाम को हिम्मत करके आफिस आ गया। सोचा यादगार यात्रा की है तो कुछ कलम चला ली जाए। बस फिर क्या था, लिखने बैठा और लिखते ही गया...।

प्रदूषण की जद में डोंगरगढ़

मां बम्लेश्वरी के दर्शन, ऐतिहासिक तालाब, उसमें बोटिंग करते लोग, रोप वे का नजारा तथा पहाड़ से दिखाई देता विहंगम दृश्य। निसंदेह यह सब एक अलग अनुभव है डोंगरगढ़ जाने वालों के लिए। मेरे लिए भी यह सब बिलकुल नया था। जैसा सुना था उससे कहीं बढ़कर पाया डोंगरगढ़ को। एक बात और अमूनन लोग किसी स्थान पर जाने से पहले उसके बारे में पूरी जानकारी जुटाते हैं लेकिन मेरे साथ इससे ठीक उलटा हुआ। मैंने केवल इतना सुना था कि डोंगरगढ़ में मां बम्लेश्वरी देवी का ऐतिहासिक मंदिर है और उसकी समूचे छत्तीसगढ़ में काफी मान्यता है। यह बात नवरात्र के दौरान मैं देख भी चुका था। फिर भी मंदिर का इतिहास, किस्से, कहानियों का मुझे  बिलकुल भी पता नहीं था। डोंगरगढ़ से लौटने के बाद जब नेट पर देखा तो काफी कुछ लिखा हुआ पाया डोंगरगढ़ के बारे में। काफी पुराना एवं बेहद समृद्ध इतिहास रहा है डोंगरगढ़ का। मैंने सोचा कि ऐसा क्या लिखा जाए जो किसी ने लिखा ना हो। हालांकि क्या लिखना है यह तो मैंने डोंगरगढ़ प्रवास के दौरान ही तय कर लिया था। फिर संदर्भ के लिए नेट का सहारा लिया तो पाया कि जो मैंने सोचा है वैसा कुछ भी नहीं लिखा है। डोंगरगढ़ में सर्वप्रथम जो बात खटकी वह यह कि सीढिय़ों के सहारे मंदिर तक जो दुकानें, होटल एवं भोजनालय बने हुए हैं, उन सब का कचरा पहाड़ पर ही फेंका जाता है। कुछेक स्थानों पर उसको जलाते हुए भी देखा गया लेकिन बहुत सी जगह कचरा बिखरा पड़ा है। उसको ना तो एकत्रित किया जाता है और ना ही उसका निस्तारण। बड़े पैमाने पर पहाड़ के अंदर ही कचरा डम्प हो रहा है। यह कचरा बड़े स्तर पर पर्यावरण प्रदूषण की वजह बन रहा है। दूसरी बात यह अखरी कि मंदिर परिसर में फोटो खींचना मना है का बोर्ड तो लगा रखा है लेकिन यह बोर्ड केवल दिखाने के लिए ही है। मंदिर परिसर में शायद ही कोई ऐसा होगा जिसके हाथ में कैमरा या कैमरे वाला मोबाइल ना हो। कोई किसी को रोक ही नहीं रहा था। फोटोग्राफी का शौक तो ऐसा दिखाई दिया कि जगह-जगह कई युगल विभिन्न मुद्राओं में फोटो खींचवाते हुए दिखाई दिए। बड़ी सी चट्टान के पास बने स्पॉट पर तो युवाओं की भरमार थी। जान की परवाह किए बिना कोई कैसे तो कोई कैसे फोटो खिंचवा रहे थे। कइयों ने बतौर याददाश्त चट्टान पर अपना नाम लिखकर भी छोड़ रखा है। करीब चार घंटे के डोंगरगढ़ प्रवास के दौरान मुझे अधिकतर युवा ही दिखाए दिए। वह भी जोड़ो के रूप में। आखिरकार डोंगरगढ़ धार्मिक स्थली होने के साथ-साथ पर्यटन नगरी भी तो है। कुल मिलाकर लोग गंदगी न फैलाने का संकल्प लें और वहां के दुकानदार भी एक जगह कचरा एकत्रित करने की शपथ लें। यही समय की मांग भी है। वरना आने वाले समय में इस कचरे की वजह से डोंगरगढ़ के नैसर्गिक सौंन्दर्य पर ग्रहण लग जाए तो बड़ी बात नहीं है। बड़े पैमाने पर पर्यावरण प्रदूषण हो रहा है यहां पर। दूसरा युवाओं में श्रद्धा का जो शगल पनपा है वह भी मर्यादा में तभी रह सकता है कि जब वहां पर सुरक्षा के कड़े प्रबंध हों। कहने को मंदिर परिसर में सीसी कैमरे जरूर लगे हैं लेकिन कैमरों की परवाह करता कौन है। मैंने सच लिखने का साहस किया है। कोई गलती हो तो मां बम्लेश्वरी माफ करें।
 बोलिए मां बम्लेश्वरी देवी की जय।

Friday, January 18, 2013

जरूरी है बदलाव


टिप्पणी 
 
आमाडुला के आदिवासी कन्या आश्रम के अतीत पर जमी गर्द कुछ साफ हुई तो वहां की असलियत और अधीक्षिका की सियासी गलियों में अहमियत सामने आई। प्रकरण से पर्दा उठने की देर थी कि अब परत-दर परत उघड़ रही है। अधीक्षिका से रसूखदारों के रिश्तों की पोल भी रफ्ता-रफ्ता खुल रही है। आक्रोश को शांत करने तथा लोगों को तात्कालिक तसल्ली देने के लिए मामले में गंभीरता की जगह गफलत बरतने वालों पर भी गाज गिरी है। वैसे यह समूचा प्रकरण लगातार विरोध के बावजूद उस पर विराम न लगाने का नतीजा था। सरकारी संरक्षण पाकर अधीक्षिका की हिम्मत और हौसले दिन-प्रतिदिन बढ़ते गए। मतलब और महत्वाकांक्षा को जब सियासत का साथ और सम्पर्कों का सहारा मिला तो कायदे टूटते गए। गठजोड़ के गलियारों में नियम नतमस्तक हो गए। दलीलें दम तोडऩे लगी तो तर्क तिरस्कृत हो गए। तभी तो अनियमितताओं एवं अव्यवस्थाओं को जागती आंखों से अनदेखा कर दिया गया। आश्रम की व्यवस्थाओं में सुधार की जगह प्रशंसा के पुल बंधने लगे। पदक और पुरस्कारों की तो झाड़ी सी लग गई। जिम्मेदारों ने जब यह जुगलबंदी देखी तो वे भी जड़वत हो गए और कुछ तेज थे, उन्होंने इस तालमेल में ताल से ताल मिलाकर घालमेल करने से गुरेज नहीं किया। दबे स्वर में कहीं विरोध हुआ भी तो उसे दबा दिया गया। और जब अति ही हो गई तो उसकी परिणति ऐसी होनी ही थी।
बहरहाल, अक्षीक्षिका को निलम्बित करने के अलावा विकासखंड शिक्षा अधिकारी व मंडल संयोजक को हटा दिया गया है। लेकिन इस कार्रवाई से लोग संतुष्ट नहीं हैं। सर्व आदिवासी समाज ने तो इस पूरे प्रकरण की सीबीआई जांच करवाने, अधीक्षिका को बर्खास्त करने, कलक्टर को निलंबित करने तथा अधीक्षिका एवं आश्रम से ताल्लुकात रखने वाले तमाम अधिकारियों को पद से हटाने की मांग की है। फिलवक्त सबसे जरूरी यही है कि जो मांगें उठ रही हैं, उन पर गंभीरता से विचार किया जाए। क्योंकि शुरू से सब कुछ सही होता तो सियासत की सरपरस्ती में संबंधों एवं सम्पर्कों के सहारे यह अवैध साम्राज्य खड़ा ही नहीं होता। इतना तो तय है कि नियमों को नजरअंदाज कर स्वार्थ की बुनियाद पर तैयार हुआ यह बेमेल गठजोड़ दो चार लोगों पर गाज गिरने से नहीं टूट पाएगा। जरूरी है आश्रम की नीचे से लेकर ऊपर तक जुड़ी तमाम व्यवस्थाओं में बदलाव किया जाए।

साभार- पत्रिका भिलाई के 18 जनवरी 12  के अंक में प्रकाशित।

Thursday, January 10, 2013

घोषणाओं का सब्जबाग!



टिप्पणी 
 
सपने देखना या दिखाना तभी सार्थक है, जब उनको निर्धारित समय सीमा में पूरा कर लिया जाए। कुछ ऐसे ही सपने बालोद जिले के लोगों ने देखे थे या यूं कहें कि दिखाए गए थे। लम्बे समय से विकास की बाट जोह रहे एवं मुख्यधारा से कटे लोगों की खुशी का उस वक्त ठिकाना नहीं था, जब बालोद को जिला बनाने की घोषणा की गई थी। यह सपने पूरे होने की दिशा में उठाया गया एक कदम माना गया। एक तो नए जिले की सौगात ऊपर से घोषणाओं की बरसात, एक तरह से मुंह मांगी मुराद पूरी होने जैसा ही तो था। लोगों की उम्मीदें जवां हो गई थीं। जिला बनने का जश्न भी जोरदार तरीके से मना। हर किसी के चेहरे पर एक अलग ही चमक नजर आई। जिला बनने की प्रथम वर्षगांठ पर प्रदेश के मुखिया एक बार फिर बालोद आ रहे हैं, लेकिन क्षेत्र के लोगों में वैसा उत्साह एवं जोश नजर नहीं आ रहा है, जैसा पिछले साल था। आए भी कैसे, बीते एक साल में न तो बालोद की सूरत बदली और न ही सीरत। हालात भी कमोबेश वैसे ही हैं, जैसे एक साल पहले थे। चुनावी साल होने के कारण इतना तो तय है कि प्रदेश के मुखिया इस बार भी करोड़ों रुपए के विकास कार्यों की घोषणा और भूमिपूजन की झड़ी लगाने से नहीं चूकेंगे। कुछ इसी तरह की घोषणाएं उन्होंने पिछले साल भी की थीं, लेकिन उनका हश्र क्या हुआ, यह बालोद के लोग बेहतर जानते हैं। हो सकता है मुख्यमंत्री के इस दौरे के चलते पिछले साल की घोषणाओं पर जमी गर्द साफ हो जाए। बालोद में वैसे भी धूल ज्यादा उड़ती है, तभी तो मुख्यमंत्री ने पिछले साल शहर को धूलमुक्त बनाने की घोषणा की थी। यह घोषणा भी, अभी तक घोषणा ही बनी हुई है और धूल यूं ही उड़ रही है। इसके अलावा और भी कई घोषणाएं अभी आधी-अधूरी हैं। बुनियादी एवं मूलभूत सुविधाओं का तो हाल ही बुरा है। गांवों को जोडऩे वाले रास्ते इतने बदहाल हैं कि पैदल चलना भी मुश्किल है।
बहरहाल, मुख्यमंत्री के आगमन से उनके दल एवं कार्यकर्ताओं में भले ही जोश हो लेकिन आम आदमी खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है। तभी तो मुख्यमंत्री के दौरे को लेकर आम लोगों में उत्सुकता तो है, लेकिन उत्साह नजर नहीं आ रहा है। उनमें जिज्ञासा जरूर है, लेकिन उम्मीदें कम हैं। सतारूढ़ दल की ओर से वर्षगांठ के बहाने अगर आगामी चुनाव में लाभ के लिए ही यह सारा उपक्रम किया जा रहा है तो इसे न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। मुखिया होने के नाते मुख्यमंत्री का दायित्व बनता है कि वे जो घोषणाएं करें वे नियत समय में पूरी हों और लम्बित घोषणाएं भी जितना जल्दी हो पूरी हो जानी चाहिएं। और अगर इतिहास ही दोहराना है तो यह चुनावी मौसम में सब्ज बाग दिखाने से ज्यादा कुछ नहीं है। सुविधाओं को तरसते लोगों के लिए यह सब्जबाग किसी छलावे से कम नहीं होगा।

साभार- पत्रिका भिलाई के 10 जनवरी 12  के अंक में प्रकाशित। 


Saturday, December 29, 2012

...हमको जगा गई दामिनी


बस यूं ही

 
शर्मिन्दा तो हम उसी दिन हो गए थे लेकिन आज शोकाकुल हैं। दामिनी के दर्द से हम इतने गमगीन हैं कि गुस्सा भी एक बार इस पहाड़ जैसे गम में गुम हो गया है। हम स्तब्ध भी हैं और निशब्द भी। आज हमारा आक्रोश, अफसोस में बदलकर आंसुओं तक पहुंच गया है। संवेदनाओं के सैलाब की तो कोई सीमा ही नहीं है। कल तक जिन होठों पर प्रार्थनाएं थी, आज उन पर पछतावा है। दरिंदगी की शिकार हुई दामिनी की सलामती के लिए मांगी गई दुआएं भी एक-एक कर दम तोड़ गई। उम्मीदें तो पहले दिन से ही आशंकाओं से घिरी थी, लिहाजा तेरह दिन बाद वे भी साथ छोड़ गई। वैसे जिंदगी की जंग के परिणाम आशाओं के अनुरूप नहीं आए, लेकिन सही मायनों में जंग अब शुरू हुई है। दीपक खुद चलता है लेकिन दूसरों को राह दिखाता है। वह पथ प्रदर्शक का काम करता है। दामिनी का दर्जा तो दीपक से भी बड़ा है। वह तो बिजली है। एक बार 'कौंधकर' हकीकत बता गई। हमको आइना दिखा गई, औकात बता गई। जाते-जाते एक नई राह और दिशा भी दिखा गई। पखवाड़े भर पहले तक न तो उसको कोई जानता था, लेकिन आज हर दिल में दामिनी के लिए दर्द है। हर दिल दुखी है। फर्क फकत इतना है कि अब दुआओं की जगह आहें हैं। ऐसे आहें, जो हर ओर से और हर आदमी के दिल से उठ रही है। खुद चिरनिद्रा में सोकर हम सबको जगा गई है दामिनी।
समूचा देश दामिनी के दर्द से दुखी है। लोगों ने जिस जज्बे एवं हौसले के साथ दुष्कर्म के विरोध में जो आवाज उठाई है, निसंदेह उसके दूरगामी परिणाम होंगे, इसमें कोई दोराय नहीं होनी चाहिए। वैसे देश में कदम-कदम पर प्रताडि़त होने वाली दामिनियों की कमी नहीं है। सोचिए हम उनके समर्थन में कितना आगे आते हैं। दामिनी जैसी हमदर्दी और हिम्मत अगर हम हर बार और हर मामलो में दिखाएं तो यकीन मानिए ऐसा दु:साहस कोई सपने में भी नहीं करेगा। सिर्फ संवेदना जताने, जज्बाजी स्लोगन लिखने या मोमबत्ती जलाने से हमारी फितरत नहीं बदलने वाली। हमको अब संवेदनाओं को सब्र देने का कोई सबब चाहिए। वह किसी संकल्प के रूप में भी हो सकता है। दूसरों से उम्मीद न करते हुए शुरुआत खुद से कीजिए। परिवार से कीजिए। बच्चों को संस्कार दीजिए। दामिनी ने चेतना की जो नई लौ प्रज्वलित की है, वह निरंतर और अनवरत जलती रहे, यही उसको सच्ची श्रद्धांजलि होगी। नए साल की शुरुआत इसी संकल्प के साथ करेंगे तो सचमुच सोने पे सुहागा होगा।

Friday, December 21, 2012

जिम्मेदारी को समझें


टिप्पणी 

 
हमारी फितरत ही कुछ ऐसी है कि हमें केवल तात्कालिक हादसों पर ही गुस्सा आता है। कभी-कभी तो हम इतने हिंसक हो जाते हैं कि तोडफ़ोड़ करने से भी नहीं चूकते। दिल्ली में मेडिकल छात्रा से हुए गैंगरेप का मामला भी कुछ इसी तरह का है। समूचे देश में सड़क से लेकर संसद तक बवाल मचा हुआ है। शर्मसार करने वाले इस वाकये की निंदा दुर्ग-भिलाई में भी हो रही है, लेकिन जैसा गुस्सा और आक्रोश देश के बाकी हिस्सों में दिखाई दिया वैसा यहां नहीं दिखा। और जो थोड़ा बहुत गुस्सा कहीं दिखा, वह भी तात्कालिक ही है। वैसे दुर्ग व भिलाई के लोग न केवल स्थानीय बल्कि देश-विदेश की गतिविधियों पर प्रतिक्रिया स्वरूप अजीबोगरीब प्रदर्शन कर ध्यान बंटाते रहते हैं, लेकिन गैंगरेप मामले में एक दो कागजी बयान एवं कैंडलमार्च को छोड़कर कुछ नहीं हुआ। क्या दोनों शहरों में ऐसे जागरूक लोग व संगठन नहीं हैं, जो इस अत्याचार के खिलाफ इतनी आवाज बुलंद करें कि उसकी गूंज दिल्ली तक सुनाई दे और यहां भी कोई इस प्रकार का कृत्य करने की सपने में भी ना सोचे। बदकिस्मती से ऐसा हो नहीं रहा है। तभी तो दोनों शहरों में बेटियों से अनाचार के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। दुर्ग जिले में इस साल अब तक अस्मत लुटने के छह दर्जन से अधिक मामले दर्ज हो चुके हैं जबकि छेड़छाड़ की घटनाएं तो डेढ़ सौ के पार हो गई। यह तो वे मामले हैं जो पुलिस के पास पहुंचे और दर्ज हुए। वरना बहुत से मामले कभी संस्कारों के नाम पर, कभी गरीबी के नाम पर तो, कभी सत्ता पक्ष के दबाव के चलते तो कभी मजबूरी के चलते दबा दिए जाते हैं। और फिर कोई विरोध भी नहीं जताता। आम लोगों की चुप्प्पी के साथ-साथ नारीवादी स्वयंसेवी संगठनों का हाल भी एक जैसा ही है। कमोबेश यही हालात पुलिस की है। हाल ही में भाई-बहन के अपहरण के प्रयास में प्रयुक्त गाड़ी बिना नम्बर की थी और उसके शीशों पर काली फिल्म चढ़ी थी। अपहर्ताओं में से एक ने नकाब भी बांध रखा था। गाडिय़ों तथा शीशों की जांच नियमित होती तो क्या ऐसे वाहन सड़कों पर नजर आते? अपहर्ताओं में एक नकाबपोश क्या नजर आया अब सड़क पर चलने वाला हर नकाबपोश ही पुलिस की नजरों में संदिग्ध हो गया है। इस मामले में पुलिस शुरू से ही गंभीर होती तो क्या आज ऐसे अभियान चलाने की जरूरत पड़ती? भिलाई की पहचान शिक्षानगरी के रूप में है। यहां बाहर से बड़ी संख्या में विद्यार्थी अध्ययन करने आते हैं। शहरवासियों व सामाजिक संगठनों की चुप्पी तथा पुलिस की उदासीनता से निसंदेह अपराधियों के हौसले बढ़ेंगे। फिर ऐसे माहौल में कोई यहां क्यों व किसलिए आएगा, समझा जा सकता है।
बहरहाल, हम सभी हादसों को जल्दी भूल जाने की बीमारी से ग्रसित हैं। इसलिए सबसे पहले याददाश्त दुरुस्त करने की जरूरत है। न केवल आम आदमी को बल्कि पुलिस और नारीवादी स्वयंसेवी संगठनों को भी। यकीन मानिए सभी ने अपनी जिम्मेदारी नहीं समझी तो दुर्ग को 'दिल्ली' बनते देर नहीं लगेगी। बदकिस्मती से ऐसा हुआ तो शिक्षा के मामले में अव्वल शहर की शान पर ऐसा धब्बा लग जाएगा जो लाख चाहने के बाद भी मिट नहीं पाएगा।



साभार - पत्रिका भिलाई के 21 दिसम्बर 12 के अंक में प्रकाशित। 

Sunday, December 16, 2012

आंखें


आंखें करती
हैं बातें,
आंखों से
चुपचाप।
आंखों का
यह बोलना
भी आंखों
को ही सुनाई
देता है।
आंखों की
भी अलग
ही दुनिया
है, अजीब
सी और,
भाषा भी।
इस भाषा
को आखें
ही समझती
हैं, सुनती हैं
और जवाब
देती हैं।
अंखियां लड़ती
भी हैं,
बिना किसी
शोरगुल के।
कोई हो-हल्ला
भी नहीं
करती हैं।
आदमी की
तरह लड़कर,
अलग भी
नहीं होती,
हैं आखें।
अंखियां घर
भी बसा
लेती हैं,
एक दूजे
के पास।
कितने ही
किस्से जुड़े
हैं आखों
के साथ।
और मुहावरों
की तो
बहुत लम्बी
सूची है।
आंख लगना,
आंख मिलना,
आंखें दिखाना,
आखें लड़ाना,
आंखें चुराना,
आंख मूंदना,
आंख मारना,
आंख फेरना,
आंख झुकाना,
आंख का तारा,
आंख की किरकिरी,
और भी
न जाने
क्या क्या
जुड़ा है
आंखों से।
आखें सागर है,
नदिया है,
झील है,
तभी तो
प्यास भी
बुझाती हैं,
आखें।
आंखें भी
कई तरह
की होती हैं।
उनींदी आखें,
सपनीली आखें,
नीली आखें,
काली आखें,
भूरी आंखें।
आखें कटार
भी हैं
और तलवार
भी।
अजूबा है,
इन आंखों
का संसार,
अनूठा है,
निराला है,
बिलकुल रोचक,
कितना कुछ
करवाती हैं
आखें।
बिना बोले
चुपचाप,
एकदम चुपचाप।

मन

मन, तो
मन है।
इसकी
थाह भला
कौन
ले पाया।
कितने ही
अर्थ जुड़े

हैं मन से।
और हां,
नाम भी
कई हैं
मन के।
और रूप
भी तो हैं कई।
कभी मन
मीत बन
जाता है
तो कभी
मन मौजी।
और कभी कभी
मन मयूरा
भी हो जाता है।
मन किसी
को चाहने भी
लगता है।
मन ही मन।
कोई आस
अधूरी रह
जाती है
तो मन
मसोस
दिया
जाता है।
और कोई
चाह पूरी
होती है तो,
वह मन
की मुराद
बन जाती है।
मन तो
रमता जोगी
है, एक पल
में ही
कितनी
सीमाएं लांघ
जाता है।
पलक झपकते
ही दुनिया
की सैर
कर आता है
कभी
आसमान में
उड़ता है।
चांद-तारों की
बात करता है।
मन तो मन है।

दिन


दिन,
आज भी
उसी अंदाज में
निकला,
और
ढल गया।
रोज ही तो
ऐसा होता है।

बस लोगों का
नजरिया,
अलग है।
किसी ने
सुबह को सर्द
तो किसी ने
सुहानी कहा।
और धूप
उसको भी
कहीं गुनगुनी तो
कहीं चटख
नाम से
पुकारा गया।
दिन ढला
उसे भी
सुहानी शाम,
सिंदूरी शाम,
नाम दे
दिया, गया
दिन,
रोज ही
तो ऐसे
निकलता है,
वह कहां
बदलता है,
मौसम
बदलता है
आदमी
बदलता है
लेकिन दिन तो
दिन ही
रहता है
सदा,
वह बदलता
नहीं
बस नजरिया
बदल जाता है।
और हां,
तारीख बदलती है
माह बदलता है
साल बदल जाते हैं
लेकिन दिन तो
दिन ही
रहता है
हां हमने दिन
का नामकरण
कर दिया है
हर साल
उसको
उसी नाम से
पुकारते हैं
लेकिन
दिन तो दिन ही
रहता है,
बदलता नहीं।

आदमी

शेरो शायरी का शौक तो बचपन से ही रहा है। आज कविता लिखने की सोची। संयोग देखिए शुरुआत आदमी से हुई। अति व्यस्तता के बीच कल्पना के घोड़े दौड़ाना वैसे बड़ा मुश्किल काम है। फिर भी तुकबंदी के सहारे कुछ तो लिखने में सफल हो गया। कभी फुर्सत मिली तो और लिखूंगा। फिलहाल तो इतना ही...



 आदमी



आदमी,
आज का आदमी,
अपनों से कट गया है,
जाति में बंट गया है,
भूल सब रिश्ते-नाते,
खुद में सिमट गया
है
आदमी,
आज का आदमी।
दर्प से चूर हुआ है,
फिर भी मजबूर हुआ है,
भरी भीड़ में देखो,
अपनों से दूर हुआ है।
आदमी
आज का आदमी।