Monday, September 16, 2013

सपनों की सियासत...3


बस यूं ही

 
'मैं सपने नहीं देखता, क्योंकि सपने देखने वाला बर्बाद हो जाता है।' 'हमें सशक्त सरकार और सशक्त नेता के सपने को पूरा करना है।' पढऩे में यह दो साधारण वाक्य ही हैं लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है। याद कीजिए यह दोनों बयान एक ही व्यक्ति के हैं। अंतर महज इतना सा है कि पहला बयान पखवाड़े भर पहले का है जबकि दूसरा एकदम ताजातरीन है और रविवार को ही आया है। दोनों बयानों में विरोधाभास है या समानता, यह आम आदमी भी आसानी से समझ सकता है। एक तरफ जनता को सपना दिखाया जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ सपना देखने से होने वाले संभावित खतरे से आगाह भी किया जा रहा है। हां, इतना जरूर है कि दोनों बयान जारी हुए तब हालात जुदा-जुदा थे। एक बयान उस वक्त का है जब तस्वीर साफ होने में कुछ संशय था। उस पर विरोध के बादल मंडरा रहे थे। दूसरा बयान तस्वीर साफ होने के बाद का है। भले ही विरोध को दरकिनार कर दिया गया हो। इससे इतना तो तय हो गया कि परिस्थितियों के हिसाब से सपने की परिभाषा भी बदल जाती है। सपना अब व्यक्तिगत नहीं सामूहिक हो गया है, मतलब सब मिलकर सपना देखेंगे और फिर...सपने देखने वाला...हो गया.. तो, राम-राम, भगवान सलामत रखे। खैर, मेरे को तो दोनों बयान विरोधाभासी लगे। बयानों का इस तरह यू टर्न देखकर अब पक्का यकीन हो गया कि राजनीति में सब कुछ स्थायी क्यों नहीं होता है। महोब्बत और जंग की तरह राजनीति में भी सब कुछ जायज क्यों है। यह इसलिए क्योंकि यहां न तो कोई स्थायी मित्र होता है और ना ही स्थायी दुश्मन। परिस्थितियों के हिसाब से सब कुछ बदलता रहता है। तभी तो राजनीति करने वाले या इसमें रुचि रखने वाले अवसरवादिता से परहेज नहीं करते। बहरहाल, बयानों के इस तरह बाल की खाल निकालने की तर्ज पर भावार्थ तलाशने के कारण मेरे पर किसी विचारधारा विशेष का समर्थन करने जैसे गंभीर आरोप लगने लाजिमी हैं। वैसे भी मेरे विचारों से सभी संतुष्ट हों यह भी तो जरूरी नहीं है और हो भी नहीं सकते। हाथ की पांचों अंगुलियां ही बराबर नहीं होती तो फिर विचारधारा में समानता की कल्पना करना ही बेमानी है। खैर, यहां पर आलोचना किसी व्यक्ति विशेष की नहीं होकर उन दो बयानों की है, जो देश में खासे चर्चित हो गए हैं। वैसे मैं पहले ही स्पष्ट कर चुका हूं कि हमारे देश में सपनों का कारोबार है, यहां सपने बिकते हैं। इसलिए सियासत में सपने देखे या दिखाए नहीं जाएंगे तो फिर सत्ता रूपी सफलता की सीढ़ी चढऩा असंभव ही नहीं नामुमकिन हो जाएगा। बस देखने की बात यह है कि सपने पूरे किस तरह से होते हैं। क्योंकि सपनों को साकार करने के लिए मेहनत जरूरी है। स्वामी विवेकानंद ने भी कहा था कि, जिसने कल्पना के महल नहीं बनाए उसे वास्तविक महल भी उपलब्ध नहीं हो सकता है। स्वामी जी के कहने का आशय यही था कि सपने देखने चाहिए लेकिन उनको पूरा करने के लिए कड़ी मेहनत भी जरूरी है। लेकिन गौर करने लायक बात यह भी है कि सपने टूटने का ग्राफ सियासत में ही ज्यादा है। सपने जब टूटते हैं तो फिर गोपालदास नीरज याद आते हैं। और याद आता है उनका वह कालजयी गीत, जिसमें उन्होंने कहा है...
स्वपन झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे।
वाकई सियासत में जब सपने टूट जाते हैं तो गुबार ही हिस्से में आता है.। जारी है...

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