Monday, September 16, 2013

सपनों की सियासत...1


बस यूं ही

 
आजकल बेहद उधेड़बुन में हूं और असमंजस में भी। सोते-उठते जेहन में एक ही सवाल कौंधता है... सपने देखने चाहिए या नहीं...। बहुत दिमाग खपा लिया लेकिन फिलहाल किसी फैसले पर नहीं पहुंचा हूं..। कई बार तो मन ही मन प्रण ले लेता हूं कि कल से सपने के बारे में नहीं सोचूंगा, लेकिन कोई न कोई बात ऐसी निकल ही जाती है कि सपने का सवाल फिर उठ खड़ा होता है। अंदर ही अंदर विचारों का प्रवाह दौड़ता है। कभी कभी तो यह प्रवाह इतना उग्र हो जाता है कि विचारों में द्वंद्व होने लगता है। वैसे भी मौजूदा दौर में सपने पर कुछ बोलना या कहना खतरे से खाली नहीं है। सपनों के साथ आजकल सियासत जो जुड़ गई है। सपने का समर्थन करने या विरोध करने का सीधा सा मतलब खुद पर किसी दल की विचारधारा का ठप्पा लगवाने से कम नहीं है। राजनीतिक गलियारों में बयानों के भावार्थ न चाहते हुए भी निकाल ही लिए जाते हैं। बस यही सोचकर कई दिनों से चुप था लेकिन जब सपनों की बात बढ़ ही गई है तो फिर जोखिम उठाने की हिम्मत जुटा ही ली। वैसे भी हमारी जमात के प्रति नेक विचार होते ही कितनों के हैं। ऐसे संक्रमण के काल में जब जमात के कुछ साथी बिना कुछ किए व कहे नाहक ही बदनाम हो रहे हैं, उससे तो बेहतर है कि चुप्पी तोड़ ही दी जाए। खैर, मुद्दे की बात यह है कि मेरा सपने देखने और दिखाने के दर्शन में विश्वास मिलाजुला सा ही है। यह मेरी बेहद निहायत और निजी राय है। सपने देख भी लेता हूं और नहीं भी। यह बात दीगर है कि रात को सपने अपने आप जरूर आ जाते हैं। न चाहते हुए भी। कभी सुहावने तो भी डरावने। उन पर किसी की कोई बंदिश नहीं है.. कोई रोक नहीं है। मेरा मानना है कि इस प्रकार से सपने तो सभी को ही आते होंगे। फितरन कुछ लोग अपने सपनों को साझा भी करते हैं। कुछ तो सपने का फल जानने के लिए बड़े बेताब नजर आते हैं। यह तो हुई ना चाहते हुए भी सपने देखने की बात। अब मेरा तजुर्बा तो यह कहता है कि सपने देखने के साथ दिखाने भी पड़ते हैं। बात को आजमाना हो तो इसके लिए खुद के परिवार से बड़ा उदाहरण कोई नहीं है। किसी चीज को लेकर बच्चे जब जिद करते हैं.. रोते हैं.. रुठते हैं... तो हम या तो उनकी जिद पूरी कर देते हैं या फिर उनको भरोसा दिलाते हैं, उनसे वादा करते हैं... आश्वासन देते हैं। यह सब करना एक तरह का लॉलीपाप या सपना ही तो है। यही कहानी बच्चों की मां से जुड़ी होती है। उसकी कई मांगें तो तत्काल पूर्ण करने वाली ही होती हैं। कुछ हाथोहाथ पूरी नहीं भी हो पाती हैं, जिनको दूरगामी मांगें भी कह सकते हैं, उनके लिए सब्जबाग दिखाने की कलाकारी करनी पड़ती है। यह एक सपना ही तो है। भले ही आपने नहीं देखा लेकिन आपके आश्वासन से किसी ने तो देख लिया..। जारी है..

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